हैदराबाद में निज़ामों ने कई सालों तक राज किया और अपने शासनकाल के दौरान इतने लोकप्रिय हुए कि हैदराबाद को ‘निजामों का शहर’ कहा जाने लगा.
निजामों के इतिहास की बात करें तो निजाम-उल-मुल्क आसफजाह प्रथम हैदराबाद के पहले निज़ाम बने.
निजाम-उल-मुल्क आसफजाह प्रथम का वास्तविक नाम मीर कमरुद्दीन खान था, जिन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद हैदराबाद को स्वत्रंत रियासत घोषित किया और आसफजाही राजवंश की स्थापना की.
ऐसे में हैदराबाद के पहले निज़ाम के बारे में जानना हमारे लिए दिलचस्प रहेगा कि किस तरह से ये मुग़ल बादशाहों के अधीन रहकर बड़े पद पर कार्यरत रहे और उसके बाद मुगलों के खिलाफ विद्रोह कर दिया.
तो आइए जानते हैं, मीर कमरुद्दीन खान के निज़ाम बनने और उनके सफ़र के बारे में –
मुग़ल बादशाह औरंगजेब के करीबी रहे!
मीर कमरुद्दीन 6 साल की उम्र में ही अपने पिता के साथ मुग़ल दरबार गए, तब औरंगजेब ने उनके पिता से कहा था कि "भाग्य का सितारा आपके बेटे के माथे पर चमकता है."
इन्होंने छोटी उम्र में ही अपने पिता से युद्ध नीति और सैन्य प्रशिक्षण हासिल करना शुरू कर दिया था. और किशोर अवस्था में ही अपने पिता के साथ सुपा और रायगढ़ के किलों पर अपना विजयी पताका फहराकर मुग़ल सल्तनत में अपनी एक पहचान बना ली.
इस तरह से ये औरंगजेब के प्रिय हो गए.
इनका विजयी अभियान यहीं नहीं रुका बल्कि, इन्होंने 16 साल की उम्र में ही अदोनी के किले पर सफलता हासिल की. जिससे बादशाह औरंगजेब ने खुश होकर इनको कई सारे पुरस्कारों से नवाज़ा और बाद में इन्हें ‘चिन किलीच खान’ का ख़िताब दिया.
इसके बाद इन्हें मुग़ल सम्राट ने पहले बीजापुर, फिर मालवा और बाद में दक्कन का शासन सौंप दिया.
मुगलों के खिलाफ बगावत
बादशाह, औरंगजेब के कार्यकाल में अवध और दक्कन के सूबेदार के पदों को सभांलते हुए मुग़ल सल्तनत के वफादार रहे.
हालांकि, 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सल्तनत कमज़ोर हो गई. लेकिन ये औरंगजेब के उत्तराधिकारी बादशाह फ़र्रुख़सियर के कार्यकाल में भी उनके अधीन अपनी जिम्मेदारियां निभाते रहे.
वहीं, बादशाह फ़र्रुख़सियर ने इन्हें ‘निज़ाम-उल-मुल्क’ के ख़िताब से नवाज़ा, लेकिन कुछ ही दिनों बाद सैय्यद बंधुओं ने मिलकर सुल्तान फ़र्रुख़सियर की हत्या कर दी.
ऐसे में निज़ाम-उल-मुल्क ने इन सैय्यद बंधुओं से बदला लेने के लिए एक योजना बनाई.
इस योजना के अनुसार, निज़ाम-उल-मुल्क सैय्यद बंधुओं से सुल्तान की मौत का बदला लेने में कामयाब रहे और अपनी वफादारी का सबूत पेश किया.
सुल्तान फ़र्रुख़सियर की मौत के बाद मोहम्मद शाह ने मुग़ल सल्तनत का राज पाठ संभाला. इस दौरान ये दीवान रहे.
हालांकि, इनके कार्यकाल में मुग़ल सल्तनत की लापरवाही और अनुशासनहीनता का दौर शुरू हो चुका था और इनकी शासन व्यवस्थाव पूरी तरह से चरमरा गई थी.
जिसको सुधारने के लिए निज़ाम ने काफी जतन किए, लेकिन उनकी सलाह को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था.
ऐसे में निज़ाम-उल-मुल्क ने मुग़ल सल्तनत की मुखालिफत करना शुरू कर दिया. उन्होंने दक्कन में अहिस्ता-अहिस्ता अपनी पकड़ मजबूत बना ली.
इसके बाद निज़ाम ने 1722 में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह कर दिया, जिसके बाद इन्होंने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की घोषणा कर दी और इसी के साथ सल्तनत के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया.
मराठों की तरफ बढ़ाया दोस्ती का हाथ
सल्तनत से बगावत करने पर मुगल बादशाह ने दक्कन के सूबेदार मुबारिज खान को निज़ाम से लड़ने भेजा.
ऐसे में निज़ाम ने अपनी सेना को इकठ्ठा किया और मुबारिज खान के साथ युद्ध करने शूकर खेड़ा के मैदान में पहुंच गए. 1724 के इस शूकर खेड़ा युद्ध में निज़ाम मराठों की मदद से मुबारिज खान को परास्त करने में कामयाब रहे.
बताया जाता है कि इस युद्ध में निज़ाम ने बड़ी बहादुरी और चालाकी के साथ मुबारिज खान से लोहा लिया. उसका सिर कलम कर मुगल सल्तनत को भेज दिया.
तब जाकर दिल्ली सल्तनत को इनकी ताकत का एहसास हुआ.
हालांकि, इन्होंने दिल्ली सल्तनत से नाता नहीं तोड़ा और मुग़ल शासन को समय-समय पर सहयोग देते रहे.
इस युद्ध के बाद ही मुगल बादशाह मोहम्मद शाह ने निज़ाम को ‘आसफजाह’ का ख़िताब दिया और कई तोहफों से भी नवाज़ा.
इसके बाद इन्होंने हैदराबाद के आसफजाही राजवंश के पहले निज़ाम के तौर पर अपना कार्य भार संभाला.
निज़ाम-उल-मुल्क ने सबसे पहले राजधानी औरंगाबाद को बदलकर हैदराबाद कर दिया और दक्कन प्रांत के सभी सूबों पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया.
मराठों के खिलाफ विद्रोह और...
हैदराबाद का निज़ाम बनने के बाद इनके सामने राज्य को व्यवस्थित करने और शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी थी, जिसको इन्होंने बखूबी अंजाम दिया.
इसी के साथ निजाम अपनी सेना को विशाल बनाने में लगे रहे, अब इनके सामने अपने सम्राज्य को बढ़ाने की चुनौती थी.
अपनी ताकत बढ़ाने के बाद इन्होंने मराठाें के खिलाफ विद्रोह कर दिया और 1728 में उनके विरुद्ध कार्रवाई शुरू कर दी.
बताया जाता है कि पेशवा बाजीराव प्रथम उस वक़्त दक्कन में थे, ऐसे में निज़ाम ने मौके का फायदा उठाते हुए पुणे पर हमला कर दिया.
जब इसका पता बाजीराव को चला, तो वह पुणे की ओर वापस लौट गए. वहीं, निज़ाम अपनी विशाल सेना के साथ बाजीराव की प्रतीक्षा करने लगे.
हालांकि बाजीराव एक कुशल और चालाक शासक थे. उन्होंने निज़ाम की बड़ी सेना से युद्ध न करके एक चाल चली और उसके अधीन खानदेश और बुरहानपुर जैसे क्षेत्रों पर लूटमार करना शुरू कर दिया, जिससे निजाम की सेना और मुग़ल सल्तनत में हाहाकार मच गई.
पेशवा की इस चाल से निज़ाम ने अपनी आधी सेना लूटमार वाले क्षेत्रों की तरफ भेज दी. और खुद आधी सेना को लेकर बाजीराव से लड़ने पालखेड़ के मैदान की ओर चल पड़ा.
सेना दो भागों में बंटने से निजाम की सैन्य शक्ति कमज़ोर हो गई.
अब बाजीराव ने निज़ाम की सेना को चारों तरफ से घेर लिया और अपने कुशल नेतृत्व से निज़ाम को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया.
ऐसे में निज़ाम को संधि करने के लिए विवश होना पड़ा.
नादिर शाह से मिली करारी हार
1738 में नादिर शाह ने अफगानिस्तान और पंजाब के रास्ते से दिल्ली की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था. तब मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह ने निज़ाम से मदद मांगी.
ऐसे में निजाम ने फारसी सेना को रोकने के लिए अपने सेना भेज दी.
हालांकि, नादिर शाह की कुशल सेना के सामने मुग़ल और निज़ाम की संयुक्त सेना को हार का मुंह देखना पड़ा.
बताया जाता है कि 1742 में ब्रिटिशों ने निज़ाम-उल-मुल्क को मुग़ल उत्तराधिकारी राज्य मद्रास का नेतृत्व करने का प्रस्ताव रखा, तो इन्होंने उनके अधीन शासन करने से इंकार कर दिया.
निज़ाम-उल-मुल्क आसफजाह प्रथम ने 1748 में बुरहानपुर रियासत में अंतिम सांस ली, जिसके बाद इन्हें औरंगाबाद के निकट खुलदाबाद में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया.
तो ये थी हैदराबाद के पहले निज़ाम मीर कमरुद्दीन खान उर्फ़ निजाम-उल-मुल्क आसफजहा प्रथम से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें.
अगर आप भी हैदराबाद के निजाम के बारे में इसके अलावा कुछ बातें जानते हैं, तो कृपया हमारे साथ नीचे कमेंट बॉक्स में अवश्य शेयर करें.
Web Title: Mir Kamruddin: The First Nizam of Hyderabad, who rebelled against the Mughals, Hindi Article
Feature Image Credit: viswanath