सन् 1947 में बकरीद के मौके पर मखमली टोपी व शेरवानी पहने एक 70 साल का जहीन शख्स जामा मस्जिद से धारदार आवाज में मुसलमानों को तकरीर करता है –
‘अजीजो, अपने भीतर बुनियादी बदलाव लाओ. जैसे कुछ अरसे पहले तुम्हारे जोशोखरोश बेजा थे, वैसे ही आज ये तुम्हारा खौफ बिलावजह है. मुसलमान और बुजदिली या मुसलमान और इश्तआल (भड़कावा) एक जगह नहीं हो सकते. असली मुसलमानों को कोई भी शक्ति न तो हिला सकती है और न ही कोई खौफ उन्हें डरा सकता है.
तकरीर करने वाला कोई और नहीं मौलाना अबुल कलाम आजाद थे.
वह आधुनिक भी थे और सच्चे मुसलमान भी थे. हिन्दू-मुस्मिल एकता के हिमायती भी थे और भारत के बंटवारे के मुखालिफ भी.
आज जब हिन्दू-मुसलमान पर बहसें तेज हैं, तो उन्हें याद करना समीचीन होगा-
मक्का में जन्म, कोलकाता में परवरिश
यह तब की बात है, जब बाबर ने भारत में हुकूमत कायम कर ली थी. उसी दौर में सिल्क रूट पर पड़ने वाले शहर हेरात (अफगानिस्तान) से एक मुस्लिम परिवार भारत आता है और कलकत्ते को अपना ठिकाना बना लेता है.
इसी परिवार में जन्म लेते हैं खैरूद्दीन, जो बाद में मौलाना खैरूद्दीन हो जाते हैं.
खैरूद्दीन सूफी पीर थे और कादरी व नक्शबंदी ऑर्डर से ताल्लुक रखते थे. उनका निकाह अरब मूल के शेख मोहम्मद जेहर वातरी की बेटी से हुआ.
मौलाना खैरूद्दीन के निकाह होने तब हिन्दुस्तान की तस्वीर काफी बदल चुकी थी. मुगल काल बीत चुका था और देश में फिरंगियों की बर्बर हुकूमत हर रोज नए सोपान चढ़ रही थी.
ठीक उसी वक्त यानी सन् 1857 में सैनिक विद्रोह शुरू हुआ और करीब-करीब फेल हो गया.
सन् 1857 के आसपास ही खैरूद्दीन अपनी बेगम के साथ मक्का की ओर कूच कर गए. मक्का में उनका तीन दशक बीत गया, लेकिन हिन्दुस्तान उन्हें अपनी ओर खींचता रहा.
11 नवंबर 1888 को मक्का में ही उन्हें एक बेटा हुआ, जिसका नाम रखा गया अबुल कलाम गुलाम मोइउद्दीन. अबुल कलाम की पैदाइश के महज दो साल बाद ही यानी सन् 1890 में खैरूद्दीन अपनी बीवी व बच्चे के साथ कलकत्ता लौट आए.
चूंकि खैरूद्दीन के पूर्वज मौलाना थे और खुद खैरुद्दीन भी, तो शुरू में अबुल कलाम ने भी पारंपरिक इस्लामिक तालीम ली. अपने वालिद और दूसरे उस्तादों से इस्लामिक तालीम हासिल करने के साथ ही मदरसे भी गए.
उन दिनों मुसलमानों में सर सैयद अहमद खान की तालीम से संबंधित फिलॉसफी सर चढ़कर बोलती थी. अबुल कलाम भी उनसे बेहद प्रभावित थे, जिस कारण वह पिता को बिना बताए चोरी-छिपे अंग्रेजी भी सीखने लगे.
Maulana Abul Kalam Azad (Pic: Cultural India)
22 साल की उम्र में निकाला अर्दू अखबार
इस्लामिक तालीम के साथ-साथ उन्होंने अंग्रेजी व दूसरे विषय भी पढ़ना जारी रखा.
पढ़ते-पढ़ते उनके जेहन में एक साप्ताहिक उर्दू अखबार निकालने का ख्याल कौंध गया. उस वक्त उनकी उम्र महज 22 साल थी.
तब तक वह अबुल कलाम गुलाम मोइउद्दीन से मौलाना अबुल कलाम आजाद हो चुके थे.
वह समृद्ध परिवार से आते थे, तो पैसे की कोई कमी थी नहीं. सो सन् 1912 में कलकत्ते से ही ‘अल हिलाल’ नाम से एक उर्दू अखबार निकालने लगे. अखबार का पहला संस्करण 13 जुलाई को छपा. अखबार निकालने के ख्याल के पीछे निश्चित तौर पर हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की बर्बरता की खिलाफत रही होगी, क्योंकि अखबार का तेवर शुरू से अंग्रेजों को लेकर बेहद तल्ख था.
‘अल हिलाल’ के जरिए अबुल कलाम मुल्क के मुसलमान नौजवानों से आजादी की लड़ाई में गाड़ा बनने की गुजारिश किया करते. ‘अल हिलाल’ में उन्होंने एक नया स्तंभ ‘मुजाकिरा-ए-अलमिया’ जोड़ा. इस स्तंभ के जरिए मुसलमानों को साइंस की जानकारी दी जाती.
बेहद कम समय में ‘अल हिलाल’ मुस्लिम आबादी में खासा लोकप्रिय हो गया. ‘अल हिलाल’ के प्रकाशन के दो साल ही बीते थे कि अंग्रेजी हुकूमत ने सन् 1914 में प्रेस एक्ट के तहत इसे बंद करा दिया.
अबुल कलाम भी कहां हार माननेवाले थे!
उन्होंने ‘अल-बलाग’ नाम से एक और अखबार शुरू कर दिया.
‘अल-बलाग’ का तेवर भी ‘अल हिलाल’ जैसा ही था, लिहाजा अंग्रेजों ने डिफेंस ऑफ इंडिया रेगुलेशंस एक्ट के तहत इस अखबार पर भी प्रतिबंध लगा दिया. मौलाना आजाद गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें रांची की जेल में भेज दिया गया.
1 जनवरी 1920 को वह जेल से रिहा हुए और कलकत्ता लौट आए.
Urdu Newspapers (Representative Pic: TwoCircles.net)
कांग्रेस और महात्मा गांधी से जुड़ाव
अबुल कलाम आजाद के जन्म से 3 साल पहले यानी सन् 1885 में एलेन ओक्टावियन, दादाभाई नौरोजी और डी वाचा ने मिलकर कांग्रेस पार्टी की नींव रखी थी.
पार्टी के पहले अध्यक्ष बने थे उमेश चंद्र बनर्जी.
कांग्रेस के गठन का मुख्य उद्देश्य था शिक्षित भारतीय को ब्रिटिश सरकार में हिस्सेदारी दिलाना ताकि ऐसी नीतियां बनाई जा सकें, जो भारत की आवाम के अनुकूल हो.
मगर, रास्ता इतना आसान नहीं था. कांग्रेस की ज्यादातर मांगें ब्रिटिश हुक्मरान खारिज कर दिया करते. फिर भी कांग्रेस नेता शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बातें ब्रिटिश हुकूमत के सामने रखते.
सन् 1905 में लॉर्ड कर्जन का बंगाल विभाजन का फैसला कांग्रेस और एक तरह से देश के लिए भी निर्णायक घटना थी. कांग्रेस ने इसके खिलाफ खुलकर आवाज उठाई और सहयोगात्मक रवैया छोड़कर आजादी की लड़ाई में कूदने का फैसला ले लिया.
सन् 1915 में जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे, उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. इसके बाद से अंग्रेजों के खिलाफ कांग्रेस की आवाज और बुलंद होने लगी.
सन् 1920 के आते-आते मुल्कभर के लोग आजादी के लिए मचलने लगे. उस वक्त खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि भी तैयार हो रही थी.
जेल से छूटकर कलकत्ता लौटे मौलाना आजाद सन् 1920 में कांग्रेस में शामिल हो गए और खिलाफत आंदोलन के लिए मुसलमानों को तैयार करने लगे. उनके काम को देखते हुए उन्हें ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी का अध्यक्ष भी बना दिया गया.
उसी दौर में उन्होंने ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी के दूसरे मेंबर के साथ मिलकर जामिया मिलिया इस्लामिया की भी स्थापना की.
कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने महात्मा गांधी बेहद करीब से जाना-समझा और आखिरकार उनके मुरीद हो गए. मौलाना आजाद लगातार 6 बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए थे. कांग्रेस में रहते हुए वह कई दफे गिरफ्तार हुए और जेल की हवा भी खाई.
यह उनका प्रगतिशील नजरिया, देश को एक सूत्र में पिरो कर रखने का हुनर और वतन के लिए बेशुमार मोहब्बत ही थी कि सन् 1920 के बाद की गांधी-नेहरू की तस्वीरों में अबुल कलाम आजाद भी नजर आ ही जाते हैं.
बहरहाल, समय बीतने के साथ देश की आजादी का आंदोलन भी तेज हो रहा था. अंग्रेज हिन्दुस्तान की बागडोर भारतीयों के हाथों में सौंप देने का मन बना चुके थे. सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी.
लेकिन, एक बड़ा तूफान आना अभी बाकी था.
Abul Kalam with Nehru and Mahatma Gandhi (Pic: Pinterest)
भारत के बंटवारे का किया था पुरजोर विरोध
देश की आजादी की तारीख तय हो गई थी और साथ ही देश के बंटवारे की भी. बंटवारे के कई किरदार थे. लेकिन, अबुल कलाम बंटवारे के बाद होनेवाले नुकसान को देख पा रहे थे, इसलिए उन्होंने इसकी जी-भर मुखालिफत की.
सन् 1946 में फिर एक बार कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने पर उन्होंने 15 अप्रैल को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा था-
‘मुस्लिम लीग द्वारा तैयार पाकिस्तान के स्कीम को मैंने हर दृष्टि से देखा है. एक भारतीय होने के नाते मैंने भविष्य में भारत पर पड़नेवाले प्रभावों का भी आकलन किया है. एक मुसलमान होने के नाते मैंने इससे भारतीय मुसलमानों पर होनेवाले असर का भी अध्ययन किया है.
सभी पहलुओं को देखते हुए मैं इस अंजाम पर पहुंचा हूं कि यह न केवल भारत बल्कि मुसलमानों के लिए भी नुक्सानदेह है.
सच कहें, तो इससे समाधान की जगह समस्याएं पैदा होंगी.’ यही नहीं, मौलाना आजाद ने जिन्ना को एक गुप्त टेलीग्राम भी भेजा, जिसमें उन्होंने बताया कि भारत में सरकार किसी एक पार्टी की नहीं बल्कि गठबंधन की होगी, लेकिन जिन्ना ने इस टेलीग्राम का तीखा जवाब दिया.
मौलाना आजाद ने कांग्रेस के लीडरों की भी मान-मनौव्वल की, मगर उनकी नसीहतें नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई…और देश का बंटवारा हो गया.
भारी मन से उन्होंने बंटवारे को स्वीकार किया और आजाद भारत की सरकार में वह पहले शिक्षामंत्री बने. वह करीब 11 साल तक शिक्षा मंत्री रहे.
22 फरवरी 1958 को हृदयाघात से उनका इंतकाल हो गया.
Abul Kalam Azad (Pic: India Today)
हिन्दुस्तान के बंटवारे के संभावित नुक्सान को लेकर दूरदर्शी अबुल कलाम की भविष्यवाणी कितनी सटीक थी, आज हम देख पा रहे हैं.
Web Title: Maulana Abul Kalam Azad had opposed Partition of India, Hindi Article
Featured Image Credit: Cultural India