“पंडित नेहरू सिर्फ कांग्रेस के ही नेता नहीं थे, बल्कि वह हिन्दुस्तान की जनता के नेता थे और महात्मा गांधी के सही उत्तराधिकारी.” वह भारत के चहेते नेता तो थे ही, साथ ही विश्व पटल पर उन्होंने भारत को गांधी के आदर्शों के साथ पेश किया था.
इसी के साथ इतिहासकार रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि नेहरू ने महात्मा गांधी को अमेरिका के संस्थापकों के बराबर ला कर खड़ा कर दिया था.
ऐसा क्यों हुआ कि भारत के प्रधानंमंत्री को अमेरिका जाकर गांधी के प्रेम और अहिंसा के संदेश को फैलाना पड़ा. आइए जानने की कोशिश करते हैं –
नेहरू जैसी लोकप्रियता और कहां?
गुलाम भारत में भारतीयों के बीच नेहरू बहुत तीव्र गति से लोकप्रिय हुए, ऐसा पहले किसी नेता के साथ नहीं हुआ था, और खासकर इतनी गहरी राजनीतिक पकड़, अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकारी और उनके लिए लोगों में अपनापन कभी नहीं देखा गया.
जवाहरलाल नेहरू ने इंग्लैंड में पढ़ाई की, प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के समय का दौर देखा और उस समय की अंतरराष्ट्रीय राजनीति को नजदीक से अनुभव भी किया.
नेहरू ने एक बड़ी दुनिया की यात्रा की थी, उन्होंने यूरोप कई बार घूमा, फिर छात्र जीवन के दौरान वह अमेरिका भी जा चुके थे.
उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा की, चीन की यात्रा की और अपने पड़ोसी देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध रखने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी.
Jawaharlal Nehru with Gandhiji. (Pic: qz)
भारत को भूखों-बीमारों का देश समझता था अमेरिका
ऐसे में अमेरिका को इस बात का अंदाजा नहीं था कि असल में नेहरू उनके प्रति कैसा व्यवहार रखते हैं. जबकि नेहरू इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते थे कि अमेरिका भारत को किस रूप में देखता है.
असल में अमेरिका केवल ये ही समझता रहा कि भारत गरीबों और दयनीय लोगों का देश है, जहां बीमारियों से ग्रसित बच्चों की आंख पर मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं और वो गलियों व सड़कों पर मरते रहते हैं.
वहीं, इसके इतर नेहरू अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था के कटु आलोचक थे. उनका मानना था कि अमेरिका में पूंजीपतियों के होते हुए भी न्यूयॉर्क को भूखों का शहर कहा जाता है.
उनकी अमेरिका से नफरत केवल यहीं तक सीमित नहीं थी, बल्कि नेहरू ये जानते थे कि अमेरिका और ब्रिटेन पाकिस्तान के पक्षधर क्यों रहे. ब्रिटेन और अमेरिका अपने कट्टर दुश्मन सोवियत संघ और चीन को काबू करने के लिए कोई भी कदम उठा सकते थे. फिर इसके लिए चाहे हिन्दुस्तान का बंटवारा कर पाकिस्तान नाम के नए राष्ट्र का निर्माण ही क्यों न हो.
विंस्टन चर्चिल इसकी योजना पहले ही बना चुके थे, लिहाजा उन्होंने इसे अमलीजामा पहनाने के लिए अपने सबसे काबिल और भरोसेमंद लार्ड माउंटबेन को भारत का वायसराय बनाकर भेजा.
बहरहाल, हिन्दुस्तान के दो टुकड़े हुए और अमेरिका – ब्रिटेन ने अपनी संधियों के जाल में पाकिस्तान को जकड़ लिया. अब अमेरिका के लिए सोवियत सीमा दूर नहीं थी, एक हिन्दुस्तान में ये संभव नहीं था.
अमेरिका-ब्रिटेन का काम पूरा हो चुका था. अब उसका निशाना साम्यवादी देश थे. हालांकि भारत की नीति स्पष्ट थी.
बावजूद इसके नेहरू हमेशा चीन, सोवियत संघ और अमेरिका के साथ बराबर दर्जे के संबंधों की पैरवी करते रहे. नेहरू उस समय संयुक्त राष्ट्र में पूरे जोर-शोर से चीन के लिए स्थाई सदस्यता का मुद्दा उठा रहे थे.
अमेरिका इस गफलत में जी रहा था कि साम्यवादी देशों की तरफदारी मतलब अमेरिका से दुश्मनी.
Jawarhalal Nehru at UN Headquarters. (Pic: The Wire)
नेहरू का गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत
शीतयुद्ध के दौरान जवाहरलाल नेहरू अमेरिका और सोवियत संघ दोनों की ओर तटस्थ रहे. हालांकि उनका झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement, NAM) की नींव रखने में बड़ी भूमिका निभाई. नेहरू साफतौर पर दो महाशक्तियों की न तो तरफदारी कर रहे थे और न हीं उनके खिलाफ थे. इसलिए उन्होंने दोनों धड़ों के बीच सामंजस्य स्थापित कर अपने रिश्तों को प्रासंगिक बनाए रखने पर ज्यादा जोर दिया.
इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू ने कोरिया युद्ध को समाप्त कराने में बड़ी भूमिका अदा की थी. हालात इतने खराब हो चुके थे कि अमेरिका ने चीन के ऊपर परमाणु हमले की धमकी तक दे दी थी, बावजूद इसके चीन और अमेरिका पीछे हटने को तैयार नहीं थे. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी कोशिशें जारी रखीं और लंबी चली आ रही जंग को समाप्त कराकर अपनी योग्यता का परिचय दिया था.
Nehru with Konrad Adenauer and Hermann Josef Abs in Germany. (Pic: The Wire)
भारत अपना नेतृत्व खुद करे!
नेहरू ने संविधान सभा के दौरान अपने भाषण में कहा था कि भारत को अमेरिका और सोवियत संघ दोनों के साथ दोस्ती का व्यवहार रखना चाहिए.
नेहरू नहीं चाहते थे कि भारत किसी भी प्रकार से ‘मलाई मिलने के लालच में’ किसी एक महाशक्ति का अनुयायी मात्र बनकर रह जाए. उनका कहना था कि संबंध सभी के साथ तटस्थ रहें और भारत अपना नेतृत्व खुद करे.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया दो धड़ों में बंट चुकी थी, तब भारत एकमात्र ऐसा देश था, जिसके रिश्ते दोनों धड़ों के साथ सामंजस्यपूर्ण थे. भारत ने कभी किसी की तरफदारी नहीं की.
इस प्रकार सभी देशों के साथ भारत के अच्छे संबंधों की पैरवी ने उन्हें एक बेहतर नेता बना दिया था, लेकिन अमेरिका उन्हें इस रूप में पसंद नहीं करता था.
ब्रिटेन और अमेरिका के होते हुए एशिया में कोई नेता इस स्तर तक कैसे पहुंच सकता है.. वो भी बिना अमेरिकी अनुग्रह के, ये बात अमेरिकी नेताओं को पचने वाली नहीं थी.
ऐसे में सन 1953 को अमेरिका के एक रिपब्लिकन नेता ने नेहरू को एशियाई देशों के नुमाइंदे के तौर पर सिरे से खारिज कर दिया. उन्होंने नेहरू की बढ़ती लोकप्रियता को ठीक उसी तरह से अनदेखा कर दिया, जैसे शुतुरमुर्ग बढ़ते खतरे को देखकर अपनी गर्दन मिट्टी में धंसा लेता है…
जबकि प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी मीडिया नेहरू को वैश्विक नेता घोषित कर चुकी थी. वहीं, अमेरिकी मानते थे कि भारत से एक नेता उठकर वैश्विक नेता बन चुका है. अब अमेरिकी वर्चस्व पर खतरा है.
Jawaharlal Nehru’s Speech. (Pic: Wikifeed)
एशियाई देशों पर शक्तिशाली देशों की हुकूमत और नहीं…
नेहरू इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थे कि बड़े शक्तिशाली देशों ने एशियाई देशों को अपने प्यादे के तौर पर इस्तेमाल किया है, जैसा कि विश्व युद्ध में ब्रिटेन ने भारतीय सैनिकों को शामिल करके किया था.
पंडित नेहरू भारत की आजादी तक अंग्रेजों को इस बात का ऐहसास कराते रहे कि द्वितीय विश्व युद्ध में जिस जीत का वो दम भरते हैं, वो दरअसल भारतीय सैनिकों की वजह से उन्हें मिली है, जिसके लिए उन्हें भारत का ऐहसानमंद होना चाहिए. (वायसराय हाऊस मूवी से)
नेहरू ने मार्च 1947 को 28 देशों की मौजूदगी वाले एशियन रिलेशन कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा था कि “भारत की आजादी के साथ अब एशियाई देश दूसरे देशों के द्वारा प्यादों के तौर पर इस्तेमाल नहीं किए जा सकते.”
Jawaharlal Nehru with Lord Louis Mountbatten. (Pic: Quartz)
उन्होंने एशियाई सम्मेलन के इस मंच से अमेरिका और ब्रिटेन को साफ तौर पर ये संकेत दे दिए थे कि भारत एशिया की बड़ी शक्ति बनने वाला है, जो आगे एशिया को भी लीड करेगा.
Web Title: Relations of Pandit Jawaharlal Nehru with America and Britain, Hindi Article
Feature Image Credit: TopYaps/NewIndianExpress