50 के दशक की बात है. सर्दी का मौसम था. जर्मनी की नाजी सेना ने सोवियत संघ के शहर लेनिनग्राद की घेराबंदी कर ली थी.
घेराबंदी इतनी सख्त थी कि शहर से कोई शख्स बाहर नहीं निकल सकता था. न ही कोई बाहरी आदमी शहर में प्रवेश कर सकता था. यहां तक कि शहर तक एक सूई का भी पहुंचना नामुमकिन था.
शहर में प्रवेश का एक रास्ता था- झील. लेकिन, झील से गुजरना जल समाधि लेने जैसा था. फिर एक तरकीब निकाली गई और लाखों लोगों को मौत के मुंह से महफूज बाहर निकाल लाया गया. ये बातें सुनने में बेशक बहुत सामान्य लगती हैं, लेकिन जिस तरीके से लोगों को नई जिंदगी बख्शी गई थी, वह अपने आप में हैरंतगेज घटना थी!
कैसे आइए जानते हैं-
जब लेनिनग्राद पेट्रोग्राद हुआ करता था
लेनिनग्राद रूस के उस शहर के कई नामों में से एक है, जिसकी बुनियाद 300 साल पहले पड़ी थी.
पीटर महान जब युवा थे, तो वह पढ़ाई के सिलसिले में 1703 में रूस के पश्चिमी किनारे पर बाल्टिक समुद्र से सटे एक भूखंड में पहुंचे थे. उन्हीं के नाम पर उस भूखंड का नाम सेंट पीटर्सबर्ग रख दिया गया.
समुद्र के किनारे बसा यह शहर 1914 तक सेंट पीटर्सबर्ग के नाम ही जाना गया, लेकिन 1914 में इसका नाम बदल दिया गया.
वह पहले विश्व युद्ध का दौर था. कहते हैं कि रूसियों को लगता था कि सेंट पीटर्सबर्ग जर्मन नाम के करीब है, इसलिए उन्होंने ऐसा नाम रखने का सोचा, जिसे सुनकर लगे कि वह रूसी नाम है.
इसके लिए पीटर्सबर्ग के पीटर को ‘पेट्रो’ कर दिया गया और उसके बाद ‘ग्राद’ जोड़ दिया गया. चूंकि, रूसी शहरों के नाम के पीछे ‘ग्राद’ जोड़ना रवायत थी, इसलिए पेट्रो के बाद ‘ग्राद’ लगाकर ‘पेट्रोग्राद’ कर दिया गया.
शहर ने इस नाम को 10 वर्षों तक जिया. 1907 में जब रूसी क्रांति शुरू हुई, तो फिर एक बार शहर का नाम बदलना तय हुआ. रूसी क्रांति के बाद रूस से राजतंत्र का खात्मा हुआ और व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में 1922 में सोवियन संघ का गठन हुआ.
इसके दो साल बात यानी 1924 में लेनिन का निधन हो गया, लेनिन के निधन के बाद उनके सम्मान में पेट्रोग्राद का नाम बदलकर लेनिनग्राद कर दिया गया. 70 सालों तक सेंट पीटर्सबर्ग का नाम लेनिनग्राद रहा. फिर वह वक्त भी आया, जब कम्युनिस्ट शासन का पतन हुआ. कम्युनिस्ट शासन के पतन के बाद बहुत कुछ बदला और साथ ही बदला शहर का नाम भी.
1991 में लेनिनग्राद का नाम बदलकर सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया. 1924 में पेट्रोग्राद के लेनिनग्राद बनने और फिर 1991 में सेंट पीटर्सबर्ग बनने के बीच काफी कुछ हुआ था. हम उसी दौरान का किस्सा बता रहे हैं. इसलिए हमें जाना होगा 70 साल पीछे.
872 दिनों तक कैद में रहा शहर
साल 1939. ये केवल चार अंकों का नंबर नहीं है, बल्कि ये वो साल है जिसने आने वाली सदी के लिए पूरी दुनिया को बदल दिया था. यह साल था दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने का, जो 6 साल यानी 1945 तक चला.
विश्व युद्ध शुरू होने के दो साल बाद 8 सितंबर 1941 को हिटलर की नाजी सेना ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया और लेनिनग्राद को चारों तरफ से घेर लिया. सोवियत की कम्युनिस्ट सरकार ने 1917 में रेड आर्मी तैयार की थी.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान रेड आर्मी के 2 लाख जवान लेनिनग्राद में मौजूद थे. जर्मनी की नाजी सेना ने लेनिनग्राद को घेर तो लिया था, लेकिन उसकी पहुंच शहर की आबादी तक नहीं हो सकी, क्योंकि रेड आर्मी के जवान मोर्चे पर तैनात थे. ऐसी सूरत में नाजी सेना को यही तरकीब मुफीद लगी कि स्थायी तौर पर लेनिनग्राद की घेराबंदी को मजबूत रखा जाए.
नाजी सेना ने लेनिनग्राद तक जानेवाले हर रास्ते पर कड़ा पहरा लगा दिया, जिससे उसका संपर्क बाकी हिस्सों से पूरी तरह टूट गया. न कहीं से आमद और न कहीं रफ्त. लोगों के पास खाने-पीने का जो सामान था, वो धीरे-धीरे खत्म होने लगा. घरों में खाली बर्तनों की आवाजें बढ़ गईं. चूल्हे से धुआं निकलना कम होता गया.
लेनिनग्राद के लोगों ने 872 दिनों तक पहरेदारी में जीवन बिताया...
कुत्ते, बिल्लियों तक को लोगों ने मारकर खाया!
भूख आदमी को क्या से क्या बना देती है. इसकी सैकड़ों बानगियां तारीख के पन्नों में दफ्न हैं. लेनिनग्राद के इतिहास में भी एक ऐसी ही बानगी मिलती है. नाजी सेना की घेराबंदी के कुछ दिनों तक सबकुछ कमोबेश सामान्य रहा, लेकिन अक्टूबर के खत्म होते न होते लोगों के सामने भुखमरी की नौबत आ गई. मजबूरी ऐसी थी कि भूख मिटाने के लिए लोगों को कुत्ते, बिल्लियों को मारकर खाना पड़ा. कागज और चमड़े का सामान भी उनका निवाला बना.
रूस के लेखक डेनिल ग्रेनिन, जो उस वक्त लेनिनग्राद में थे, ने रोंगटे खड़े देनेवाले अनुभवों का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है, ‘एक बच्चे की मौत हो गई थी. उसकी उम्र महज 3 साल थी. बच्चे की मां ने उसकी लाश खिड़की पर टांग दी थी और उसमें हर रोज एक टुकड़ा काटकर वह अपनी दूसरी बच्ची को खिलाती थी, ताकि वह उसे जिंदा रख सके!’
इतिहासकार बताते हैं कि उस वक्त यह बहुत असामान्य नहीं था. अक्सर ऐसा देखा जाता था. प्रशासन ने इसके खिलाफ सख्त कदम उठाए और ऐसा करनेवालों को बिना किसी अपील के सजाएं देना शुरू कर दिया. तब जाकर हालात कुछ बदले.
हालांकि, उस नाजुक दौर में भी प्रशासन की तरफ से कई कदम उठाए गए, लेकिन एक शहर जो सब तरफ से कटा हुआ हो, जहां तक एक दाना नहीं पहुंचता हो, वहां प्रशासनिक प्रयास बहुत कारगर होगा, यह मानना अव्यावहारिक है.
इतिहासकार बताते हैं कि भुखमरी ने लेनिनग्राद के करीब 10 लाख लोगों को मौत की नींद सुला दी थी. भुखमरी के साथ ही बेइंतहा सर्दी भी लोगों की परेशानी का एक बड़ा सबब था और इस सर्दी से बचने के लिए लोगों ने किताबें और घरों के फर्नीचर तक जला दिए. इन तमाम तरह की दरपेश मुश्किलों से कैसे निबटा जाए.
यह एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि सवाल लाखों लोगों की जिंदगी का था. इससे निपटने का एक ही विकल्प था कि किसी तरह बाकी दुनिया से लेनिनग्राद का संपर्क कायम हो जाए, लेकिन यह आसान नहीं था.
लेकिन, इन मुश्किलों से निपटने की एक तरकीब आखिरकार निकाल ली गई.
...और बर्फ की सड़क बनी लाइफलाइन
जर्मनी की नाजी सेना ने चारों तरफ से लेनिनग्राद को घेर लिया था, लेकिन शहर से सटी लडोगा झील पर उनकी पहरेदारी नहीं थी. क्योंकि उस झील पर बर्फ की बेहद पतली चादर बिछी हुई थी.
सेवियत प्रशासन उस झील के जरिए खाने-पीने और रेड आर्मी के लिए असलहों का जखीरा लाना चाहता था, लेकिन यह जोखिम भरा काम था, क्योंकि भारी सामान लाने से बर्फ की चादर टूट सकती थी.
अलबत्ता, अगर झील पर कम से कम 8 इंच मोटी बर्फ की चादर बिछ जाती, यह संभव हो पाता और इत्तेफाक से 1941-42 की सर्दी में उस झील में 3 से 5 फीट मोटी बर्फ जम गई. फिर क्या था, सोवियत प्रशासन ने झील के दक्षिण इंटेल में बर्फ पर रोड बना दिया. 22 नवंबर 1941 को उस रास्ते 1500 टन खाद्यान की पहली खेप लेनिनग्राद पहुंची.
इसके बाद के महीनों में भी भारी मात्रा में भोजन सामग्री और सेना के लिए हथियारों की कई खेपें उतारी गईं. उसी रूट से करीब 13 लाख बच्चों और महिलाओं को भी सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाया गया.
सर्दी का मौसम जब खत्म हुआ और बर्फ पिघलने लगी, तो जलयान के जरिए जरूरी सामान की आमदरफ्त की गई. नवंबर 1941 से जनवरी 1944 तक यही रूट लेनिनग्राद की जीवनरेखा रहा. 27 जनवरी 1944 को लेनिनग्राद नाजी सेना की घेराबंदी से आजाद हुआ. लेनिनग्राद को जोड़नेवाले दूसरे रूट भी खुल गए. जनजीवन सामान्य पटरी पर लौट गया.
1990 में संयुक्त राष्ट्र ने इस रूट को विश्व धरोहर के दर्जे से नवाजा.
‘रोड ऑफ लाइफ’ नाम से मशहूर यह सड़क जिजीविषा की अनूठी मिसाल है.
Web Title: Road of life which saved millions of people of Leningrad, Hindi Article
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