इतिहास की किताबों में जंग-ए-आजादी के पहले गदर का जिक्र आता है, तो 1857 के सैनिक विद्रोह की ही चर्चा होती है.
1857 में ब्रिटिश फौज का हिस्सा रहे भारतीय सैनिकों ने विद्रोह का बिगुल फूंका था, जो जल्द ही आजादी की लड़ाई में तब्दील हो गया था. हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ इलाकों में लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया और उनके जेहन में खौफ भर दिया.
लेकिन, बहुत कम लोगों को मालूम है कि 1857 से पहले भी एक जंग-ए-आजादी हुई थी. यह लड़ाई न तो हथियारबंद नौजवानों ने लड़ी थी और न ही जिंदा रहने के लिए रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करनेवाले आम लोगों ने.
बल्कि, यह लड़ाई लड़ी थी फकीरों और संन्यासियों ने!
इन फकीरों में एक बेहद मकबूल नाम था-मजनू शाह फकीर का.
दुनियावी जरूरतों को ठोकर मारकर फक्करों की जिंदगी जीनेवाले संन्यासी-फकीरों ने आखिर क्यों हथियार उठा लिया था, आईये जानने की कोशिश करते हैं–
भारत में ब्रिटिश हुकूमत का शुरुआती दौर
1660 में इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन हुआ और कंपनी ने भारत के दक्षिण छोर पर बसे मछलीपटनम में अपनी पहली फैक्टरी खोली. इसके बाद एक के बाद एक कई जगहों पर फैक्टरियां स्थापित करने की अनुमति मिलती गई.
इस तरह कंपनी का विस्तार होता गया.
उधर, देश में राज कर रहे राजाओं की शक्तियां कमजोर हो रही थीं. दूसरी तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी न केवल खुद को आर्थिक रूप से मजबूत बना रही थी, बल्कि सैन्य ताकतें भी बटोरने में लगी हुई थी.
1757 में पलासी के युद्ध में कंपनी की जीत और फिर 1764 में बक्स युद्ध में विजयी ने ब्रिटिश हुकूमत में नया जोश भर दिया.
दक्षिण से शुरू हुआ वर्चस्व पूरब और उत्तर में भी मजबूत हो गया. बंगाल, बिहार, ओडिशा आदि प्रदेश उसके अधीन हो गए.
कहते हैं कि अकूत शक्ति तानाशाही को जन्म देती है. अंग्रेजों के साथ भी ऐसा ही हुआ.
अव्वल तो आर्थिक तौर पर मजबूत देश और उस पर बेलगाम शासन...क्रूरता आनी लाजमी थी.
ज्यों-ज्यों हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों का दबदबा बढ़ता गया, त्यों-त्यों ब्रिटिश हुकूमत की तानाशाही नये सोपान चढ़ने लगी.
मुगलों के हाथों से जब सत्ता अंग्रेजों के पास गई, तो जाहिरी तौर पर किसानों व जमींदारों से वसूले जानेवाले टैक्स का हकदार भी अंग्रेज हो गए. किन्तु, दोनों की टैक्स वसूली का तरीका अलग था.
जो कोई टैक्स नहीं दे पाता, तो मुगल शासक के कारिंदे उसके नाम पर वो टैक्स चढ़ा देते और बाद में उससे वसूल लेते थे.
जबकि, अंग्रेजों ने मुगल शासन व्यवस्था को ठोकर मारते हुए टैक्स सिस्टम में ही बदलाव कर दिया. इसके तहत अगर कोई टैक्स देने में असमर्थ होता, तो अंग्रेज उसकी जमीन की बोली लगाकर बेच देते.
वारेन हेस्टिंग्स का ‘क्रूर’ फैसला
अगर हम भारत का इतिहास देखें, तो अध्यात्म इस मुल्क का रूह रहा है.
यहां तमाम संन्यासी-फकीर हुए. उनकी एक खासियत थी कि वे ‘रमता जोगी’ की तरह एक जगह से दूसरे जगह आते-जाते रहे.
17वीं और 18वीं शताब्दी में जब अंग्रेज यहां पैर जमा रहे थे, तो टैक्स की एक अलग ही प्रणाली अपनाई.
इससे आम लोगों में नाराजगी भले थी, लेकिन संन्यासी-फकीरों का भला इससे क्या वास्ता था! सो वे इससे विरत रहकर धर्म-अध्यात्म में ही तल्लीन रहा करते थे.
अंग्रेजों का भी उनसे कोई लेना-देना नहीं था.
हालांकि, आगे 1732 में वारेन हेस्टिंग्स भारत का पहला गवर्नर बनकर आए, तो चीजें बदलने लगीं.
17वीं शताब्दी के सातवें दशक में उन्होंने संन्यासी-फकीरों पर भी तरह-तरह की पाबंदी लगानी शुरू कर दी.
'मजनू शाह' के नेतृत्व में गुरिल्ला लड़ाई
मजनू शाह फकीर के बारे में बहुत अधिक जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि उनका जन्म 18वीं शताब्दी के एकदम शुरू में या फिर 17वीं शताब्दी के आखिर में हरियाणा के मेवात में हुआ था. वह मदारिया ऑर्डर के सूफी थे.
मजनूं शाह फकीर उस जत्थे का हिस्सा बन गए, जो अक्सर ही उत्तर बंगाल जाया करता था. यहां यह भी बता दें कि उत्तर भारत के संत-फकीरों का उत्तर बंगाल जाने की रवायत सैकड़ों साल पुरानी थी. इसकी वजह भी थी.
दरअसल, उत्तर बंगाल अध्यात्म के लिहाज से बहुत ही समृद्ध क्षेत्र था.
संन्यासी फकीर उन दिनों पैदल ही यात्रा किया करते थे. रास्ते में जमींदारों के आलीशान बंगले मिलते, तो वे अपनी झोली फैला देते. वहां से उन्हें काफी कुछ मिलता था. इस तरह वे रास्ते भर मांगते जाते थे और लोग खुले हाथ से उन्हें दान किया करते.
जिन जमींदारों से संन्यासियों फकीरों को दान मिला करता. उनसे अंग्रेज भरपूर टैक्स वसूलने लगे. यही नहीं संन्यासी-फकीरों पर भी उनकी तिरछी नजर पड़ने लगी.
ये 17वीं शताब्दी के छठवें दशक की बात है.
अंग्रेज न केवल संन्यासियों व फकीरों से टैक्स वसूलने लगे, बल्कि कई और तरीकों से उन्हें प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. अंग्रेज उन्हें लुटेरा मानने लगे थे. उन्हें उनके जत्थे में घूमना-फिरना भी उन्हें गंवारा नहीं था.
लिहाजा उन्होंने संतों के बंगाल में प्रवेश पर भी पाबंदी लगा दी.
इश्क-हकीकी के पैरोकार इन संतों को यह पाबंदी नगवार गुजरी और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबंद लड़ाई शुरू कर दी.
मजनू शाह ने इसके लिए संन्यासी-फकीरों को एकजुट करना शुरू कर दिया. संन्यासियों का जत्था भवानी पाठक व देवी चौधराइन के नेतृत्व में उनके साथ आ गया. हथियार से लैस फकीरों व संन्यासियों ने अंग्रेजों पर गुरिल्ला वार किए.
उनकी फैक्टरियों पर हमले किए और कई सालों तक उनकी नाम में दम कर रखा.
अकाल ने तोड़ दी फकीरों की कमर!
मजनू शाह व दूसरे संन्यासियों के नेतृत्व में संत-फकीर कई सालों तक अंग्रेजों को नाकों चने चबवाते रहे.
लेकिन, एक प्राकृतिक आपदा ने उनके आंदोलन की धार को कुंद कर दिया. सन् 1770 में बंगाल में भयावह अकाल पड़ा. इस अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गई. खेती पूरी तरह बर्बाद हो चुकी थी और लोग कंगाल हो गए.
इसका असर संन्यासियों-फकीरों के आंदोलन पर भी पड़ा, क्योंकि उन्हें दान मिलना बंद हो गया था. इसके बावजूद अगले 5-6 सालों तक वे अंग्रेजों से लड़ते रहे.
1776 में बंगाल के मालदह में ब्रिटिश आर्मी के पैट्रिक रॉबर्टसन व उसकी फौज के साथ मजनू शाह के नेतृत्व में संन्यासी-फकीरों का सामना हुआ. इस मुठभेड़ में कई सैनिक मारे गए.
इधर, अंग्रेज इस आंदोलन को किसी भी कीमत पर दबाना चाहते थे.
उन्होंने हर वो इलाका जहां संन्यासी व फकीर हो सकते थे, अपने आदमी लगा दिए. यहां तक कि उन्होंने फकीरों व संन्यासियों के बारे में पुख्ता जानकारी देने वालों को 4 हजार रुपए ईनाम देने का भी एलान कर दिया.
कालेश्वर में जब हुआ घमासान
अकाल के बाद उनका आंदोलन पथरीली राह पर था. उस पर अंग्रेजों के तमाम पैंतरों ने आंदोलन को और भी कमजोर कर दिया. मुखबीरी के चलते कई फकीर व संन्यासी गिरफ्तार कर लिए गए.
1786 में 8 दिसंबर को मजनू शाह ने अपने बचे-खुचे संन्यासियों-फकीरों के साथ मायमनसिंह (अब बंगलादेश का हिस्सा) के कालेश्वर में अंग्रेजों के साथ लड़ाई की.
मजनू शाह इस लड़ाई में बुरी तरह जख्मी हो गए और माकनपुर में एक जमींदार के घर में पनाह ली.
युद्ध में खाए जख्म उनके लिए जानलेवा साबित हुए और अंततः 26 जनवरी 1787 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.
उनके बाद मूसा शाह और चिराग अली ने इस आंदोलन का चिराग कुछ वक्त तक जलाए रखा, लेकिन संन्यासियों-फकीरों की ये लड़ाई किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंच सकी.
अलबत्ता, गाहे-ब-गाहे विरोध के स्वर उठते-दबते रहे, मगर इससे अंग्रेजों की तानाशाही पर कोई फर्क नहीं पड़ा.
1882 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इसी संन्यासी-फकीर विद्रोह पर आधारित उपन्यास ‘आनंदमठ’ लिखा.
बाद में इस पर बाद में फिल्म भी बनी.
तो ये थे मजनू शाह फकीर व और अंग्रेजों के खिलाफ उनकी खिलाफत से जुड़े कुछ पहलू.
अगर आपके पास भी उनसे जुड़ी कोई जानकारी मौजूद है, तो नीचे दिए कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं.
Web Title: The secret of Radha's death, Hindi Article
Feature Image Credit: worldtopupdates