साल 1913 के नवंबर की घटना है. कड़ाके की सर्दी के बावजूद गुजरात और राजस्थान की सीमा पर बांसवाड़ा और सत्यरामपुर के बीच स्थित मानगढ़ में भारी संख्या में भील पहुंचे थे.
वे कार्तिक महीने में होनेवाले एक धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए जमा हुए थे.
कार्यक्रम की तैयारी को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तभी अंधाधुंध फायरिंग शुरू हो जाती है. फायरिंग में 1000 से अधिक भीलों की मौत हो जाती है. इस जनसंहार को राजस्थान का जलियांवाला बाग भी कहा जाता है.
आइए हम जानते हैं कि क्या था मानगढ़ जनसंहार और क्यों भीलों की बर्बर हत्या की गई थी?
भील समुदाय और छपनिया अकाल
भारत में भीलों का अस्तित्व आर्य से पहले से रहा है. भील आदिवासी समुदाय है जिसे मूल निवासी भी कहा जाता है. मूल निवासी यानी जो किसी क्षेत्र का असली नागरिक हो.
भील समुदाय प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर रहता आया है. भीलों का जिक्र रामायण में भी मिलता है.
कहा जाता है कि वन में राम को बेर खिलाने वाली शबरी भील समुदाय से ही आती थी.
बहरहाल, ये भील अंग्रेजों के आने से पहले जिस तरह रह रहे थे, उसी तरह अंग्रेजों की हुकूमत आ जाने के बाद भी रहना चाहते थे, बशर्ते उन्हें उनकी आजादी के साथ रहने दिया जाए.
लेकिन, ऐसा हो न सका। भोले-भाले भील अंग्रेजों का आसान शिकार हुए. उस वक्त के जमींदारों और राजाओं ने भी अंग्रेजों वाली ही नीति अपनाई और उन्हें बंधुआ मजदूर की तरह खटाने लगे.
इस शोषण का भी भील समुदाय की तरफ से किसी तरह का विद्रोह नहीं हो रहा था.
लेकिन, 20वीं सदी की दहलीज पर खड़े गुलाम भारत में आए अकाल ने सबकुछ बदल कर रख दिया था.
इस अकाल की नींव पड़ी थी 1896 में. उस साल राजस्थान, गुजरात आदि राज्यों में मॉनसून की बारिश बहुत कम हुई थी. हालांकि, बाद के दो वर्षों 1897 और 1898 में ठीकठाक बारिश दर्ज की गई थी.
इसके बाद बात आती है 1899 की. उस साल मॉनसून की बारिश में 60 से 65 फीसदी की गिरावट आ गई थी.
भारत की खेती मूलतः मॉनसून की खेती पर निर्भर है, लिहाजा बारिश में कमी ने खेती की कमर तोड़ दी.
कहते हैं कि जिस साल अकाल पड़ा था, वह विक्रम संवत के अनुसार 1956 का साल था, इसलिए इस अकाल को ‘छपनिया अकाल’ भी कहा जाता है.
अकाल ने 3 लाख वर्ग मील में रहनेवाली आबादी पर बुरी तरह असर डाला था, जिसमें भीलों की आबादी वाले हिस्से भी शामिल थे. इन क्षेत्रों में राजाओं का शासन था, जो अकाल से प्रभावित भीलों की मदद करने में नाकामयाब रहे.
अलबत्ता, जहां अंग्रेजों का राज था, वहां प्रभावितों के लिए राहत शिविर बनाए गए. यह दीगर बात है कि केवल 25 प्रतिशत आबादी को ही इन कैंपों में राहत मिली.
अकाल की विभीषिका झेलनेवाले भील समुदायों के लिए वह घटना एक बड़े बदलाव का बायस बनी.
गोविंद गुरु और भगत आंदोलन
गोविंद गुरु का जन्म छपनिया अकाल से 41 साल पहले 20 दिसंबर 1858 में डूंगरपुर जिले में हुआ था.
वह भी बंधुआ मजदूर थे, लेकिन दूसरे भीलों से वह अलग थे, क्योंकि उनकी अच्छी शिक्षा हुई थी और समाज को लेकर वह चिंतित रहा करते थे.
अकाल ने जान-माल को जो नुकसान पहुंचाया, सो तो पहुंचाया ही, लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान भील समाज के नैतिक पतन की शक्ल में हुआ था.
दरअसल, अकाल के चलते भीषण अभाव झेल रहे भील समुदाय में चोरी-चकारी, शराबखोरी से लेकर तमाम तरह की बुराइयां बढ़ने लगी थीं. ठीक उसी वक्त गोविंद गुरू ने महसूस किया कि इस समुदाय के लिए एक बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत है. उन्होंने भीलों के बीच जागरूकता अभियान शुरू किया.
देखते ही उनके पीछे लाखों भील चल पड़े. इस तरह एक बड़े समाजिक आंदोलन की जमीन तैयार हो गई.
1908 में इस आंदोलन ने मुकम्मल शक्ल ले ली थी, जिसे भगत आंदोलन नाम से भी जाना जाता है. व्यभिचार में डूबे भीलों को उन्होंने धार्मिक कार्यों की तरफ मोड़ दिया. भीलों में जागरूकता भी बढ़ने लगी, जिससे वे अपने लिए बेहतर जीवन तलाशने लगे.
आंदोलन का असर ये हुआ कि भीलों को यह महसूस होने लगा कि वे बंधुआ मजदूर हैं. उन्होंने बंधुआ मजदूरी की खिलाफत शुरू कर दी. राजाओं व अंग्रेजों के यहां मजदूरी करनेवाले भील अधिक मजदूरी की मांग करने लगे.
ये सब अंग्रेज और राजाओं की आंखों में खटकने लगा. उन्हें लगा कि भीलों को अंग्रेजों व राजाओं के खिलाफ लामबंद किया जा रहा है. वे भीलों पर बड़ी कार्रवाई करना चाह रहे थे, लेकिन सही मौका नहीं मिल रहा था.
...फिर एक दिन वो मौका आ गया.
मानगढ़ पहाड़ी पर भीलों का जुटान
गोविंद गुरु के प्रयासों से भीलों में जागरूकता आई, तो वे न केवल अपने हक-ओ-हुकूक के लिए आवाज बुलंद करने लगे, बल्कि धार्मिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे थे.
इसी बीच 1913 में कार्तिक महीने में एक धार्मिक अनुष्ठान में हिस्सा लेने के लिए मानगढ़ पहाड़ी पर जुटान की योजना बनी.
गोविंद गुरु अपने अनुयायियों के साथ अक्टूबर में ही वहां पहुंच गए और भीलों को संदेश पहुंचवा दिया कि 13 नवंबर को वे पहाड़ी पर आ जाएं. पहाड़ी पर एक विशाल हवनकुंड तैयार किया गया था, जिसमें हवन करना था.
तयशुदा तारीख को यानी 13 नवंबर 1913 को भारी संख्या में भील समुदाय के लोग पहाड़ी पर पहुंच गए.
यह बात राजाओं तक पहुंच गई, तो उन्हें लगा कि शायद भील उन पर चढ़ाई के मंसूबे से वहां जुटे हैं. ऐसा मानने के पीछे एक वजह यह भी रही होगी कि वे भीलों को पहले से ही शक की निगाह से देख रहे थे, नतीजतन उनके इस संदेह को बल मिला.
उन्होंने तुरंत अंग्रेजों को इत्तिला कर दी और मदद की गुहार लगाई.
ब्रिटिश फौज और राजाओं की सेना हथियारों से लैस होकर पहाड़ी तक पहुंच गई और पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया.
हमला शुरू करने से पहले 15 नवंबर को सेना की तरफ से भीलों को यह संदेश भेजा गया कि वे तितर-बितर हो जाएं, लेकिन एकजुटता दिखाते हुए भीलों ने इससे इनकार कर दिया.
भीलों के इनकार ने अंग्रेजों व राजाओं को वह मौका दे दिया जिसका वे इंतजार कर रहे थे. यानी कि वे ऐसा अवसर तलाश रहे थे जिसकी आड़ लेकर भीलों पर हमला कर उन्हें सबक सिखा सकें.
17 नवंबर की तारीख थी. सेना ने भीलों पर गोला-बम बरसाना शुरू कर दिया. निहत्थे भीलों के लिए इस हमले का मुकाबला करना नामुमकिन था, लिहाजा उन्हें वहां से भागना पड़ा.
इस हमले में 1000 से 1500 भीलों की जान चली गई थी. इनमें बुजुर्ग भीलों से लेकर महिलाएं व बच्चे भी शामिल थे.
कहते हैं कि एक अंग्रेज अफसर ने घटनास्थल पर बच्चों को मां के मुर्दा शरीर से लिपटकर रोता देख कर फायरिंग रोक देने का हुक्म सुनाया. मौके से गोविंद गुरू को गिरफ्तार कर लिया गया.
उन पर मुकदमा चला. 11 फरवरी 1914 को उन्हें दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन भीलों में उनकी लोकप्रियता और सदाशयता के कारण उन्हें रिहा कर देना पड़ा. लेकिन, कई शर्तों के साथ.
इन शर्तों के कारण उनकी गतिविधियां करीब-करीब रुक गईं और वह अपने घर में कैद हो गए.
सन 1931 में उनका निधन हो गया. मानगढ़ जनसंहार में जो लोग बच गए थे, उनमें इतना खौफ समा गया था कि देश की आजादी के बाद भी कई दशकों तक वे मानगढ़ पहाड़ी पर जाने से डरते थे.
यह जनसंहार, जलियांवाला बाग से भी बड़ा था, लेकिन इतिहास में उसे नहीं के बराबर जगह मिली है और मिली भी है, तो हाशिए पर.
Web Title: Mangarh Massacre When Hundreds Of Bhils Were Murdred, Hindi Article
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