भारतीय सैनिकों का बड़ा ही गौरवशाली इतिहास रहा है. देश के इन वीर जवानों ने न जाने कितनी कुर्बानियां दी हैं. आज भी हमारे नौजवान दुश्मनों के सामने सीना ताने नज़र आते हैं.
उन्हीं बहादुर सैनिकों में एक नाम मेजर शैतान सिंह का है.
जिन्होंने 1962 के चीन युद्ध में सेना की एक छोटी टुकड़ी का नेतृत्व किया था. इन्होंने इस युद्ध में अपने सैनिकों का बखूबी प्रोत्साहन किया. इस युद्ध में बड़ी बहादुरी के साथ दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गए.
इनकी मौत के बाद इन्हें भारत सरकार ने परमवीर चक्र से सम्मानित भी किया था. बता दें, इनका पार्थिव शरीर लगभग 3 माह बाद मिला था.
मगर, क्या आप जानते हैं कि इनके कुशल नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने दुश्मनों की लाशों के अम्बार लगा दिए थे. एक सैनिक अकेला 10-10 सैनिकों के बराबर था. ऐसे में हिंदुस्तान के इस जांबाज़ सिपाही के बारे में जानना दिलचस्प होगा.
तो चलिए जानते हैं, इनकी टुकड़ी की वीरता और इनके कुशल नेतृत्व के बारे में...
बचपन से सेना में होना चाहते थे भर्ती
मेजर शैतान सिंह का जन्म 1 दिसंबर 1924 को राजस्थान के जोधपुर जिले में हुआ थ. इनके पिता लेफ्टिनेंट कर्नल हेम सिंह भाटी एक सैन्य अधिकारी थे.
पिता की तरह बेटे ने भी देश के लिए कुछ कर दिखाने का सपना देखना शुरू किया. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भारतीय सैनिक बनने का सपना पूरा हुआ. 1 अगस्त 1949 को जोधपुर राज्य बल का हिस्सा बने.
आगे, जब जोधपुर रियासत का भारत में विलय हुआ तो इन्हें कुमाऊँ रेजिमेंट में स्थानांतरित कर दिया गया. इसके बाद इन्होंने ‘नागा हिल्स ऑपरेशन’ में अपनी सूझबूझ का परिचय दिया.
1961 में जब गोवा का भारत में विलय हुआ तो उस समय भी शैतान सिंह ने बखूबी ज़िम्मेदारी निभाई थी. 1962 में इनकी कुशलता को देखते हुए उनके पद में इजाफा कर दिया गया. तब इन्हें मेजर का पद मिला.
आगे, 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध शुरू हो गया. ऐसे में, मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में कुमाऊँ रेजिमेंट की एक छोटी सी टुकड़ी को लद्दाख के चुशुल सेक्टर पर तैनात कर दिया गया. सीमा रेखा से 15 मील की दूरी पर चुशुल सेक्टर सीमा विवाद में महत्वपूर्ण स्थानों में से एक था.
चीन के साथ युद्ध में 120 सैनिकों का किया नेतृत्व
इस युद्ध में मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी को अपनी बहादुरी दिखाने का मौक़ा मिला. ‘13 वें कुमाऊँ बटालियन रेजिमेंट की सी कंपनी’ को चुशुल घाटी के दक्षिण-पूर्ण के ‘रेजांग ला’ के एक स्थान पर रोका गया. यह 5000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित था.
18 नवंबर की कप-कपाती ठंड में 120 सैनिकों की कमान मेजर शैतान सिंह को दे दी गई. पहले कभी भी उन सैनिकों का ऐसी ठंडी जगह से पाला नहीं पड़ा था. फिर भी वह इस ठंड भरी रात में देश की खातिर दुश्मनों से लड़ने के लिए तैयार थे.
वहीं दुश्मन सैनिक इस जगह पर लड़ने के अभ्यस्त थे.
परन्तु, मेजर शैतान सिंह के जाबांज सिपाहियों का दुश्मनों के प्रति जोश की ज्वाला उस कप-कापती ठंड के सामने बेअसर थी. उनके फौलादी जोश के सामने दुनिया की कोई भी सैन्य दल चकनाचूर हो जाती.
दुश्मनों की अपेक्षा कम सैनिक और हथियार, मगर...
आगे, जब भारतीय सैनिकों को सूचना मिली कि दुश्मन 18 नवम्बर को बड़े सैन्य दलों के साथ हमला करने की फिराक में है. ऐसी परिस्थिति में मेजर ने अपने सीनियर से और सैनिकों की मदद मांगी. कारणवश, सीनियर भी उनकी मदद करने में असमर्थ थे.
ऐसे में, उन्होंने मेजर को अपने सैनिकों के साथ पीछे हटने का ऑर्डर दिया. पीछे हटने का मतलब था, दुश्मनों को पीठ दिखाना. जो मेजर और उनके सैनिकों को न मंज़ूर था.
जहां एक तरफ 2000 से भी अधिक चीनी सैनिकों के पास आधुनिक शस्त्रों का जखीरा और गोला बारूद अधिक मात्रा में मौजूद था. वहीं दूसरी तरफ मेजर शैतान सिंह के पास 120 जांबाज सिपाहियों के साथ कुछ हथियार व गोलाबारूद थे. वो भी वो हथियार जिसे विश्व युद्ध के दौरान बेकार करार दिया गया था.
बहरहाल, अचानक से दुश्मनों ने हमला करना शुरू कर दिया. ऐसे में भारतीय नौजवानों भी दूसरी तरफ से फायरिंग करने लगे. दोनों तरफ से हमला किया जा रहा था.
भारतीय सैनिकों ने अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए दुश्मन सैनिकों की लाशें बिछा दी थी. तभी चीनी सैनिकों ने मोर्टार तथा राकेटों की मदद से भारतीय बंकरो पर हमला करना शुरू कर दिया. ऐसे में भारतीय बंकरों का बचना मुश्किल लग रहा था. अब भारतीय सैनिक पूरी तरह घिर चुके थे. अब उनके पास पीछे हटने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था.
लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी मेजर के प्रोत्साहन ने सैनिकों को जोश से भर दिया. लगातार दुश्मनों पर हमले किए जा रहे थे. दुश्मन सैनिकों के साथ ही कुछ भारतीय सैनिक भी शहीद हो चुके थे. बचे हुए सैनिक इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे कि आज उनकी शहादत का दिन है, मगर उनमें रत्ती बराबर भी डर नहीं था.
अंतिम सांसों तक मेजर ने लिया दुश्मनों से जमकर लोहा
मेजर भी बड़ी बहादुरी के साथ दुश्मनों को मौत के घाट उतार रहे थे. इसी के साथ ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर लगातार अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ा ही रहे थे. तभी अचानक एक गोली मेजर शैतान सिंह को आकर लग जाती है.
जिससे वो धराशायी हो जाते है, मगर उनके जोश में कोई कमी नहीं दिखती. उनको कुछ सैनिक सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहते थे. उन्होंने इससे इंकार कर दिया और उन्हें दुश्मनों से लड़ने का हुक्म दे दिया था. कहा जाता है कि उन्होंने अपने मशीन गन को रस्सी की मदद से पैरों में बंधवा लिया था.
हाथों पर जख्मों की वजह से अपने पैरों की मदद से मशीनगन चलाते और दुश्मनों पर हमले किये जा रहे थे. वे अपने अंतिम सांसों तक दुश्मनों से लड़ते रहे और 18 नवंबर 1962 को देश की हिफाज़त करते हुए मौत को गले लगा लिया.
एक भारतीय सैनिक अकेले 10 पर पड़े थे भारी
अगली कड़ी में, सुबह पता चला कि भारतीय वीर सपूतों ने दुश्मनों की लाशें बिछा दी थीं . जबकि 120 भारतीय सैनिकों में से 114 सैनिक अपनी जन्म भूमि के लिए मौत की आगोश में चले गए थे. वहीं 6 सैनिकों को बंदी बना लिया गया था.
खैर, उस स्थान पर ठंड बहुत थी. इस वजह से सैनिकों की लाशों को उस वक़्त ढूंढ पाना मुश्किल था. युद्ध के तीन माह बाद जब उस क्षेत्र की बर्फ गली तो शहीद मेजर शैतान सिंह और उनके कुछ बचे साथियों की शव को बरामद किया गया.
दिलचस्प यह था कि जब शहीद मेजर की लाश को बरामद किया गया, तब भी उनके पैरों में मशीनगन बंधी हुई थी.
हालांकि, इस युद्ध में चीन की जीत हुई थी, मगर उसको ज्यादा जान माल का नुकसान हुआ था. कहते हैं कि इस युद्ध में लगभग 1300 से अधिक चीनी सैनिकों को हमारे देश के वीर सपूतों ने मौत के घाट उतार दिया था.
इससे पता चलता है कि किस तरह से भारतीय सैनिकों ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया. एक सैनिक अकेला 10 चीनी सैनिकों के बराबर था.
मेजर शैतान सिंह की मौत के बाद भारत सरकार ने उनके कुशल नेतृत्व के लिए उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा था.
इस तरह भारतीय सेनाओं के एक बहादुर वीर मेजर शैतान सिंह भाटी अपने सैन्य टुकड़ियों के साथ चीनी सैनिकों को छक्के छुड़ा दिए थे. इन्होंने भारतीय सैनिकों की शौर्य गाथाओं में एक और किस्सा जोड़ा दिया.
इसके लिए इनको हमेशा याद किया जाता रहेगा.
Web Title: Paramveer Chakr Major Shaitan Singh, Hindi Article
Feature Image Credit: honourpoint