प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था, साम्राज्यों पर शासन की होड़ थी. जर्मनी के साथ-साथ तुर्की भी युद्ध हार चुका था और तभी खिलाफत को समाप्त करने के लिए एक प्रस्ताव लाया गया.
चूंकि उस समय खलीफा मुस्लिमों का सबसे बड़ा नेता और प्रतिनिधि होता था, इसलिए इस प्रस्ताव का प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा.
प्रस्ताव ने भारतीय मुस्लिमों की भावनाओं को भी आहत किया, और खिलाफत आंदोलन की नींव रखी.
ब्रिटिश सरकार को जमकर कोसा गया, उसके खिलाफ लामबंदी की गई, उसी समय भारत भी अंग्रेजों से मुक्ति के लिए लड़ाई लड़ रहा था.
ऐसे में खलीफा को हटाने के लिए लाए गए इस प्रस्ताव का भारत के स्वतंत्रता आंदोलन पर किस तरह से प्रभाव पड़ा, उस समय भारत के दो बड़े नेता मोहम्मद अली जिन्ना और महात्मा गांधी ने किस तरह से इस आंदोलन में सहयोग किया..?
आइए इस लेख के माध्यम से जानने की कोशिश करते हैं –
उस्मानी खलीफा का 400 साल का शासन!
पैगम्बर मोहम्मद के बाद उनके उत्तराधिकारियों को मुस्लिमों का खलीफा माना गया.
खलीफा बनने की शुरूआत जून 632 ई. से हुई, तब पैगम्बर हजरत मोहम्मद के ससुर अबू बक्र पहले खलीफा बने, जो अपनी मौत तक इस पद पर आसीन रहे.
इनके बाद 3 वंश्ा के लगभग 18 खलीफा और बने, और फिर उस्मानी साम्राज्य से 1517 ई. में सलीम प्रथम खलीफा बने.
इनके बाद इसी वंश से लगभग 29 और खलीफा बने और अब्दुल मजीद द्वितीय आखिरी खलीफा थे.
उस्मान साम्राज्य के लगभग 400 साल के शासनकाल में लगभग 30 खलीफा रहे, जिन्होंने पूरे विश्व के मुस्लिमों का नेतृत्व किया था.
Caliph Mehmed VI, Sultan of the Ottoman Empire. (Pic: Reddit)
‘अली बंधुओं’ की पहल पर विरोध की शुरूआत
हिन्दोस्तान के मुस्लिम ब्रिटेन सरकार के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे. वह इस बात से चिंतित थे कि खलीफा पद को समाप्त कर उनके धार्मिक नेता और गुरु को हटा दिया जाएगा.
सन 1919 में ऑक्सफोर्ड से पढ़े मुस्लिम पत्रकार मौलाना मोहम्मद अली जौहर अपने भाई मौलाना शौकत अली, मौलाना आजाद, अजमल खान व हसरत मोहानी ने खिलाफत कमेटी का गठन किया.
इस प्रकार खिलाफत आंदोलन को सफल बनाने और देशव्यापी प्रदर्शन के लिए व्यापक तौर पर लोगों को जोड़ा गया.
इसके विरोध में 17 अक्टूबर 1919 को खिलाफत दिवस मनाया गया. अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया.
आंदोलन द्वारा अंग्रेजों के सामने खलीफा के प्रभुत्व को दोबारा स्थापित करने और खलीफा को ज्यादा भू-क्षेत्र देने की मांग रखी गई.
उन्होंने खलीफा की रक्षा के लिए 1920 में खिलाफत घोषणा पत्र का भी प्रकाशन किया.
Maulana Shaukat Ali (sitting) in a meeting. (Pic: Picssr)
गांधी जी ने क्यूं दिया समर्थन!
नवंबर 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन में अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग की गई. इसके साथ खिलाफत नेताओं ने कहा कि युद्ध के बाद तुर्की पर थोपी गई संधि शर्तों को जब तक सरल नहीं बनाया जाएगा, तब तक सरकार के साथ किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं किया जाएगा.
कांग्रेस लाचार थी, सभी तरफ से भारतीयों को अंग्रेजों द्वारा धोखे में रखा जा रहा था. कांग्रेस भी इससे वाकिफ थी. ऐसे में खिलाफत के रूप में एक बड़ा राजनीतिक आंदोलन हिंदू- मुस्लिमों को एक कर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का अच्छा मौका था.
गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को अपना समर्थन दे दिया और अपना केसर-ए-हिंद पदक अंग्रेजों को वापस कर दिया.
अब तक शांत रहने वाले गांधी जी भी भरे पड़े थे, और मौका मिलते ही उन्होंने अंग्रेजों को सुनाना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा कि “ब्रिटेन जलियांवाला नरसंहार पर खेद प्रकट करे और तुर्की के लिए अपने व्यवहार में नरमी लाए.”
इसी के साथ उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत को चेतावनी दी कि अगर उनकी मांगों को स्वीकार नहीं किया गया तो वह असहयोग आंदोलन शुरू कर देंगे.
हालांकि सरकार ने गांधी जी की किसी भी मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया.
और 1920 को सेब्रीज की संधि के साथ ही तुर्की का विभाजन हो गया. इस संधि के द्वारा खलीफा के साम्राज्य से कई छोटे हिस्सों को काटकर अलग कर दिया गया.
कांग्रेस की सहमति के बाद केंद्रीय खिलाफत समिति द्वारा गांधी जी के नेतृत्व में इलाहाबाद अधिवेशन में स्कूलों, कालेजों व कोर्ट के बहिष्कार का निर्णय लिया गया.
31 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन की शुरुआत हो गई.
गांधी जी के आह्वान पर हजारों हिंदुओं ने खिलाफत आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, साथ ही असहयोग आंदोलन को मुस्लिमों ने भी अपना समर्थन दिया. 1920 के मध्य तक खिलाफत आंदोलन में गांधी के समर्थन के बदले खिलाफत नेता असहयोग आंदोलन के साथ जुड़ गए. इससे ब्रिटिश शासन के खिलाफ हिंदू-मुस्लिमों का एकजुट मोर्चा तैयार हो गया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती मिली.
Mahatma Gandhi. (Pic: ASU)
जिन्ना का सहयोग से इंकार
हालांकि अभी भी मुस्लिमों के बड़े पैरोकार और प्रसिद्ध वकील मोहम्मद अली जिन्ना की स्थिति डामाडोल थी. वह ये तय नहीं कर पा रहे थे कि आखिर उन्हें किसका साथ देना चाहिए!
खिलाफत आंदोलन को जिन्ना किसी भी तरह से राजनीतिक मुद्दा नहीं मानते थे. हालांकि उन्होंने इस मसले में दिलचस्पी जरूर ली. लेकिन उन्होंने इसका साथ देने से मना कर दिया. वह नहीं चाहते थे कि धर्म के मामले से राजनीति को जोड़ा जाए.
अपने इस रवैये के कारण जिन्ना किनारे लगा दिए गए और गांधी व अली बंधुओं का नाम गूंजने लगा.
खिलाफत आंदोलन में अलीगढ़ की भी भूमिका रही है. सन 1920 में महात्मा गांधी मोहम्मद अली और अन्य सहयोगियों के साथ अलीगढ़ में रुके और खिलाफत आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए योजना बनाई.
इस दौरान अलीगढ़ के तमाम मुस्लिम नेता और प्रबुद्ध लोगों ने आंदोलन को अपना समर्थन दिया और गांधी जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे.
Mohammad Ali Jinnah. (Pic: Dawn)
…और गिरफ्तारी के साथ खात्मा
अब खिलाफत का मंच बनकर तैयार हो चुका था.
तुर्की खलीफा को हटाने की शाजिश रचने के खिलाफ मुसलमान अंग्रेजों को बगावत की धमकी दे चुके थे. अपार जन समूह ब्रिटेन को चुनौती दे रहा था, भीड़ बहुत ही, उसमें गुस्सा उबाले मार रहा था.
और अली बंधुओं ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया, अंग्रेज भी मौके की तलाश में बैठे थे.
सितंबर 1921 में देशद्रोह के आरोप में दोनों को गिरफ्तार कर कराची जेल भेज दिया गया, और अली बंधुओं की इस गिरफ्तारी के साथ ही खिलाफत आंदोलन भी समाप्त हो गया.
Maulana Mohammad Ali and Maulana Shaukat Ali. (Pic: Medium)
खलीफा पद की समाप्ति
अब्दुल मजीद द्वितीय को खलीफा पद से हटा कर इस्तांबुल से निष्कासित कर दिया गया.
सेना के एक अधिकारी रहे तुर्की गणराज्य के संस्थापक, क्रांतिकारी और तुर्की के पहले राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल अतातुर्क की पहल पर तुर्की की नेशनल असेंबली द्वारा 3 मार्च, 1924 ई. को ऑटोमन या कहें उस्मानी साम्राज्य में लगभग 1300 साल पुराने खलीफा पद को समाप्त कर दिया गया.
Last Caliph and Sultan of the Ottoman Empire Abdulmejid Effendi. (Pic: Pinterest)
इस तरह ऑटोमन सम्राट की शक्तियों को नेशनल असेंबली में स्थानांतरित करने के साथ ही तुर्की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित हो गया.
Web Title: Role of Mahatma Gandhi and Muhammad Ali Jinnah in Khilafat Movement, Hindi Article