युवा सिराज की मृत देह जमीन पर पड़ी है. वो लड़ाई हार गया!
लड़ाई... क्या ये वाकई एक लड़ाई थी! क्या सचमुच सिराज को मारने वाले कभी गर्व से कह पाएंगे कि उन्होंने युद्ध के मैदान में सिराज को पटखनी दी थी!
शायद कभी नहीं!
यहां बात हो रही है सन् 1757 में प्लासी के मैदान में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और इस्ट ईंडिया कंपनी के कप्तान राबर्ट क्लाईव के बीच हुई लड़ाई की. लड़ाई, नहीं-नहीं , इसे विश्वासघात और निर्लज्जता कहना ज्यादा उपयुक्त होगा.
ये लड़ाई कभी लड़ी ही नहीं गई. अपनों की साजिश का शिकार हुआ था नवयुवक नवाब सिराज, जिसका दर्द आने वाले वर्षों में पूरे भारत को भुगतना था.
आखिर क्या है प्लासी के मैदान में हुई इस विश्वासघात की कहानी और कैसे लिखी गई इसकी पटकथा, आईए जानते हैं…
ढलते मुगल साम्राज्य के साथ शुरु हुई कहानी
कहानी की शुरूआत होती है, ढलते हुए मुगल साम्राज्य के बादशाह फर्रूखशियर के समय से. बादशाह ने अपने शासनकाल में मुर्शीद कुली खां को बंगाल को नवाब बनाया. महात्वाकांक्षी नवाब ने धीरे-धीरे यहां स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया.
हालांकि, ये नवाब को कर और सैनिक सहायता दिया करता था, सूबे के आंतरिक मामलों में इसका पूरी नियंत्रण था. यहां नवाब को एक समस्या का सामना करना पड़ रहा था.
दरअसल मुगल बादशाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में लगने वाले सीमा शुल्क से मुक्त कर दिया था, जिसका नाजायज फायदा कंपनी उठा रही थी.
आगे चलकर यही सीमा शुल्क बंगाल के तमाम नवाबों के लिए गले का कांटा बन गई और बंगाल की बर्बादी का कारण भी बनी.
खैर इसकी चर्चा बाद में. अभी लौटते हैं बंगाल के नवाबों पर...
बंगाल में शुरू हुआ नवाबों का स्वतंत्र शासन
बंगाल में कुछ लंबे समय तक मुर्शीद कुली खां का शासन रहा. इस समय कंपनी भारत में थोड़ी कमजोर थी, इसलिए इसे ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा. मुर्शीद कुली खां के बाद शुजाउद्दीन बंगाल का नवाब बना.
इसे भी बादशाह द्वारा अंग्रेजों को दी गई सीमा शुल्क में छूट के कारण राजस्व की हानि उठानी पड़ी और इसकी वजह से कंपनी और नवाब के बीच टकराव की स्थिति भी बनी रही.
शुजाउद्दीन के बाद बंगाल पर सरफराज खां का शासन स्थापित हुआ. सरफराज के बाद बंगाल की गद्दी पर बैठा अलीवर्दी खां. अलीवर्दी ने भी बंगाल पर स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन हमेशा टकराव की स्थिति बनी रही और उसका शासन हमेशा संघर्षों में ही रहा.
असली कहानी भी यहीं से शुरू होती है. यहीं से शुरूआत होती है उस पृष्ठभूमि की जिसने आखिरकार सिराज को युद्द के मैदान में असहाय कर दिया. यहीं से उपजा पारिवारिक विवाद एक दिन इतना बड़ा हो गया कि आखिरकार सिराज को हार झेलनी पड़ी.
पारिवारिक विवाद ने बनाया कमजोर
दरअसल, बंगाल के तत्कालीन नवाब अलीवर्दी खां की तीन बेटियां थीं. पहली थी घसीटी बेगम, जिसकी कोई संतान नहीं थी. इसे बिहार का सूबा मिला हुआ था. बाकि, दो बेटियों में से एक से शौकतजंग पैदा हुआ और दूसरे से सिराजुद्दौला. दोनों को एक सा बचपन मिला, और एक सी परवरिश भी.
आखिर हो भी क्यों ना. दोनों बंगाल के नवाबजादे जो थे. दोनों खेलते, घुड़सवारी करते और युद्दकला सिखते हुए बड़े हो रहे थे. लेकिन इनमें सिराज थोड़ा ज्यादा तेज-तर्रार था. वो महात्वाकांक्षी था और उसका व्यक्तित्व सहज ही सबका ध्यान अपनी ओर खींचता था.
उसके नाना अलीवर्दी खां को तो सिराज सबसे ज्यादा प्यारा था. उसमें उन्हें अपना उत्तराधिकारी दिखता था. यही बात आगे चलकर सिराज के लिए घातक साबित होने जा रही थी. उसके प्रति अलीवर्दी का प्यार देखकर शौकतजंग कुढ़ता था और सिराज के बदले खुद बंगाल की गद्दी पर आसीन होने का सपना देख रहा था. इसमें उसके साथ थी उसकी इर्ष्यालु मौसी घसीटी बेगम. घसीटी बेगम को सिराज फूटी आंख नहीं सुहाता था.
आखिरकार वही हुआ, जिसकी आशंका थी. अलीवर्दी खां ने सिराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. सिराज के नवाब बनते ही बंगाल का दरबार पारिवारिक षड्यंत्रों का अखाड़ा बन गया. शौकतजंग और घसीटी बेगम तो जैसे जलभून गए.
उन्होंने रोज नए-नए षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए. दरबार के इसी आंतरिक संघर्ष में एकदिन सिराज ने शौकतजंग की हत्या कर दी. उसे लगा कि उसकी सबसे प्रमुख प्रतिद्वंदी खत्म हो गया है. लेकिन क्या सिराज सही था. नहीं, कैसे इसका जवाब आगे मिलेगा.
जब अपने ही नहीं थे साथ, तो फिर भला...
सिराजुद्दौला का सेनापति था मीर-जाफर. ये नवाब का विश्वासपात्र होने का ढोंग तो करता था, लेकिन महात्वाकांक्षी था. वो हमेशा इस ताक में था कि कब उसे सिराज को गद्दी से हटाकर बंगाल का नवाब बनने का मौका मिलेगा.
इधर सिराज अपने सेनापति पर इतना भरोसा करता था कि कभी उसे समझ पाने की जरूरत ही नहीं समझी उसने.
1753 में सिराज के नवाब बनने के साथ ही उसके साथ विश्वासघात की पटकथा लिखी जाने लगी थी. पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि बंगाल में कंपनी सीमा शुल्क से मुक्त थी. इसका कंपनी जमकर मनमाना फायदा उठा रही थी. कुछ बोटियां वो अपने भारतीय सहयोगियों के उपर भी फेंक देती थी. ताकि, उनका सहयोग मिलता रहे. लेकिन उनकी इन हरकतों के कारण बंगाल के राजस्व को काफी नुक्सान हो रहा था.
सिराज भी कम महात्वाकांक्षी नहीं था. उसने कब से सपना देखा था कि एकदिन वो बंगाल में आजाद शासन करेगा. इसलिए आखिर कब तक वो कंपनी की कारगुजारियां सहता. सिराज ने सीमा शुल्क हटाया तो नहीं लेकिन उसने बंगाल के व्यापारियों के उपर से भी सीमा शुल्क हटा दिया. इसकी वजह से भारतीय व्यापारी एकबार फिर से बाजार में छा गए. इधर इस फैसले से कंपनी बौखला गई.
बंगाल व्यापार वाणिज्य के हिसाब से तो समृद्ध था ही, यहां की धरती भी बहुत उपजाउ थी. इसी वजह से बंगाल अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के वर्चस्व का मैदान भी बना हुआ था. अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों यहां किलेबंदी करना चाहते थे.
फ्रंसीसीयों को रोका गया, तो वे मान गए लेकिन अंग्रेज कहां सुनने वाले थे.
फिर अंतहीन वर्चस्व की जंग शुरू हो गई
कंपनी ने किलेबंदी कर दी. सिराज के लिए ये झटका था उसके स्वतंत्र शासन के सपने में. उसने किलेबंदी रोकने के लिए फौरन फोर्ट विलियम का घेरा डाला. इस दौरान करीब 149 अंग्रेजों को बंदी बना लिया गया. इन सबको एक बेहद तंग कमरे में बंद कर दिया गया, जिसकी वजह से अधिकांश लोगों की मौत हो गई. केवल 23 लोग ही बच पाए. इस घटना से अंग्रेज बौखला गए और प्रतिशोध की आग में जलने लगे.
एक बार फिर 1757 में राबर्ट क्लाईव और एडमिरल वॉटसन ने कोलकाता पर कब्जा किया. इस समय फरवरी में कंपनी और सिराज के बीच संधि हुई औऱ सिराज को कंपनी को किलेबंदी और सिक्के ढालने की अनुमति देनी पड़ी.
इन सबके बीच आखिरकार संघर्ष कि पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी. अंग्रेज जानते थे कि जब तक सिराजुद्दौला पर शासन कर रहा है यहां नियंत्रण पाना मुश्किल होगा. वे ये भी जानते थे कि सिराज को मैदान पर सीधी लड़ाई में हराना आसान नहीं होगा.
इसलिए अंग्रेज कैप्टन राबर्ट क्लाईव ने विश्वासघात की जमीन तैयार की. उसने लोगों को तलाशना शुरू किया जो कि उनके काम आए.
अंग्रेजों को मिल गई विश्वासघातियों की फौज
अंग्रजों को ऐसे कई लोग मिल गए, जो सिराज को नहीं चाहते थे. इनमें पहला नाम था, सिराज का मुख्य सेनापति, मीरजाफर, दूसरा था दुर्लभ राय. कलकत्ते का सेठ मानिक चंद, क्योंकि बंगाल पर सीमा शुल्क हटाने से इसे भी काफी नुक्सान हुआ था.
घसीटी बेगम भी इसमें छोटी सी भूमिका निभा रही थी. प्लासी के मैदान में जब कंपनी और सिराज की सेना आमने-सामने थी तो सिराज के खेमें में मीरजाफर, राय दुर्लभ, लतीफ खां मीर मदान और मोहन लाल खड़े थे. थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू हो गया.
लेकिन ये क्या? मीर जाफर तो चुपचाप खड़ा है, युद्ध भूमि में उतर ही नहीं रहा. और राय दुर्लभ भी चुपचाप मूकदर्शक बन गया है. केवल लतीफ खां , मीर मदान और मोहन लाल दुश्मनों से उलझे हैं. सिराज समझ गया कि वो धोखा खा चुका है.
उसके अपनों ने उसके साथ इतना बड़ा विश्वासघात किया, सिराज के लिए यकीन कर पाना मुश्किल था.
उसके कुछ विश्वस्त लोग उसे युद्ध भूमि से लेकर भागे , लेकिन वो पकड़ लिया गया और उसे गोली मार दी गई. युवा सिराजुद्दौला तो पहले ही मर चुका था, जब उसकी आधी से अधिक सेना चुपचाप खड़ी उसकी हार का तमाशा देख रही थी.
इस तरह बंगाल का युवा नवाब जो योद्दा था, पर बिना लड़े ही अपनों के हाथों हार गया!
Web Title: Sirazuddaula: Who Was Cheated By Chief of Army Mirzafar, Hindi Article
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