बहुत सारे कवि ऐसे हुए हैं, जिनकी कलम ने अपनी ताकत पर भारतीयों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए उत्साहित किया है. मगर आज हम जिस कवि की बात कर रहे हैं, वो कवि होने के साथ-साथ एक पत्रकार, राजनीतिज्ञ और स्वतंत्रता सेनानी भी रहे हैं.
हम बात कर रहे हैं भारत की आज़ादी के सच्चे सिपाही मौलाना हसरत मोहानी की, जिन्होंने कभी भी अंग्रेजों से समझौता नहीं किया और उनके खिलाफ हमेशा आंदोलन करते रहे.
आइए जानते हैं इस आज़ादी के दीवाने के बारे में, कि कैसे इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी.
तो चलिए जानते हैं ऐसे स्वतंत्रता सेनानी के बारे में –
अलीगढ़ विश्वविद्यालय में की पढ़ाई और...
मौलाना हसरत मोहनी 1875 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में क़स्बा मोहान में पैदा हुए. इनका वास्तविक नाम 'सैय्यद फज्लुल्हसन' था, लेकिन लोग इन्हें हसरत कहकर पुकारते थे.
मोहान गांव में पैदा होने के कारण इनके नाम के पीछे मोहानी लग गया और ये 'हसरत मोहानी' के नाम से मशहूर हो गए.
इनकी शुरूआती तालीम घर पर ही हुई. इनको बचपन से ही पढ़ने-लिखने का बड़ा शौक था, शायद इसी वजह से ये राज्यस्तरीय परीक्षा को टॉप करने में कामयाब भी रहे.
इसके बाद इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया और काॅलेज के दौर से ही स्वतंत्रता अभियान में हिस्सा लेते रहे.
हसरत मोहानी को कई बार उनके स्वतंत्रता अभियान के कारण काॅलेज से निष्कासित भी किया गया, मगर इस आज़ादी के दीवाने की दीवानगी भी कुछ कम नहीं हुई.
और इस कारण इन्हें 1903 को जेल भी डाल दिया गया.
वहीं, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आज़ादी के नायक के रूप में उभरे मौलाना अली जौहर और मौलाना शौकत अली के संपर्क में भी रहे.
1903 में अलीगढ़ से बीए की डिग्री प्राप्त की और स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1903 में ही अलीगढ़ से 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नाम की एक पत्रिका निकाली, जो अंग्रेजों के नीतियों के विरुद्ध थी.
कहते हैं कि वो अपनी पत्रिका में अंग्रेजों के खिलाफ निडर होकर लिखते रहे, यहां तक की इनको 1907 में एक बार फिर जेल जाना पड़ा था.
हालांकि कुछ साल बाद इनकी पत्रिका को अंग्रेजों ने बंद करवा दिया.
वहीं, मौलाना हसरत मोहानी ने 1904 के आसपास कांग्रेस की सदस्यता भी ग्रहण कर ली थी.
प्रभावशाली शायर के तौर पर मशहूर हुए
मौलाना हसरत मोहानी ने कम उम्र से ही कविता लिखना शुरू कर दिया था. हालांकि इनको मुख्य रूप से ग़ज़ल कवि के रूप में जाना जाता है.
शायरी का शौक रखने वाले हसरत मोहानी ने अपने वक़्त के मशहूर शायर तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी जैसे शायरों को अपना उस्ताद माना और उनसे शायरी करना सिखा.
बाॅलीवुड की सुपरहिट फिल्म निकाह में मशहूर ग़ज़ल गायक गुलाम अली की आवाज़ में गाई गई ग़ज़ल...
'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है'
शायद ही कोई ऐसा हो, जिसको ये पसंद न आए.
ये मशहूर ग़ज़ल हसरत मोहानी ने ही लिखी थी. उन्होंने उर्दू गज़ल को एक उन्नतशील मार्ग पर जोड़ दिया था.
मोहानी ने अपनी शायरी में प्रेम-प्रसंग के साथ-साथ सामाजिक, न्यायिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और आज़ादी का भाव पेश किया.
इनकी कविता का संग्रह ‘कुलियात-ए-हसरत’ के नाम से मशहूर है.
मौलाना हसरत मोहानी ने श्री कृष्ण की शान में भी शायरी की है.
दिया 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा
मौलाना हसरत मोहानी कांग्रेस में शामिल होने के बाद बाल गंगाधर तिलक के काफी करीब रहे और उन्हें तिलक महाराज कह कर पुकारते थे.
1907 में ये सूरत सत्र तक कांग्रेस के साथ रहे और कांग्रेस के सत्रों की बजट और अधिवेषणों को अपनी पत्रिका में प्रकाशित भी करते रहे.
हालांकि, जब 1907 में नरम दल और पूर्ण रूप से आज़ादी चाहने वाले गरम दल के बीच विवाद हुआ, तो इन्होंने गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस का साथ छोड़ दिया.
एक दिलचस्प बात यह है कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की जुबान पर 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा बुलंद होते ही आज़ादी के सिपाहियों में एक लहर दौड़ जाती थी.
इस नारे को लिखने वाले आज़ादी के सिपाही मौलाना हसरत मोहानी ही थे, इन्होंने सन 1921 में 'इंकलाब जिंदाबाद' अपनी कलम से लिखा था.
‘इंकलाब जिंदाबाद’ का यह नारा भारत की आज़ादी में सबसे ज्यादा गूंजने वाले नारों में से एक था.
वहीं, इस भगत सिंह और चंद्रशेखर की पार्टी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने इसके महत्व को समझा और इस नारे को आज़ादी की लड़ाई में अपनाकर मशहूर कर दिया.
भगत सिंह और उनके साथियों ने पहली बार 1929 को दिल्ली असेंबली में हमला करते वक़्त इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया था.
इसके बाद, देखते ही देखते यह नारा पूरे देश में लोकप्रिय हो गया.
पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव
मौलाना हसरत मोहानी ने जहां कांग्रेस के साथ मिलकर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, वहीं उन्होंने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा. हालांकि उस वक़्त वो पारित न हो सका.
मोहानी ने 1921 में अहमदाबाद में हुए कांग्रेस सम्मलेन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा था, लेकिन महात्मा गांधी ने नौजवानों के उस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया.
बताया जाता है कि कांग्रेस की उस बैठक में क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक़उल्ला खां के साथ-साथ कई और क्रांतिकारी भी मौजूद थे.
बावजूद इसके हसरत मोहानी पूर्ण स्वराज्य का नारा बुलंद करते रहे और आखिकार वो बाद में पारित भी हुआ.
हसरत मोहानी का भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को बनाने में भी अहम योगदान था.
उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को भी समर्थन किया और इस पार्टी के फाउंडर सदस्य के तौर पर अपनी सेवाएं दीं.
वहीं, उन्होंने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन करते हुए उसका प्रचार-प्रसार भी किया.
कहा जाता है कि इन्होंने एक खद्दर भण्डार भी खोला था, जो कि बहुत लोकप्रिय हुआ था.
मौलाना हसरत मोहानी को आजादी की क्रांति के लिए कई बार जेल जाना पड़ा.
पत्रिका बंद होने की वजह से उनको माली नुकसान हुआ, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के सामने अपना सिर कभी झुकने नहीं दिया.
वह समय-समय पर अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी शायरी करते रहे और आखिरी सांस तक भारतीय राजनीति में हिस्सेदार रहे.
और फिर एक दिन 1951 में हसरत मोहानी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
तो ये थी 'इंकलाब जिंदाबाद' और पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखने वाले मौलाना हसरत मोहानी से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें.
अगर आप भी इनसे संबंधित कुछ और बातों को जानते हैं, तो कृपया नीचे कमेंट बॉक्स में हमारे साथ अवश्य शेयर करें.
Web Title: Maulana Hasrat Mohani Who Gave the Revolutionary Slogan 'Inquilab Zindabad', Hindi Article
Feature Image Credit: indianexpress