15 अगस्त 1947 की सुबह वैसी सुबह नहीं थी जैसी देखने के लिए भगत सिंह, रामप्रसाद बिसमिल, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव ने सपने संजोए थे.
क्या कोई महसूस कर सकता है दर्द की उस तासीर को जिसने गुझियों की थाली और सेवइयों के डोंगों की अदला-बदली रोक दी थी. जिसने पान की ठियों पर होने वाली चर्चा और नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर मिलने वाले दोस्तों की यारियां छीन लीं... जिसने मुसलमानो से उनकी हवेलियां और हिंदुओ से उनके चौबारे छीन लिए...
इस तरह के तमाम शब्द और दलीले पहले भी कई बार लिखी-पढ़ी जा चुकी हैं, पर लाखों लोग जो इसे जी चुके हैं, उनकी आंखे नम हैं. आजादी की असल कीमत चुकाने वाले बंटवारे के पीडित आज भी अंग्रेजों को मांफ नहीं कर पाए हैं.
पर बंटवारे के लिए केवल अंग्रेज जिम्मेदार नहीं थे. आखिरी वारसराय लॉर्ड माउंटबेटन पर भी इस बंटवारे का ठीकरा फोड़ा जाता है. जबकि, माना जाता है कि वह खुद इसके खिलाफ थे.
तो आईए आज एक बार फिर बंटवारे की कहानी के पन्ने पलटते हैं और उसे लॉर्ड माउंटबेटन की नजरों से देखने की कोशिश करते हैं-
माउंटबेटन का भारत आगमन
दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था. कई महाशक्तियां अब कमजोर हो चुकी थी. कमजोरी का यही असर ब्रिटेन पर भी दिखाई दे रहा था. भारत को लूटकर उसने खुद को जितना आर्थिक मजबूत बनाया था वह मजबूती अब जवाब देने लगी थी.
वहीं दूसरी ओर भारत में महात्मा गांधी के अनशन और आंदोलन असर दिखा रहा था.
ब्रिटिश जानते थे कि अब उनके हाथ से भारत की सत्ता निकलने वाली है. वह दिन अब दूर नहीं है, जब उन्हें भारत को 200 साल की गुलामी से आजाद करना होगा. किन्तु, यह सौदा इतना सस्ता कैसे हो सकता था!
तत्कालीन प्रधानमंत्री एटली ने फैसला कर लिया था कि जून 1948 तक अंग्रेज भारत छोड़ देंगे.
इसी फैसले को लागू करने के लिए भारत के आखिरी वारसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजने का फैसला किया गया. पर अंग्रेज केवल भारत की आजादी नहीं दे रहे थे, बल्कि वे भारत-पाक बंटवारे के रूप में एक नासूर देने की तैयारी कर चुके थे.
24 मार्च 1947 को माउंटबेटन भारत पहुंचे. उनके साथ टीम में ब्रिटिश शासन के वरिष्ठ अधिकारी भी थे.
माउंटबेटन, उनकी पत्नी एडविना और 17 साल की बेटी पामेला जब भारत पहुंचे, तब तक ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिकता की खाई खोद दी थी.
जिन्ना अपने पाकिस्तान और नेहरू समग्र हिन्दुस्तान की चाह लिए माउंटबेटन की बाट जोह रहेे थे.
उन्होंने 133 छोटे-बड़े नेताओं से बातचीत की, लेकिन अब माउंटबेटन ने उन लोगों का चयन कर लिया था, जिनके हाथों वह इस देश को छोड़कर जाना चाहते थे. इऩमें महात्मा गांधी, जिन्ना और नेहरू का नाम था.
24 मार्च 1947 को माउंटबेटन ने नेहरू से मुलाकात की. माउंटबेटन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस मुलाकात में नेहरू ने साफ कर दिया था कि वे किसी भी हाल में भारत के हिस्से नहीं होने देना चाहते हैं. चूंकि माउंटबेटन भी दूसरे विश्वयुद्ध में लाखों लाशें और शरणार्थी देख चुके थे, इसलिए उन्हें अंदाजा था कि यदि बंटवारा हुआ तो मंजर खौफनाक होगा.
31 मार्च 1947 को माउंटबेटन ने एडविना के साथ महात्मा गांधी से मुलाकात की.
गांधी न तो नेहरू के पक्ष में बोले और न ही जिन्ना का विरोध किया. वे बस शांतिपूर्वक देश की आजादी चाहते थे. गांधी जी ने अपनी मुलाकात के दौरान यह सुझाव दिया कि अंतरिम सरकार पूर्ण रूप से मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना के हाथों में सौंप दी जाए, जिससे भारत में सांप्रदायिक दंगों को रोका जा सके.
किन्तु, गांधी जी का यह सुझाव कांग्रेस नेताओं और वर्किंग कमेटी को स्वीकार नहीं था.
ठीक तीन दिन बाद उन्होंने जिन्ना से मुलाकात की. इस मुलाकात से साफ हो चुका था कि जिन्ना हर हाल में देश का बंटवारा चाहते हैं. यही कारण था कि माउंटबेटन की नज़रों में जिन्ना की अहमियत गांधी के मुकाबले काफी कम हो गई थी.
फिर तैयार हुआ बंटवारे का खांका
इस मुलाकात के बाद माउंटबेटन वापस लंदन पहुंचे. जहां ब्रिटिश हुकूमत के सामने उन्होंने बंटवारे का खाका खींचना शुरू किया. वे देश के हिन्दुओं, मुस्लिमों की संख्या, जमीन, किसान, आर्थिक पहलुओं पर ध्यान खींचना चाहते थे, लेकिन आला अधिकारियों ने उनसे केवल एक सवाल पूछा?
अंग्रेज भारत कब छोड़ देंगे...
माउंटबेटन ने अपनी रिपोर्ट में बंटवारे की चुनौतियों का जिक्र किया था. वे इस तैयारी से गए थे कि हुकूमत को बंटवारा रोकनेे पर राजी कर लेंगे, लेकिन जब उनसे अचानक अंतिम तारीख के बारे में पूछा गया तो दिमाग सुन्न हो गया.
उन्होंने अभी तक इस तारीख के बारे में सोचा नहीं था पर वे यह जताना नहीं चाहते थे. इसलिए जल्दबाजी में कहा 15 अगस्त 1947. माउंटबेटन के लिए यह तारीख इसलिए भी खास थी क्योंकि इसी दिन जापान ने मित्र देशों के सामने सरेंडर किया था.
जब यह तारीख भारतवासियों को पता चली तो खुशी की लहर दौड़ गई, लेकिन इसके साथ ही देश में एक अलग तरह का माहौल तैयार होने लगा था. 3 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन ने एक वक्तव्य दिया जिसमें भारतीय समस्या का हल सुझाया. उन्होंने कहा कि महामहिम सम्राट की सरकार की कोई इच्छा नहीं कि वह संविधान सभा के कार्य में बाधा डाले.
पंजाब और बंगाल में हिंदू और मुसलमान बहुसंख्यक जिलों के प्रांतीय विधान सभा के सदस्यों की अलग-अलग बैठक बुलाई जाए. इस बैठक में एक मुस्लिम बहुसंख्यक भाग और दूसरा शेष प्रांत के प्रतिनिधियों का हो.
यदि कोई भी प्रांत का साधारण बहुमत बंटवारे के पक्ष में मत देता है तो बंटवारे का प्रबंध किया जाए.
लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा 3 जून 1947 को जो योजना प्रस्तुत की गई उसे कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया. मुस्लिम लीग बहुत प्रसन्न थी, क्योंकि उसे स्वदेश मिल गया था. चाहे वह कटा-छंटा था.
कांग्रेस द्वारा माउंटबेटन योजना को स्वीकार कर लेने के बाद पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के राष्ट्रवादी खुदाई खिदमतगार के नेता अब्दुल गफ्फार खाँ धर्म संकट में पड़ गए. उन्होंने मांग की कि अलग पठानिस्तान या पख्तूनिस्तान की योजना के बारे में भी जनमत लिया जाए, लेकिन माउंटबेटन ने इससे इंकार कर दिया.
फलत: पाकिस्तान या भारतीय संघ में सम्मिलित होने के बारे में जनमत लेने के समय उन्होंने बहिष्कार का नारा दिया. मुस्लिम लीग ने सांप्रदायिकता का प्रचार कर पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला करवाया. इस तरह बलूचिस्तान और सिंध पाकिस्तान में सम्मिलित हो गए.
कोई नहीं समझा माउंटबेटन का दर्द
माउंटबेटन आम ब्रिटिश अधिकारियों से अलग थे.
भारत को बीच मझधार में छोडकर नहीं जाना चाहते थे. माउंटबेटन की बेटी पामेला ने अपनी किताब 'इंडिया रिमेंबर्ड' में लिखा है कि पापा अक्सर किताबों वाले कमरे में अकेले बैठे भारत का नक्शा देखते रहते थे.
वे कभी नहीं चाहते थे कि यह बंटवारा हो, लेकिन जब उन्हें पता लगा कि बंटवारे का जहर उनके ही अधिकारियों ने घोला है, तो वे टूट गए. एडविना और माउंटबेटन ने तय किया कि जब तक भारत में सबकुछ सामान्य नहीं हो जाता. वे यहां से नहीं जाएंगे, फिर चाहे उन्हें इस देश में सम्मान मिले या नहीं.
बहरहाल 18 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम को ब्रिटिश हुकूमत से सहमति मिल गई थी. बंटवारे की रेखा खींचने के लिए लंदन के वकील सर सिरिल रेडक्लिफ को को चुना गया. सिरिल इसके पहले कभी भी भारत नहीं आए थे.
वे यहां की भौगोलिक परिस्थितियों से बिल्कुल अंजान थे.
सिरिल के भारत आने के बाद माउंटबेटन के सामने तस्वीर साफ हो चुकी थी. समझ चुके थे कि ब्रिटिश सरकार ने पहले ही सारी तैयारियां कर रखी हैं. उन्हें केवल मोहरा बनाया जा रहा है.
इस बात का जिक्र करते हुए पामेला ने लिखा है कि 'पापा खुद को हारा हुआ मानने लगे थे. उन्हें लगता था कि जब वे इस देश से जाएंगे तो भारतवासी उन्हें क्रूर नजरों से देखेंगे. बंटवारे में होने वाली तकलीफ का दोषी समझेंगे.'
बहरहाल पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त और भारत का 15 अगस्त निर्धारित किया गया. इसके पहले पहले 1 माह से भी कम समय में दोनों ओर के 1.45 करोड़ लोगों अपना घर छोड़ना था. माउंटबेटन, एडविना और पामेला ने लोगों के बीच सौहाद्र्र बनाएं रखने की तमाम कोशिशें की.
भारत में रहते हुए माउंटबेटन ने पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को अपने घर मे पनाह दी. उनके लिए भोजन, पानी, दवाओं और कपड़ों का इंतजाम किया. पामेला लिखती है कि मैं खुद मां और पापा के साथ शरणार्थी कैम्पों में जाती थी.
पापा अपने हाथ से घायलों के शरीर पर दवा लगाते थे. मां उन औरतों की सेवा कर रही थीं जो दुराचार का शिकार हुईं. मैं बंटवारे में अनाथ हुए बच्चों के साथ थी. हम दिनभर काम करते थे और शाम को मायूस होकर घर लौटते थे.
बहरहाल वह तारीख भी आ गई, जब दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा झंडा फहराया जाना था. अनुमान था कि करीब 30 हजार लोग यहां जमा होंगे पर उस रोज करीब 10 लाख लोगों से दिल्ली की सड़कें जाम थीं.
नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब रेमिनिसेंसेज ऑफ़ नेहरू एज में लिखते हैं कि इतने लोगों के हुजूम के बीच में माउंटबेटन की बग्गी फंस गई थी. माउंटबेटन ने वहीं से चिल्लाते हुए मंच पर खड़े पंडित नेहरू से कहा ,'लेट्स होएस्ट द फ़्लैग.’ इसके बाद तिंरंगा झंडा फ़्लैग पोस्ट के ऊपर गया और माउंटबेटन ने अपनी बग्घी पर ही खड़े खड़े उसे सेल्यूट किया.
उन्हें देखकर लोगों के मुंह से आवाज़ निकली,’माउंटबेटन की जय..... पंडित माउंटबेटन की जय !’
अगले दिन यही स्वर शब्द बनकर अखबारों में प्रकाशित हुए, जिसे पढ़कर माउंटबेटन के बेहद करीबी एलन कैंपबेल जॉन्सन ने उनसे कहा, 'आखिरकार दो सौ सालों के बाद ब्रिटेन ने भारत को जीत ही लिया!'
यह सुनकर माउंटबेटन के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान आई. उनके हाथ में अखबार था, जिसके सिरे पर भारत की आजादी की घोषणा थी और नीचे बंटवारे में मरने वालों का आंकडा. माउंटबेटन की नजरे उन आंकड़ों पर जमी थी और वे खामोश रहे!
Web Title: Lord Mountbatten Did Not Want to Split India, Hindi Article
Feature Image Credit: qz.com