एक ऐसा गुलाम, जो अपनी राजनीतिक बुद्धिमत्ता से शक्तिशाली वजीर बना. उन्हें भारतीय इतिहास में राजपूतों का साथी और मुग़ल सेना का सबसे बड़ा विरोधी माना जाता है. वे अपनी कूटनीति से मरते दम तक शक्तिशाली सेना के मालिक मुगलों के खिलाफ विद्रोह करते रहे.
जिन्हें भारत के इतिहास में मलिक अम्बर के नाम जाना जाता है.
मलिक अम्बर को दक्कन क्षेत्र के निजामशाही दरबार का किंगमेकर कहा जाता था. उन्होंने बड़ी बहादुरी व निडरता से अकबर के साथ जहाँगीर की भी सेना को कई बार शिकस्त दिया था.
अम्बर ने अपनी कुशल नीति से सेना में कई देशों के गुलाम व हजारों राजपूत सैनिकों को भी इकठ्ठा करने में कामयाब रहे. ऐसे में हमारे लिए पुर्तगाली, डच, व ब्रिटिशों, के तोपखाने और नौसेना का भी समर्थन प्राप्त करने वाले इस शख्स से जुड़े कुछ रोचक बातों के बारे में जानना दिलचस्प रहेगा.
तो आइये आपका तार्रुफ़ कराते हैं, मलिक अम्बर की जिंदगी से…
बचपन की जिंदगी गुलामों की तरह गुजरी
मलिक अम्बर का जन्म 1549 में दक्षिणी इथियोपिया के हरार प्रांत में हुआ. इनका ताल्लुक एक गरीब हब्शी परिवार से था. इनके बचपन का नाम चापू था.
कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने आर्थिक तंगी की वजह से अम्बर को एक दास के रूप में बेच दिया था. वहीं कुछ मानते हैं कि अरबों या इथियोपियाई द्वारा इनको अपहरण करके कैदियों के साथ रखा गया. वहां से इन्हें बाज़ार में बेच दिया गया था.
बहरहाल वजह जो भी रही हो, मगर अम्बर का बचपन एक दास के रूप में गुजरा था. गुलाम के तौर पर इनको हरार से पहले यमन लाया गया. यहां से उन्हें बगदाद के काजी हुसैन के पास भेज दिया गया. हुसैन ने इस गुलाम बच्चे की क़ाबलियत को अच्छी तरह परखा.
उन्होंने अम्बर को वित्त और प्रशासन में शिक्षित किया. हुसैन ने बाद में इनसे खुश होकर इनका नाम अम्बर रखा. अब एक हब्शी गुलाम बच्चे को अम्बर के नाम से पुकारा जाने लगा था, जो उसकी अकलमंदी की वजह से ही मुमकिन हो पाया था.
आगे जब हुसैन की मौत हुई. तब इनको एक गुलाम व्यापारी को बेच दिया गया, जिसने इन्हें अहमदनगर के राजा चेंगिज खान के सुपुर्द भारत भेज दिया था.
जब गुलाम से बने वजीर
यह 16वीं शताब्दी का वही दौर था, जब भारत के दक्कन क्षेत्र में काफी बहु-सांस्कृतिक और विविधताएं थी. उस ज़माने में हब्शी गुलामों को एक वफादार सैन्य दासों के रूप में देखा जाता था. वे बहुत लोकप्रिय होते थे. चेंगिज खान भी अनेक गुलामों को ख़रीद रखा था. उसने उन गुलामों में अम्बर के अंदर एक बुद्धिमान व्यक्ति को देखा.
चिंगिज के तहत अम्बर ने शासन, सैन्य और प्रशासनिक मामलों में निपुणता हासिल की. यहां उनकी पिछली शिक्षा के साथ अरबी और शासन नीति अत्यधिक मूल्यवान हो गई. खान ने बाद में इन्हें हब्शी गुलामों पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के लिए प्रशासनिक मामलों में ऊँचा मुकाम अता किया.
मालिक अम्बर अपनी कुशलता से जल्द ही अहमदनगर के साथ दूसरे प्रांतों में पहचाने जाने लगे थे. आगे जब चिंगिज खान की मृत्यु हुई. तो उनकी विधवा ने इनको आज़ाद कर दिया. उन्होंने इनको अपना वंशज बढ़ाने की सलाह दी. आज़ाद होने के बाद अम्बर ने विवाह भी किया.
मलिक अम्बर को राजनीतिक कूटनीति में महारत हासिल थी. वो अहमदनगर रियासत में वजीर के पद तक पहुँच गए थे. उन्होंने अपने पद पर रहते हुए जनता के लिए कई बेहतर कार्य भी किए. उन्होंने किसानों को जमीन देने की व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया था.
मराठों के साथ यूरोपियों की भी मदद से बनाई मजबूत फ़ौज
मुगलों ने जब अहमदनगर पर हमला किया. तब मलिक अम्बर अपनी किस्मत आजमाने बीजापुर चले गए. जब वहां बात नहीं बनी तो वापस अहमदनगर आ गए. यहां वो हब्शी अबिसिनियाई दल का हिस्सा बने, जो चाँद बीबी का विरोधी था.
अहमदनगर की रियासत का लगभग पतन हो चुका था. ऐसे में मलिक अम्बर ने निजामशाही के एक शहजादे को ढूंढ निकाला. उन्होंने बीजापुर के शासक की मदद से उसे ‘निजामशाह द्वितीय’ के नाम से अहमदनगर की गद्दी पर बैठा दिया. वे खुद उसका पेशवा बन गये, जो वहां की रियासत में इसका पहले से ही चलन था.
आगे अम्बर ने रियासत को मजबूत करने की ठानी. उन्होंने सैन्य व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई ठोस कदम उठाये. अम्बर ने अपनी कुशल राजनीतिक सोच से अपने आस-पास के मराठा सैनिकों की एक बड़ी फ़ौज तैयार कर ली. उन्हें मुगलों से लड़ने के लिए गुरिल्ला युद्धकला में भी अभ्यास कराया.
इतिहासकारों की मानें तो एक वक़्त ऐसा आया जब उनकी बड़ी सेना में 40 हजार के करीब मराठा सैनिक व लगभग 10 हजार हब्शी भी शामिल थे.
इसके अलावा वे पुर्तगाली, डच व ब्रिटिशों के साथ पश्चिमी तट के जंजीर द्वीप पर नाविकों के साथ गठजोड़ गठबंधन करने में भी कामयाब रहे . उनसे इन्हें मुगलों के खिलाफ युद्ध करने के लिए तोपों जैसे हथियारों का भी समर्थन मिल गया था.
मुगलों के अच्छे-अच्छे सूरमाओं को झुकने पर किया मजबूर
अपने मजबूत सैन्य समर्थन व राजपूतों के अद्भुत साहस के साथ मलिक ने दक्कन में मुगलों की स्थिति को कमज़ोर कर दिया था. यह वही दौर था जब बादशाह अकबर ने दक्कन क्षेत्र की जिम्मेदारी अनुभवी व शक्तिशाली सेनापति अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना को सौंपी थी.
आगे अब्दुर्रहीम ने अम्बर से संधि कर ली . उसने उनका दोस्त बनने के लिए कोशिशें भी कीं, मगर अम्बर को ये नगवार था. तभी बीजापुर के शासक आदिलशाह ने अम्बर को तेलंगाना का मजबूत कंधार किला सौंप दिया. उसने इन्हें लगभग 10 हज़ार घुड़सवार सैनिकों की मदद भी भेजी.
बीजापुर के समर्थन और मराठा सैनिकों की मदद से अम्बर ने अब्दुर्रहीम को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. अम्बर की कूटनीति व साहस से दक्कन में अकबर द्वारा जीते गए सभी विरासत उनके हाथ से निकल चुके थे .
आगे जहाँगीर ने एक बड़ी सेना के साथ आसफ खां के नेतृत्व में दक्कन भेजा, मगर अम्बर के आगे उसकी एक न चली. उसे भी हार का मुंह देखना पड़ा. इस तरह अम्बर ने अहमदनगर विरासत को दोबारा हासिल कर लिया.
मलिक अम्बर की शक्ति समय दर समय मजबूत होती जा रही थी. 1610 में मुगलों की स्थिति इतनी बदत्तर हो गई कि आसफ खां ने जहाँगीर को खुद दक्कन आने की सलाह दे डाली.
परन्तु, अन्य सलाहकारों ने इसे सही नहीं ठहराया नहीं तो जहाँगीर खुद दक्कन आने पर विचार कर रहा था. जहाँगीर ने इस बड़ी समस्या को ख़त्म करने का जिम्मा खानेजहां को दिया. ये खान-ए-खाना के बेटे थे.
खानेजहां ने मालिक अम्बर पर अचानक आक्रमण कर दिया, मगर अम्बर पहले से ही सतर्क था. इस लड़ाई में भी अम्बर की सेना ने मुग़ल सिपाहियों के छक्के छुड़ा दिए. तब मजबूरन मुगलों को एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी थी.
मौत के बाद 'अहमदनगर' मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बना
मुगलों के साथ मलिक अम्बर के विद्रोह को एक लम्बा दौर गुजर चुका था. उस दौरान अकबर व जहाँगीर की हर कोशिशें लगभग विफल हो चुकी थीं. समय गुजरता गया. मलिक अम्बर अपनी कूटनीति से आस-पास की रियासतों के साथ अच्छे रिश्ते बनाये रखने में सफल रहे. उन्होंने मुगल सेना के बड़े-बड़े सूरमाओं को कड़ी चुनौती दी थी.
मगर एक समय ऐसा भी आया था जब अम्बर अपने कई समर्थकों का विश्वास खो चुके थे. तब अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने इसका भरपूर फायदा उठाया. उन्होंने इनके सहयोगियों को अपने साथ कर लिया था.
आगे शहजादे खुर्रम (शाहजहां) के नेतृत्व में एक विशाल सेना दक्कन भेजी गई. ऐसे में मलिक अम्बर खतरे को भांप चुके थे. उनके पास आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था. तब मजबूरन अम्बर को संधि करनी पड़ी.
आगे जहाँगीर ने बीजापुर के शासक को बेटा संबोधित करते हुए एक पत्र भेजा. ऐसे में उसने मलिक अम्बर के खिलाफ अपना समर्थन वापस ले लिया. तब मलिक ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे किले के अंदर शरण लेने पर मजबूर कर दिया था. यह वह समय था जब अम्बर की राजनीतिक शक्तियों का प्रभाव कम हो चुका था.
परन्तु, 1622 में जब शाहजहाँ ने अपने पिता जहांगीर के खिलाफ बगावत कर दी. तब मलिक अम्बर ने मौके का फायदा उठाते हुए अपने कई क्षेत्रों पर दोबारा कब्ज़ा करने में सफल रहा.
इस तरह लगातार मलिक अम्बर का मुगलों के बीच नोकझोक होती रही. उन्होंने लगभग 80 साल की दीर्घ आयु में इस दुनिया को अलविदा कहा और सुपर्द-ए-खाक हो गए.
1626 में शक्तिशाली शासक मलिक अम्बर की मृत्यु के बाद ही मुग़ल सेना अहमदनगर को मुग़ल साम्राज्य में मिला सकी थी.
तो ये थी एक गुलाम से शासक बने मलिक अम्बर से जुड़े कुछ दिलचस्प किस्सों के बारे में, आपको इनकी जिंदगी से रूबरू होकर कैसा लगा. उसे हमारे साथ कमेन्ट बॉक्स में ज़रूर शेयर करें.
Web Title: Malik Amber, A Many Time Defeated Mugal Emperor, Hindi Article
Feature Image Credit: Sarmaya