अकबर के नवरत्नों में एक थे अबुल फज़ल.
उनका परिचय कुछ ऐसा है कि वह मुग़ल कार्यकाल की प्रसिद्ध पुस्तक अकबरनामा और आइने अकबरी की रचना के लिए जाने जाते हैं. इसके अवाला वह अपनी बुद्धि और वफादारी के कारण अकबर के चहेते रहे.
बावजूद इसके जहांगीर पर उनकी हत्या का आरोप लगता है, तो सवाल लाजमी हो जाता है कि आखिर क्यों!
आईए जानते हैं-
दीमक लगी किताब को किया पूरा और...
1551 में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में जन्में अबुल फज़ल अरब देश के मूल निवासी थे. उनका पूरा नाम फजल-इब्न-मुबारक था. बचपन से ही वह बुद्धिमान और प्रतिभावान बालक थे.
लिहाज़ा पिता शेख़ मुबारक ने उनके लिए उच्च शिक्षा व्यवस्था का प्रबंध किया.
ऐसे में अबुल फज़ल भी पूरी मेहनत और लगन से तालीम हासिल करने में लग गए. वह 15 साल के रहे होंगे, जब उन्होंने दर्शन शास्त्र और इस्लामिक शिक्षा को प्राप्त कर लिया. आगे 20 के हुए, तो अध्यापक पद पर कार्यरत रहे .
इन्हीं दिनों उन्हें इस्फ़हानी की एक किताब मिली, जिसके आधे से अधिक भाग को दीमक खा गए थे. इस वजह से उसको समझना और पढ़ना मुश्किल था.
बावजूद इसके अबुल फज़ल ने उसे पढ़ने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने दीमक खाए हुए पन्नों के अगल-बगल सादे कागज जोड़े और अपनी सूझ-बूझ से हर लाईन की प्राम्भिक व अंत वाक्य को पूरा करने की कोशिश की.
आगे जब उन्हें किताब की दूसरी प्रति मिली, तो दोनों का मिलान किया गया. नजीता चौकाने वाला था. कुछ स्थानों पर शब्द भले ही अलग हो गए थे, मगर उसके वाक्यों के भाव में कहीं भी तब्दीली न थी.
उनकी इस कुशलता को देखकर सभी बहुत आश्चर्य हुए.
अकबर से दूसरी मुलाकात के बाद बने दरबारी
यह वह दौर था, जब अकबरी हुकूमत लगातार बढ़ती जा रही थी. सल्तनत को कानून की ज़रुरत होती थी. शायद यही कारण है कि अकबर की सल्तनत में हर छोटे-बड़े फैसलों पर विद्वान लोगों का एक समूह दरबार में हमेशा मौजूद दिखता था.
अबुल फज़ल भी चाहते थे कि वह अकबर के दरबार का हिस्सा बने. इसके लिए उन्होंने रास्ता भी निकाल लिया. उन्होंने एकांत में रहते हुए उस दौर की कई सारी तफसीरे लिख डाली, जिसकी वजह से अकबर के कानों तक उनका नाम पहुँच गया.
नजीजा यह रहा कि प्रभावित होकर अकबर ने भी उनसे मिलने की इच्छा जताई.
जल्द ही अकबर से उनकी पहली मुलाक़ात आगरा में हुई.
इस दौरान उन्होंने ‘आयतल कुर्सी’ से लिखी तफसीर बादशाह अकबर को भेंट में दी. अकबर ने उसे कबूल फ़रमाया, लेकिन कुछ कारणों से उस वक़्त भी ये अकबर के दरबार में नहीं जुड़ सके.
हालांकि, जब अकबर पटना फतह करके अजमेर पहुंचे, तब एक बार फिर से उन्हें अकबर से मिलने का मौका मिला. इस बार उन्होंने अकबर को 'अल्हम्दुलिल्लाह' की तफसीर भेंट की. अकबर ने उसे स्वीकारा और कई मुद्दों पर सलाह मशविरा किया.
कहते हैं इस मुलाकात के बाद अकबर उनका कायल हो गया और उसने अबुल फज़ल को अपना दरबारी बना लिया!
कई युद्ध अभियान में दिया योगदान
अबुल फज़ल ने अकबर के दरबार में रहकर उनके प्रियों में से एक बने. उन्होंने अकबर के कुछ युद्ध अभियानों को सफल बनाने में भी काफी योगदान दिया. बताते चलें कि अहमदनगर के युद्ध में शहजादे मुराद बख्श की असफलता के बाद अबुल फज़ल ही अकबर का मजबूत सहारा बने थे.
एक वक़्त ऐसा भी आया, जब मिर्जा कोका, आसफ खां और शेख़ फरीद के साथ मिलकर अबुल फज़ल ने आसिरगढ़ के दुर्ग को घेरने का प्लान बनाया. उन्होंने अपने बेटे और भाई के अधीन अपने सैनिकों को विद्रोहियों का पतन करने भेजा.
साथ ही चार हजारी मनसब का झंडा फहराकर अपना लोहा मनवाया!
इसी क्रम में अबुल फज़ल ने राजमना से भी युद्ध किया. उनकी युद्ध कुशलता ही थी कि उन्हें एक वक़्त में अकबर का दाहिना हाथ तक कहा जाने लगा था.
जहाँगीर की साजिश का हुए शिकार
जैसे-जैसे अबुल फज़ल अकबर के खास बनते जा रहे थे, वैसे-वैसे वह दूसरों की नज़रों में खटकते जा रहे थे. खासकर शहजादा सलीम (जहांगीर) उन्हें बिलकुल पंसद नहीं करता था.
एक समय ऐसा भी आया, जब अकबर और जहाँगीर के बीच इख्तेलाफात सिलसिला शुरू हो गया. ऐसे समय में अकबर ने सिर्फ अबुल फज़ल को ही विश्वास पात्र समझा.
उन्होंने अबुल फज़ल को सब कुछ छोड़कर वापस उनके पास आने का ख़त भेजा. अकबर का ख़त मिलते ही अबुल फज़ल अपने बेटे के अधीन अपने सैनिकों को छोड़कर अकबर से मिलने के लिए रवाना हो गए.
जहाँगीर ने अकबर के प्रति अबुल फज़ल की ऐसी वफादारी को देखा, तो उसने सबसे पहले उनको ही रास्ते से हटाने की साजिश रची. इसके तहत उसने वीर सिंह देव बुंदेला को लालच देकर, अबुल फज़ल को मरवाने के लिए राजी कर लिया!
हालांकि बताया जाता है कि लोगों ने अबुल फज़ल को दूसरे रास्ते से जाने का मशविरा दिया था, लेकिन अबुल फज़ल ने कहा कि 'डाकुओं की क्या मज़ाल कि मेरा रास्ता रोकें'.
12 अगस्त 1602 में वीर सिंह देव ने अपनी भारी सेना के साथ अबुल फज़ल पर धावा बोल दिया था. ऐसे में अबुल फज़ल के शुभचिंतकों ने उनको बचाने का प्रयत्न किया, लेकिन उन्होंने युद्ध के मैदान से न भाग कर वीरगति को गले लगाया.
आगे अकबर को जहाँगीर की इस हरकत का पता चला, तो उन्हें बहुत गहरा दुःख हुआ. इस शोक संदेश को सुनकर उन्होंने कहा कि शहजादे को सत्ता चाहिए था, तो मुझसे मांगता...मुझे मार देता....न कि मेरे अज़ीज़ अबुल फज़ल को.
‘अकबर नामा’ और ‘आइने अकबरी’ की रचना
अबुल फज़ल कई सालों तक अकबर के दरबार में रहे. अपनी काबिलियत के दम पर वज़ीर और सलाहकार जैसे पदों पर भी कार्यरत रहे. दिलचस्प बात तो यह है कि अबुल फज़ल सिर्फ एक दरबारी और उच्च पदों पर अधिकारी ही नहीं थे.
वे एक बड़े विद्वान और शायर भी थे!
उन्होंने अपने जीवन काल में कई पुस्तके लिखीं. ‘अकबर नामा’ और 'आइन-ए-अकबरी' ऐसे ही दो बड़े उदाहरण हैं.
इन पुस्तकों की मदद से हम अकबर के सम्राज्य के बारे में जानकारी जुटा सकते हैं
इन्हीं पुस्तकों की रचना के बाद अबुल फज़ल और भी मशहूर हो गए.
तो ये थे अकबर के नवरत्न अबुल फज़ल से जुड़ें कुछ पहलू.
अगर आपके पास भी उनके जुड़ी कोई जानकारी है, तो नीचे दिए कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं!
Web Title: One of the monks of Akbar, who was killed by Jahangir, Hindi Article
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