प्रफुल्ल चन्द्र राय वह नाम है, जिसे दवाइयों की दुनिया में बड़े ही अदब से लिया जाता है. इन्होंने भारत को उसकी पहली दवाइयों की दुकान देकर एक नए युग की शुरूआत की थी. अंग्रेजों के जिस दौर में लोग दवाइयाों के लिए तरसते थे, उस दौर में वह एक देवदूत बनकर उभरे. उन्होंंने न सिर्फ दवाइयां बनाईं. बल्कि, समाज कल्याण के लिए खुद को समर्पित कर दिया था. तो आइये जरा नजदीक से जानने की कोशिश करते हैं इनके सफरनामे को:
ठाठ से बीता बचपन
प्रफुल्ल का जन्म 1861 में बंगाल के एक गांव में हुआ था. पिता एक जमींदार थे, इसलिए कभी आर्थिक रुप से परेशानी नहीं झेलनी पड़ी. जरुरत की हर चीज उनके पिता पलक झपकते ही ला दिया करते थे. गांव के दोस्तोंं के बीच उनका काफी रुतबा था. आरामदायक जीवन के चलते आलीशान जिंदगी जीते हुए प्रफुल्ल बड़े होते गए. वह स्कूल जाने लायक हुए तो उनका दाखिला घर के ही पास बने एक स्कूल में करा दिया गया. चूंकि स्कूल उनके परिवार ने बनवाया था, इसलिए उनको यहां भी कोई खास परेशानी नहीं हुई.
Prafulla Chandra, First Indian Pharmacy Owner (Symbolic Pic: frankwater.com)
बीमारी ने बढ़ाई साहित्यिक रुचि
गांव के स्कूल ज्यादा अच्छे नहीं थे, इसलिए प्रफुल्ल के माता-पिता उन्हें कलकत्ता ले आए, ताकि वह अच्छी शिक्षा पा सकें. यहां उनका दाखिला ‘हेर स्कूल’ में करा दिया गया. वह स्कूल कलकत्ता का एक जाना माना स्कूल हुआ करता था. धीरे-धीरे वह स्कूल के माहौल में घुल-मिल गये. वह अपनी कक्षा के कुशाग्र छात्रों में गिन जाने लगे. इसी बीच अचानक उनकी तबियत ख़राब होने लगी. देखते ही देखते उनकी हालत गंभीर हो गई. कुछ पल के लगने लगा था कि वह नहीं बचेंगे, पर डॉक्टर उन्हें बचाने में कामयाब रहे. हालॉकि, वह दो साल तक स्कूल नहीं जा सके.
इस घटना से पिता इतना घबरा गये थे कि उन्होंने प्रफुल्ल को गांव भेज दिया. उनको लगा था कि प्रफुल्ल को कोलकात्ता का मौसम सूट नहीं कर रहा है. अब प्रफुल्ल के गांव का घर ही उनके लिए स्कूल था और उनके दोस्त उनके शिक्षक. इन दो सालों में प्रफुल्ल साहित्य की तरफ अाकर्षित हुए. उन्होंने गांव में बैठे-बैठे कई किताबें पढ़ डाली. माना जाता है कि यह प्रफुल्ल का महत्वपूर्ण समय था.
अलेक्जेंडर पेडलर से हुए प्रेरित
दो साल बाद प्रफुल्ल कोलकात्ता वापस लौटे. आते ही उन्होंने स्कूल में दाखिला लिया और पढ़ाई फिर से शुरू कर दी. जैसे ही स्कूल ख़त्म हुआ, उन्होंने कलकत्ता के मेट्रोपोलिटन कॉलेज में विज्ञान के लिए दाखिला ले लिया. प्रफुल्ल को लैब में काम करना था, पर उनके कॉलेज में ऐसी कोई सुविधा थी ही नहीं. एक फिल्म का डायलॉग है कि ‘ज्ञान जहां से मिले ले लो’… प्रफुल्ल ने भी अपनी लैब की परेशानी के लिए ऐसा ही किया.
उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज जाना शुरू कर दिया. उस कॉलेज में उन्हें हर वह सुविधा मिली, जिसकी उन्हें दरकार थी. प्रफुल्ल वहां पर साइंस की क्लास लिया करते थे. एक दिन वहां अलेक्जेंडर पेडलर नाम के एक लेक्चरार पढ़ाने आए. इनको सुनकर प्रफुल्ल इतना प्रेरित हो गए कि उन्होंने तय कर लिया कि वह अब केमिस्ट्री में ही कुछ करेंगे. यह वह समय था, जब प्रफुल्ल साहित्य से केमिस्ट्री की तरफ बढ़ चुके थे.
Prafulla Chandra First Indian Pharmacy Owner (Pic: birlahighschool.com)
कॉलेज के उस लेक्चर के बाद तो जैसे केमिस्ट्री ही प्रफुल्ल की जिंदगी बन गई थी. उन्होंने पूरा दिल लगाकर उसके बारे में सीखना शुरू कर दिया था. थोड़े समय बाद उनकी पढ़ाई पूरी हो गई, लेकिन केमेस्ट्री के प्रति उनका दीवानापन यहीं पर नहीं रुका. उन्हें और सीखना था, इसलिए वह ब्रिटेन चले गये. वहां उन्होंने एक कॉलेज में बीएससी में दाखिला ले लिया. यहीं उन्होंने डीएससी की पढ़ाई भी पूरी की. अब वह केमिस्ट्री के अच्छे जानकार हो गये थे.
भारत लौटकर खोली कंपनी
प्रफुल्ल भारत में केमिस्ट्री की एक क्रांति लाना चाहते थे, पर जब वह भारत लौटे तो उनकी डिग्री और ज्ञान की किसी ने कद्र नहीं की. इतना पढ़ा-लिखा होने के बावजूद उन्हें स्थाई टीचर की नौकरी नहीं मिली. असल में उन दिनों अंग्रेजों का राज था, इसलिए सिर्फ अंग्रेजों को ही नौकरियां मिला करती थी. प्रफुल्ल को यह बात रास नहीं आई. उन्होंने कई बड़े अंग्रेज अफसरों से इसकी शिकायत की. पर बात बनी नहीं. किसी ने उनकी कोई मदद नहीं की.
यह बात प्रफुल्ल को छू गई और उन्होंने आत्मनिर्भर होने का फैसला कर लिया. उन्होंने दवाईयों की एक फैक्ट्री लगाने का सारा खाका तैयार कर लिया. वह पहले भारतीय थे, जो ऐसा करने जा रहे थे. प्रफुल्ल ने इसके लिए 700 रूपए जुटाए. कलकत्ता में एक कमरा किराए पर लिया. वह अकेले ही इस काम को अंजाम देने में लग गये.
शुरुआत में उन्होंने आयुर्वेदिक दवाइयां बनाई. जो कारगर साबित हुई और धीरे-धीरे वह लोकप्रिय हो गये. फिर कुछ वक्त बाद जब उनके पास पर्याप्त धन हो गया तो उन्होंने इसका विस्तार किया. कहते हैं कि इस बार प्रफुल्ल ने इसमें दो लाख रूपए लगा दिए थे. यह एक बड़ा दांव था, जिसमें वह सफल रहे. एक स्थाई कंपनी के रुप में वह ‘बंगाल केमिकल एंड फार्माक्यूटिकल’ बनाने में कामयाब रहे. इस कामयाबी ने प्रफुल्ल को ऊंचाइयों के शिखर पर पहुंचा दिया. उन्होंने एक के बाद एक नई दवा बनाई. उनकी कंपनी देश के अन्य राज्यों में भी खुली और प्रफुल्ल इतिहास रचते गये.
Prafulla Chandra First Indian Pharmacy Owner (Pic: usnews.com)
समाजसेवा भी…
प्रफुल्ल दिल के बहुत ही अच्छे आदमी माने जाते थे. उन्होंने पूरी जिंदगी शादी नहीं की. वह आजीवन लोगों के लिए ही काम करते रहे. माना जाता है कि वह जातिवाद के खिलाफ थे. जब भी वह ट्रेन का सफ़र करते थे तो पैसे होने के बाद भी थर्ड क्लास कोच में सफ़र करते थे. वह बचपन से अमीर थे, पर उन्हें पैसों का कभी मोह नहीं रहा. कहते हैं कि कलकत्ता यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री लैब नहीं थी, तो प्रफुल्ल ने अपनी बचत के पैसे इसके लिए दान कर दिए थे. यही नहीं अपनी कंपनी के मुनाफे का आधा हिस्सा वह अपने कर्मचारियों में बांट देते थे. वह सामाजिक कार्यों में भी हमेशा आगे रहे. आखिरी सांस तक उनमें केमिस्ट्री के लिए दीवानगी दिखी.
भारत में आज भी दवाइयों के व्यापार करने वाले लोग प्रफुल्ल के नाम को अपने होठों से लगाए हुए फिरते हैं. भारत में दवाइयों के लिए किया गया उनका योगदान हमेशा याद किया जायेगा. आज अगर वह होते तो दवाइयों के आधुनिक विस्तार को देखकर उन्हें गर्व जरुर होता.
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Web Title: Prafulla Chandra First Indian Pharmacy Owner, Hindi Article
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