वह खून कहो किस मतलब का जिसमें उबाल का नाम नहीं,
वह खून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नहीं,
वह खून कहो किस मतलब का जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!
मशहूर कवि गोपाल प्रसाद व्यास जी की ये पक्तियां उन वीर सपूतों पर सटीक बैठती हैं, जिन्होंने अपने शरीर का एक-एक कतरा देश के लिए कुर्बान कर दिया. यूं तो देश पर मर मिटने वालों की सूची बहुत लंबी है, मगर इस सूची में कई ऐसे महानायक भी हैं, जिनकी वीर गाथा इतिहास में कहीं दब कर रह गई.
जी हां, एक ऐसे ही वीर सपूत थे खुदीराम बोस!
जब आजादी की कहानी लिखी जा रही थी, उस वक्त ये वीर योद्धा प्राणों की परवाह किए बिना अंग्रेजी हुकूमत के खात्मे का खाका अपने मन में तैयार कर रहा था. संकल्प बस एक था कि भारत आजादी की नई सुबह देखे. हैरान करने वाली बात ये कि वो हंसते-हंसते जवानी में ही फांसी के फंदे पर झूल गया.
तो आईये जोश, जूनून और जज्बे से लबरेज इस युवा की कहानी जानने की कोशिश करते हैं–
बहन ने किया लालन-पालन
साल 1889 में 3 दिसंबर की सुबह थी, जब मां की कोख से जन्मे खुदीराम बोस.
उस समय किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि बंगाल के मिदनापुर में स्थित हबीबपुर गांव में पैदा होने वाला यह बच्चा महज 18 साल की उम्र में अपने वतन पर न्योछावर हो जाएगा.
जन्म के कुछ ही दिनों बाद खुदीराम बोस के सिर से मां और पिता का साया उजड़ गया. घर में इनके अलावा अगर कोई और मौजूद था, तो वह थीं उनकी बहन. उन्होंने ही खुदीराम बोस का लालन-पालन किया. उनकी आंखों में देश प्रेम कूट-कूट कर भरा हुआ था. यही कारण रहा कि वह स्कूल के दिनों में ही राजनीतिक गतिविधियों में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने लगे थे.
जिस दौर में खुदीराम बड़े हो रहे थे, वह आजादी से ठीक पहले का दौर था. उस वक्त देश में अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की आग लोगों के दिलों में जल रही थी.
Khudiram Bose (Pic: Scoopnest.com)
देश सेवा के लिए ‘छोड़ी पढ़ाई’
बंगाल भी आज़ादी की लड़ाई से प्रभावित था. इसी क्रम में 1902-1903 के आसपास अरविंदो घोष और भगिनी निवेदिता को युवाओं में आजादी के प्रति जोश पैदा करने की जिम्मेदारी दी गई. इसी दौरान खुदीराम उनके संपर्क में आए और उनके साथ सक्रिय हो गए. चूंकि वह तेज-तर्रार थे, इसलिए कम उम्र में ही वह आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. उन्हें खुद भी पता नहीं चला कि कब वह आज़ादी के लिए कुर्बानी देने की राह पर बढ़ चले हैं!
कहते हैं कि देश को आजाद कराने का सपना खुदीराम ने नवीं कक्षा में देख लिया था. इसके लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई तक छोड़ दी थी.
अंग्रेजी हुकूमत को पता था कि भारत के लोगों में एकता कूट-कूट कर भरी है. लिहाजा वे बंटवारे पर जोर देते थे. अतीत बताता है कि जब 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ, तो इसकी आग बहुत दूर तक फैली. विरोध प्रदर्शनों का एक लंबा दौर चला.
अपने खून से इतिहास लिखने वाले खुदीराम बोस इसी विरोध की आग में तपकर एक क्रांतिकारी बने. बहुत कम लोग ही जानते हैं कि उन्हें डिटेक्टिव नोबेल पढ़ना काफी पसंद था.
निडरता की ‘अनूठी मिसाल’
एक दिलचस्प किस्सा भी खुदीराम बोस के जीवन से जुड़ा हुआ है. ऐसा कहा जाता है कि जब खुदीराम मात्र 16 साल के थे, उस वक्त उन्होंने पुलिस स्टेशन में बम रख दिया था, जिसमें कई सरकारी कर्मचारी मौत के मुंहाने पर पहुंच गए थे.
खुदीराम जानते थे कि इसके आगे की लड़ाई आसान नहीं है, इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वह किसी संगठन के साथ मिलकर काम करेंगे. इसी कड़ी में सत्येन बोस के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने वाले खुदीराम बोस ने रिवोल्यूशनरी पार्टी से जुड़ने का फैसला किया.
साथ ही वंदेमातरम नाम के पर्चे युवाओं के बीच बांटने लगे.
इस दौरान वह पुलिस के निशाने पर चढ़ गए और 28 फरवरी, 1906 को सोनार बंगला नाम का एक इश्तहार बांटते हुए पकड़े गए. किन्तु, अंग्रेज उन्हें संभाल नहीं सके. वह उन्हें चकमा देकर फरार होने में कामयाब रहे.
हालांकि, फरार होने के साथ ही एक नई मुसीबत उनके गले पड़ गई थी. इसके चलते आगे उन पर अंग्रेजों ने राजद्रोह का आरोप लगाते हुए मुकदमा तक चलाया. पर चूंकि खुदीराम के खिलाफ कोई मजबूत सबूत नहीं मिले इस वजह से वह निर्दोष करार दिए गए.
Khudiram Bose (Representative Pic: SWN)
अंग्रेज अफसर पर फेंका बम
जब भी खुदीराम बोस को याद किया जाता है, तो उनके साथ एक नाम को अक्सर जोड़ा जाता है. वह नाम है प्रफुल्लकुमार चाकी का. दोनों की दोस्ती आजादी के आंदोलन के दौरान ही परवान चढ़ी थी. गौरतलब हो कि बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग सड़कों पर उतर आए. इनमें से कई भारतीयों को उस दौरान कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने कठोर सजा दी.
किंग्जफोर्ड क्रान्तिकारियों को खास तौर पर दण्डित करने के लिए बदनाम था. अंग्रेजी राजाओं को उसकी ये बात अच्छी लगती थी इसलिए उन्होंने उसके काम से खुश होकर उसका प्रमोशन कर दिया. उसे बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया गया.
क्रांतिकारियों को ये बात नागवार गुजरी थी कि कैसे एक क्रूर अंग्रेज को पद्दोनति दे दी गई. सो इसके खिलाफ क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड को मारने का प्लान तैयार किया.
इसके काम को अंजाम देने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्लकुमार चाकी को चुना गया. मुजफ्फरपुर पहुंचने के बाद इन दोनों ने किंग्जफोर्ड के बंगले और कार्यालय की निगरानी की. फिर योजना के साथ 30 अप्रैल 1908 को प्रफुल्लकुमार और बोस बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बंगले के बाहर खड़े होकर उसका इंतज़ार करने लगे.
खुदीराम के सब्र का बाँध टूट रहा था, इसलिए उन्होंने बम फेंक दिया. इस बम से दो यूरोपियन महिलाओं की मौत हुई, लेकिन किंग्जफोर्ड बच निकला. बम के धमाके के बाद भगदड़ जैसा माहौल हो गया. मामला बिगड़ता देख खुदीराम भी अपने दोस्त के साथ भाग निकले.
अंतत: ‘इस तरह’ पकड़े गए…
घटना स्थल से दौड़ते-दौड़ते खुदीराम जब बहुत थक गए, तो उन्होंने वैनी स्टेशन पर रुकने का फैसला किया. असल में उनका गला सूख चुका था, इसलिए वह पानी की तलाश में थे. खुदीराम ने वहां एक चाय वाले से पानी भी मांगा. इसी दौरान वहां मौजूद एक अंग्रेज सिपाही को उन पर शक हो गया और उसकी सूचना पर खुदीराम अंतत: गिरफ्तार कर लिए गए.
वहीं दूसरी तरफ खुदीराम के दूसरे साथी प्रफुल्ल चाकी का भी यही हाल था. चूंकि, प्रफुल्ल चाकी भी भाग-भाग कर भूक-प्यास से तड़प रहे थे. ऐसे में उन्होंने फैसला लिया कि अब वो और नहीं भागेंगे और एक आदमी की मदद से वह एकक ट्रेन में सवार हो गए. इस सफर के दौरान वह भी अपने दोस्त खुदीराम की तरह शक के निशाने पर आ गए.
इसी कड़ी में जब चाकी हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए मोकामा घाट स्टेशन पर उतरे, तब उनकी गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज पहले से ही वहां मौजूद थे. वह पूरी तैयार के साथ आगे बढ़े, किन्तु, प्रफुल्ल चाकी कहां किसी के हाथ आने वाले थे. वह पकड़े जाते इससे पहले उन्होंने खुद को गोली मार ली और अपने देश के लिए शहीद हो गए.
11 अगस्त 1908 का काला दिन
खुदीराम बोस अंग्रजों के चंगुल में थे. उन्हें सजा देने के लिए उन पर मुकदमा चलाया गया और फिर तय हुई उनकी फांसी की तारीख.
तारीख थी 11 अगस्त 1908 की!
इस दिन कोलकाता जेल में सुबह के 5:45 बजे अंग्रेज़ अधिकारी खुदीराम बोस को फांसी पर चढ़ाने की सारी तैयारी कर चुके थे. जैसे ही घड़ी के कांटे में सुबह के 6 बजे, खुदीराम बोस को फांसी पर लटका दिया गया.
कहते हैं कि जब वह फंदे पर झूले तो उनके हाथों में भगवद गीता पुस्तक भी मौजूद थी.
खुदीराम बोस ने देश के लिए शहादत देकर युवाओं के दिल में हमेशा के लिए अपनी जगह बना ली. उनकी निडरता, वीरता और शहादत ने उनको लोकप्रिय बानाया.
Khudiram Bose Freedome Fighter (Pic: PinsDaddy)
बावजूद इसके इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएंगा कि उनको इतिहास में जिस तरह का सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला. हां, कहने के लिए आज के दौर में उनके नाम एक एक-दो स्मारक जरूर मिल जाएंगे. बिहार के मुजफ्फरपुर में बना स्मारक उनमें से एक है.
आप क्या कहेंगे इस महान क्रन्तिकारी के बारे में… कमेन्ट-सेक्शन में अपनी राय अवश्य दें!
Web Title: Story of Khudiram Bose, Hindi Article
Feature Image Credit: Pinterest