हिन्दुस्तान की धरती ने कई महान सपूतों को जन्म दिया है. जिनकी बहादुरी और हिम्मत का लोहा पूरी दुनिया ने माना है.
ये कहानी तब की है, जब गुलामी के दौर में, जहां एक ओर अंग्रेज भारत पर अपना एकाधिकार बढ़ा रहे थे, तो दूसरी ओर उनकी मंशा दुनिया पर राज करने की भी थी. शायद यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध हुआ.
बहरहाल, इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने भी अपना दम दिखाया और अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुए उन्होंने अपनी ताकत से पूरी दुनिया को परिचित कराया.
इन्हीं वीर सैनिकों में से एक थे लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज. इन्होंने ब्रिटिश आर्मी के साथ कदम से कदम मिलाकर दुश्मन का सामना किया और जीत की खातिर अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया.
महज 21 साल की उम्र में लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह शहीद हो गए. और उनका नाम भी विश्व इतिहास के उन वीरों में शामिल हो गया जिन्होंने अपने खून से इस धरती को सींचा है.
इन्हें मरणोपरांत ब्रिटिश राज के सबसे बड़े युद्ध पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस पदक से सम्मानित किया गया था.
तो आइए जानते हैं, भारत के इस जांबाज योद्धा की पूरी कहानी –
बर्मा की कॉटन मिल पर मिला कब्जे का आदेश
यह समय था साल 1923 का, जब भारत पर अंग्रेजों का राज था. इसी साल 25 मार्च को पंजाब के कपूरथला में करमजीत सिंह का जन्म हुआ.
यकीनन करमजीत के घर वालों को इस बात का अंदाजा भी नहीं होगा, कि उनका बेटा बड़ा होकर ऐसा काम कर जाएगा कि पूरा विश्व उसे नमन करेगा.
खैर, अपनी उम्र के 18 साल पूरे करने के बाद करमजीत गुलाम भारत की सेना में भर्ती हो गए.
वहीं, साल 1945 आते-आते द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया दो धड़ों में बंट गई. ऐसे में इसके केंद्र में मौजूद अंग्रेज भारत की सेना को भी अपने लिए एक मजबूत हथियार मानते थे.
और उन्होंने इन भारतीय सैनिकों के सहारे युद्ध लड़ा और उसमें इन्हीं की बदौलत जीत भी हासिल की.
न चाहते हुए भी भारत को विश्व युद्ध में ब्रिटिश आर्मी की ओर से लड़ना पड़ा. इस दौरान भारत से कई रेजीमेंट्स को दुनिया के अलग अलग देशों में भेजा गया.
18 मार्च, 1945 को लेफ्टिनेंट जज की प्लाटून को मेइकतिला, बर्मा (अब म्यांमार) में एक कॉटन मिल पर कब्जा करने का आदेश दिया गया. जिस पर जापानियों ने अपना कब्जा जमाया हुआ था.
उस समय लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज 15 पंजाब रेजिमेंट की चौथी बटालियन में थे.
युद्ध कौशल ने दिलाई बढ़त
इस मिल पर हमला करने का रास्ता काफी मुश्किल था. और जो समय हमला करने के लिए तय किया गया, उस दिन हालात और भी बदतर हो गए.
ऐसे में भारतीय रेजिमेंट की जीत की संभावना बहुत कम थी, लेकिन लेफ्टिनेंट जज ने आगे बढ़कर दुश्मनों का सामना करने का फैसला किया.
उन्हें भरोसा था कि अगर वह अपनी रेजिमेंट के साथ जमीन के रास्ते हमला करते हैं, तो उन्हें ब्रिटिश टैंकों का सहयोग मिल जाएगा.
मगर मिल तक जाने वाले रास्ते की हालत बेहद खस्ता थी, जिस वजह से ब्रिटिश टैंक करमजीत सिंह व उनकी बटालियन की कोई मदद नहीं कर सके.
ऐसे गंभीर हालातों में भी लेफ्टिनेंट जज ने अपना संयम नहीं खोया. उन्होंने अपनी पलटन का हौसला बढ़ाया और आगे बढ़ते रहे.
विश्व युद्ध के इतिहास में इस लड़ाई को मेइकतिला की जंग के नाम से जाना जाता है.
इस लड़ाई में भारतीय रेजिमेंट ने बड़ी बहादुरी से दुश्मन का सामना किया. जंग के दौरान पलटन के कमांडर लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह दुश्मन पर भारी पड़ रहे थे.
उनकी जंग को लेकर कमाल की समझ और जंग के मैदान में लिए जाने वाले फैसले बेहद कारगर साबित हुए. वह खुद आगे बढ़कर दुश्मनों के छक्के छुड़ा रहे थे.
जंग के दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब करमजीत सिंह दो जापानी सिपाहियों के सामने अकेले खड़े थे.
उनके पास केवल बंदूक के मुंह पर लगने वाला चाकू था. बिना किसी डर और हिचकिचाहट के करमजीत सिंह आगे बढ़े और उन्होंने बड़ी बहादुरी से उन जापानियों को मार गिराया.
दुश्मन की गोलियों ने छलनी कर दिया, लेकिन...
जंग में अब धीरे-धीरे लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह व उनकी पलटन अपनी बढ़त बना रही थी.
आगे बढ़ते हुए अब वह अपने मिशन के आखिरी पड़ाव पर पहुंच गए थे.
अब तक वह दुश्मन के दस बंकरों को अपना निशाना बना चुके थे. और अंतिम जापानी सैन्य टुकड़ी का सफाया कर मिल पर कब्जा करना था.
इसके लिए उन्हें जापानियों के तीन बंकरों को उड़ाना था.
मगर यह इतना भी आसान नहीं था, क्योंकि इन तीन बंकरों की रखवाली में जमीनी सेना के साथ-साथ टैंक भी तैनात किए गए थे.
इन बंकरों पर कब्जा करने की अपनी कोशिश के तहत लेफ्टिनेंट सरदार ने अपनी पलटन के साथ टैंक और बंकर में मौजूद जापानी सैनिकों पर सीधा हमला शुरू कर दिया.
वह अलग-अलग ग्रुप में बंट गए और लगातार हमला करने लगे.
जंग के इन क्षणों में लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह ने अतुलनीय बहादुरी और साहस का वो नजारा पेश किया, जिसे आज मिसाल के तौर पर याद किया जाता है.
वह एक छोटी सी टुकड़ी के साथ बड़ी तेजी से दुश्मन के बंकर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी बंदूक से चली गोलियों ने इनका सीना छलनी कर दिया.
जापान के हलक से जीत छीन ली
लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह को घायल हालात में सुरक्षा केंद्र ले जाया गया, लेकिन डाॅक्टर उन्हें बचा नहीं सके.
इस तरह से भारत का ये महान सपूत अंग्रेजों के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो गया.
लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह की मौत ने उनकी पलटन में मानो एक ज्वाला भर दी, जो जापानियों से तीनों बंकर काबू करने के बाद ही शांत हुई.
भारतीय सैनिक जीत चुके थे, लेकिन उन्हें सेना के युवा और साहसी कमांडर को खोना पड़ा. यह पंजाब रेजिमेंट के लिए एक दुख भरा दिन था.
मेइकतिला की लड़ाई के लिए लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह का बलिदान ब्रिटिश और भारतीय सेना दोनों के लिए एक बहुत बड़ी कीमत थी. जंग में लेफ्टिनेंट करमजीत द्वारा दिखाए गए सदम्य साहस और शौर्य ने लगभग 20 लाख ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों में जोश की एक नई लहर पैदा कर दी थी.
जिसके लिए लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज को ब्रिटिश सरकार के सर्वोत्तम और सबसे बड़े सैन्य मेडल 'विक्टोरिया क्रॉस' से सम्मानित किया गया.
Web Title: Lieutenant Karamjeet Singh Judge: An Indian Recipient of The Victoria Cross in World War II, Hindi Artilce
Feature Image Credit: Wikiwand/findagrave