नोबेल पुरस्कार के बारे में तो लगभग दुनिया का हर एक शख्स जानता है. अधिकतर लोग इस बात से भी भलीभांति परिचित होते हैं कि यह पुरस्कार कितने कड़े परिश्रम और सालों की मेहनत के बाद मिलता है.
हालांकि आज हम आपको इस पुरस्कार से जुड़ी एक कहानी के बारे में बताने जा रहे हैं. यह कहानी दूसरे विश्व युद्ध के समय की है जब हिटलर की नाजी सेना ने पूरी दुनिया में कत्लेआम मचा दिया था.
इसी बीच हिटलर के आदेश पर जर्मन के दो नोबेल पुरस्कार विजेताओं के मेडल छीन लाने के लिए कहा गया. हालांकि दो महान वैज्ञानिकों ने अपनी सूझबूझ से इन मेडल को इस तरीके से बचाया.
उनके इस काम के लिए आगे चलकर उन्हें नोबेल पुरस्कार ने सम्मानित किया गया. आखिर कौन थे ये वैज्ञानिक और कैसे इन्होंने नाजियों से उन मेडल को बचाया आइये जानते हैं–
नोबेल मेडल हथियाना चाहते थे नाजी!
1940 में जब हिटलर ने दूसरे विश्वयुद्ध का बिगुल बजाया, तो जर्मनी में स्थिति काफी बिगड़ गई. अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए हिटलर ने अपनी नाजी सेना को आदेश दिया कि वह जर्मनी को पूरी तरह से कंगाल कर दें.
इसके लिए वह जर्मनी में मौजूद सारा सोना चुराने लगे. हिटलर इस बात से भलीभांति परिचित था कि जर्मन के दो बड़े वैज्ञानिकों के पास नोबेल मेडल पड़े हैं. वह खासतौर पर उन्हें पाना चाहता था. इसलिए उसने अपने सैनिकों को उन मेडल को लाने का आदेश दिया.
उन वैज्ञानिकों में से एक मैक्स वॉन लोए थे.
उन्होंने भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में क्रिस्टल द्वारा एक्स-रे का विवर्तन करने की तकनीज इजात की थी. इसके लिए उन्हें 1914 में नोबेल पुरस्कार मिला था.
वहीं दूसरे वैज्ञानिक जेमस फैंक्को थे. उन्होंने परमाणु पर इलेक्ट्रॉन के प्रभाव को नियंत्रित करने के नियम को खोजा था. इसके लिए उन्हें 1925 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
इन दोनों वैज्ञानिकों को पता चला कि नाजी सेना उनके मेडल लेने आ रही है. इसलिए उन्होंने मेडल को बचाने के लिए उन्हें बोहर इंस्टीट्यूट के संस्थान में भेज दिया. जब यह मेडल नील्स बोहर को मिले, तो वह भी चिंता में पड़ गए कि वह आखिर इन मेडल को नाजियों से कैसे बचाएंगे!
मेडल को बचाने के लिए बनाना चाहा 'तरल'!
जैसे-तैसे नाजी सेना को वैज्ञानिकों की चाल का पता चल गया. इसके बाद वह सीधा इंस्टीट्यूट की तरफ जाने लगे.
नाजी सैनिक कोपेनहेगन शहर में पहुंच गए थे. इस दौरान संस्थान में मौजूद कैमिस्ट जॉर्ज दे हेवेसय ने नील्स बोहर को सुझाव दिया कि क्यों न वह इन मेडल को जमीन में दफना दें.
मगर बोहर ने इस सुझाव को ठुकरा दिया. ऐसा इसलिए क्योंकि वह जानते थे कि नाजी अगर यहां आते हैं, तो मेडल की खोज में वह लैब समेत बगीचे की सारी जमीन खोद देंगे.
ऐसे में जमीन में दबाने की तरकीब काम नहीं आएगी. कुछ देर बाद जॉर्ज ने सुझाव दिया कि क्यों न इन मेडल को गायब कर दिया जाए. बोहर ने हैरान होकर पूछा कि ये कैसे संभव है, तो जॉर्ज ने जवाब दिया की इन्हें तरल में परिवर्तित करके.
वहीं दूसरी ओर नाजी सेना तेजी से संस्थान की ओर बढ़ रही थी. संस्थान में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि सोना एक बेहद ठोस धातु होता है. यह इतनी आसानी से तरल में परिवर्तित नहीं हो सकता है.
ऐसे में यह नतीजा निकला कि अगर सोने को एक विशेष प्रकार के रसायन Aqua Regia में डाला जाता है, तो पूरी संभावना है कि मेडल तरल में बदल जाएंगे. दरअसल Aqua Regia में 75 फीसदी हाइड्रोलिक एसिड और 25 फीसदी नाइट्रिक एसिड होता है.
ये इस कार्य को करने की क्षमता रखता है. जब सोने को इन दोनों शक्तिशाली रसायनों के मिश्रण में डाला जाता है, तो नाइट्रिक एसिड सोने के इलेक्ट्रॉन को सोने से अलग कर अणुओं को सतह पर ले आता है.
ठोस सोना एक तरल का रूप ले लेता है. इसके बाद बारी आती है हाइड्रोलिक एसिड की. यह इस तरल को पूरी तरह से घोल पानी के समान पतला कर देता है. इसके जरिए उन्होंने मेडल को पिघलाने का प्लान बनाया.
नहीं लगा नाजी हाथों में मेडल!
दोनों मेडल को Aqua Regia एसिड में डाल दिया गया. सोने के घुलने की प्रक्रिया काफी समय ले रही थी मगर कुछ मिनटों बाद धीरे-धीरे दोनों मेडल एक संतरी तरल में बदल गए.
इस दौरान इस तरल को ध्यान से बोतलों में डालकर शेल्फ पर रख दिया गया और बोहर व जॉर्ज अन्य लोगों के साथ वहां से भाग गए. कुछ समय बाद जब नाजी सैनिक संस्थान पहुंचे, तो उन्होंने मेडल की तलाश में पूरा संस्थान छान मारा.
यहां तक की बाग की जमीन भी उन्होंने खोद डाली. लैब तहस-नहस कर डाली मगर किसी सैनिक का ध्यान उन बोतलों में पड़े संतरी तरल पर नहीं गया.
1943 में जब नाजियों ने कोपेनहेगन पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया, तो किसी यहूदी वैज्ञानिक के लिए वहां रहना संभव नहीं था.
इसलिए जॉर्ज स्वीडन चले गए. कुछ समय बाद जब हालात समान्य हो गए तो जॉर्ज लैब में वापिस आए और अपनी रसायनिक विज्ञान की समझ का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ऐसा काम कर दिखाया जिसने उन्हें इतिहास में हमेशा के लिए अमर कर दिया.
उन्होंने उस संतरी तरल में से सोने को अलग कर दिया. रसायनिक विज्ञान के क्षेत्र में की गई उनकी इस नई खोज के लिए उन्हें भी नोबेल पुरस्कार में सन्मानित किया गया था.
1952 में फिर से दिए गए मेडल
जनवरी 1950 में अलग किए गए कच्चे सोने को स्वीडिश अकेडमी भेज दिया गया. वहां नोबेल फाउंडेशन के लोगों ने इस सोने को फिर से मेडल के रुप में ढाल दिया.
फिर 1952 में इन्हें एक बार फिर से मैक्स और फैंक्को को दिया गया. फिर से मेडल मिलने की खुशी में फैंक्को ने 31 जनवरी 1952 को यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागों में एक खास समारोह आयोजित किया.
नेल्स को भी उनके कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्होंने अपने नोबेल पुरस्कार को 12 मार्च 1940 में एक नीलामी में बेच दिया था. इस मेडल को बाद में डैनिश हिस्टोरिकल म्यूजियम के हवाले कर दिया था. वहां आज भी इसे देखा जा सकता है.
तो यह थी तीन नोबेल पुरस्कार धारकों की कहानी.
यकीन है कि आपको ये कहानी अच्छी लगी होगी. अगर आपके इस कहानी को लेकर कोई सुझाव हैं तो कमेंट बॉक्स में हमें जरूर बताएं.