19वीं शताब्दी के मध्य को बांग्ला के स्वर्णिम युग की शुरूआत कही जा सकती है. इस समय के लेखकों, कवियों ने बांग्ला साहित्य को आदर्श और विचार प्रदान करने में बड़ा योगदान दिया.
इन्हीं में से एक थे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, जिन्हें बंकिम चंद्र चटर्जी भी कहा जाता है. इन्हें 'वंदे मातरम्' जैसा उत्कृष्ट गीत लिखने के लिए सम्मान के साथ याद किया जाता है.
इन्होंने बंगाली, संस्कृत और अंग्रेजी में साहित्य की रचना की. ब्रिटेन सरकार के मातहत काम किया, लेकिन कभी भी राष्ट्र प्रेम की भावना के साथ समझौता नहीं किया. और अंग्रेजी के पक्षधर तो ये कभी नहीं रहे.
जी हां! बंकिम चंद्र ने देशभक्ति, भारतीय संस्कृति और समाज को प्रदर्शित करने वाली कृतियों से लोगों का साकार कराया.
ऐसे में आइए, आज ही के दिन 27 जून 1838 को पैदा हुए बंकिम चंद्र के बारे में रोचक तथ्य जान लेते हैं –
ब्रिटिश क्राउन के अंतर्गत किया काम
बंकिम चंद्र का जन्म उत्तरी 24 परगना जिले के कंथलपाड़ा गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनके पिता यादव चंद्र चट्टोपाध्याय मिदनापुर के डिप्टी कलैक्टर थे.
इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मिदनापुर से ली और फिर अगले छह साल तक हुगली के मोहसिन कॉलेज में पढ़ाई की.
इसके बाद इन्होंने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से बीए किया और फिर कानून की पढ़ाई की.
उस समय बंकिम चंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री लेने वाले पहले भारतीय थे.
पढ़ाई खत्म करने के तुरंत बाद इन्हें इंग्लैंड की महारानी ने डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त कर दिया. कुछ समय तक ये बंगाल सरकार के सचिव भी रहे.
ये पहले भारतीय थे, जिन्हें इंग्लैंड की महारानी ने 1858 में इस पद पर नियुक्त किया था.
इन्होंने लगभग 33 साल तक ब्रिटिश क्राउन के अंतर्गत काम किया और अंतत: 1891 में रिटायर हो गए.
इनके काम से खुश होकर अंग्रेजों ने इन्हें राय बहादुर और सीआईई की उपाधि से सम्मानित किया.
पहली रचना अंग्रेजी में लिखी, लेकिन
बंकिम चंद्र ने अपने जीवन में कई उपन्यास लिखे, जिसमें से आनन्द मठ का विशेष रूप से उल्लेख मिलता है. इसी के साथ देवी चौधरानी, मृणालिनी, चंद्रशेखर, विषवृक्ष, इन्दिरा, दुर्गेशनन्दनी, दफ्तर, कपाल, कुंडाला, राधारानी, सीताराम आदि भी महत्वपूर्ण कृतियां हैं.
सन 1865 को लिखा गया दुर्गेशनन्दनी उपन्यास इनकी बांग्ला भाषा में पहली कृति मानी जाती है.
इसके एक साल बाद इन्होंने अगला उपन्यास कपालकुंडला लिखा. इनकी ये रचना भी काफी मशहूर हुई.
हालांकि, इनकी पहली रचना अंग्रेजी में लिखी गई ‘राजमोहन्स वाइफ’ थी. इसके बाद शायद ही इन्होंने किसी कृति को विदेशी भाषा में लिखा.
अपने पहले उपन्यास के लगभग 17 साल बाद बंकिम चंद्र ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'आनंद मठ' का निर्माण किया. जिसमें लिखा देशभक्ति से ओत-प्रोत गीत 'वंदे मातरम' आज भी इस महान देश और उसके भारत मां के प्रति समर्पण की कहानी सुनाता है.
यह उपन्यास अंग्रेजी सरकार के कठोर शासन, शोषण और उनके प्राकृतिक दुष्परिणाम जैसे अकाल को झेल रही जनता को जागृत करने के लिए खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था.
बंगला के शीर्षस्थ और सिद्धहस्त उपन्यासकार होने के नाते इन्हें भारत का एलेक्जेंडर ड्यूमा भी माना जाता है.
बंकिम चंद्र ने 1872 ई. में बंगदर्शन नामक साहित्यिक पत्र का प्रकाशन भी किया. माना जाता है कि इसी पत्र में लिखकर रबीन्द्रनाथ टैगोर ने साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया था.
अंग्रेजी के विरोध में लिखा ‘वंदे मातरम’!
कहा जाता है कि 7 नवंबर, 1876 ई. को बंगाल के कांतल पाड़ा गांव में इस गीत की रचना की गई थी. इसके पहले दो पद संस्कृत भाषा में और शेष पद बांग्ला में लिखे गए थे.
सन् 1870 के दशक में ब्रिटिश शासन ने 'गॉड! सेव द क्वीन' गीत को गाया जाना सभी के लिए अनिवार्य कर दिया था.
ऐसे में सरकार के अंतर्गत काम कर रहे बंकिम चन्द्र को शायद ये बात कुछ जमी नहीं और उन्होंने संभवत: इसके विरोध स्वरूप भारतीय भाषा के रूप में 'वंदे मातरम' की रचना की.
इस गीत की रचना के लगभग छह साल बाद बंकिम चंद्र ने इसे ‘आनंद मठ’ का हिस्सा बनाया. जो पहली बार सन 1882 में प्रकाशित हुआ था.
भारत की आजादी के समय तक ये गीत काफी प्रसिद्ध हो चुका था, जिसका देशभक्ति में रमा हुआ एक-एक शब्द भारत की संस्कृति और विविधता को दर्शाता था.
वंदे मातरम् में आने वाले शब्द दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदल विहारिणी और वाणी विद्यादायिनी भारतीय संस्कृति की अनुपम व्याख्या करते हैं.
‘वंदे मातरम’ बना राष्ट्रगीत
रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे लयबद्ध किया और पहली बार 1896 के कलकत्ता में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान गाया गया.
1905 में कांग्रेस के बनारस अधिवेशन के दौरान सरला देवी ने भी इसे गाया. यहां इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया. वहीं सन 1906 में पहली बार वंदे मातरम् को देवनागरी लिपि में लिखा गया.
इसके बाद, 19 जुलाई 1905 को भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा किए गए बंगाल विभाजन के दौरान इस गीत ने पूरे बंगाल को एक कर दिया था.
1907 में बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ बंग-भंग आंदोलन में वंदे मातरम् राष्ट्रीय नारा बना.
इससे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया. और तब ये गीत पूरे भारत में फैल गया, जब बांग्लादेश के बारीसाल (पहले भारत का हिस्सा था) में चल रहे कांग्रेस अधिवेशन पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया. ये गीत तब आंदोलनकारियों में देशभक्ति का उबाल मारने के लिए काफी था. और ऐसा हुआ भी.
इसी साल, मैडम भीकाजी कामा द्वारा जिस तिरंगे को जर्मनी के स्टटगार्ट में फहराया गया, उस पर वंदे मातरम् ही लिखा हुआ था.
लेकिन इसका विरोध भी किया जाता रहा.
मुस्लिम लीग ने इसकी मुखालफत की और गांधी जी ने भी इसके इस्तेमाल में मुसलमानों की भावनाएं आहत होने की आशंका को देखा. शायद यही कारण था कि भारत की स्वतंत्रता की शाम ये गीत न तो राष्ट्रगान बन पाया और न ही इसे राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता मिली.
बावजूद इसके, आजादी की अल सुबह घड़ी में 6:30 बजते ही आकाशवाणी पर वंदे मातरम का सजीव प्रसारण किया गया.
और फिर 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इसे 'राष्ट्रगीत' का दर्जा दे दिया.
और अंत में भारत मां को समर्पित ‘राष्ट्रगीत’ की कुछ लाइनें...
वंदे मातरम्।।
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
सस्यश्यामलां मातरम्
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम्
वंदे मातरम्।।
Web Title: Indian writer, poet and journalist Bankim Chandra Chattopadhyay, Hindi Article
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