आपने भारतीय इतिहास में दर्ज राजा-महाराजाओं की शौर्यता से जुड़ी कई कहानियां सुनी होगी.
इनसे आपने जाना होगा कैसे रणभूमि में उनकी तलवार अपने दुश्मनों का रक्तपान करती थी. राजा-महाराजा ही क्यों, सेनानायक समेत आम सैनिकों के किस्से भी खासे मशहूर हैं.
बाजीराव पेशवा के सेनानायक रहे तात्या टोपे की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. कहते हैं वह महज 4 साल के रहे थे, जब उन्होंने अंग्रेजों की बर्बरता को अपनी आंखों से देखा. बाद में जब वह बड़े हुए तो अंग्रेजों के लिए वह काल बन गए.
उन्होंने उनकी नाक में कुछ इस तरह दम कर दिया था कि अंग्रेज किसी भी कीमत पर उन्हें रास्ता से हटाना चाहते थे.
चूंकि, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया और और युवाओं की प्रेरणा का स्रोत बने, इसलिए ऐसे महान सेनानायक को जानना आवश्यक हो जाता है–
शौर्यता की कहानियां सुनकर बड़े हुए
कम ही लोग जानते होंगे कि 1814 में महाराष्ट्र की धरती पर जन्म लेने वाले तात्या टोपे का वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर’ था. उनके पिता पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय के अधीन काम करते थे. चूंकि पिता पाण्डुरंग कार्यकुशल और प्रतिभा के धनी थे, इसलिए बाजीराव की उन पर विशेष कृपा थी. इसके आधार पर कहा जाता है कि तात्या का बचपन अच्छा रहा. वह पेशवा शासकों की शौर्यता की कहानियां सुनकर बड़े हुए.
इसी बीच वह महज चार साल के होंगे, जब 1818 के आस-पास बसई के युद्ध में उनके पिता के मालिक पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों के हाथों हार का सामना करना पड़ा. हार कितनी बड़ी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पेशवा को अपना साम्राज्य छोड़कर कानपुर के निकट बिठूर की ओर पलायन करना पड़ा था.
तात्या के पिता भले ही पेशवा के कर्मचारी थे, लेकिन तात्या को इसका एहसास कभी नहीं हुआ. वह पूरी तरह से पेशवा के परिवार के साथ घुल-मिल गए थे. यहां तक कि पेशवा के पुत्र नाना साहब के करीबी दोस्तों में उनकी गिनती होने लगी थी. इस सबके बीच कब तात्या बड़े हो गए उन्हेंं पता ही नहीं चला. इसी क्रम में 1851 ई. में बाजीराव पेशवा मृत्यु को प्यारे हो गए तो नाना साहब उनकी जगह बिठूर के राजा बने.
ऐसे में तात्या उनके दाहिना हाथ बने.
उधर दूसरी तरफ अंग्रेजों के पैर बढ़ते जा रहे थे. इसी बीच पेशवा के पास बड़ी चुनौती थी कि वह उनके प्रभाव को कम करते हुए अपने साम्राज्य को दोबारा से प्राप्त कर सकें.
Tatya Tope (Pic: snapdeal)
भारत के ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ में भूमिका
बहरहाल, 1857 आते-आते अंग्रेजों के खिलाफ ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ की पृष्ठिभूमि बन चुकी थी. इसी कड़ी में उनके खिलाफ 5 जनू 1857 को कानपुर में विद्रोह की चिंगारी उठी, तो तात्या पेशवा के बेटे नाना साहिब के साथ न सिर्फ मजबूती से खड़े हुए बल्कि, अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया. गजब की बात तो यह थी कि इससे पहले तात्या सिर्फ नाना साहब के साथी भर थे, किन्तु इस स्वतंत्रता संग्राम में कूदते ही वह पेशवा के सेनापति बन गए थे.
नतीजा यह रहा कि 25 जून 1857 में अंग्रेजों को उनके सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा. हालांकि, यह अंग्रेजों की चाल भर थी. वह जानते थे कि नाना साहब एक दयालु शासक थे. ऐसे में उनके सामने झुकना उनके हित में था. इससे उनका नुक्सान कम हुआ और बाद में पलटवार करने का मौका भी मिल गया.
बाद में उन्होंने ऐसा ही किया और उन पर हमला कर दिया, पर वह नहीं जानते थे कि तात्या इसके लिए पहले से ही तैयार थे. उन्होंने उनके मंसूबों पर पानी फेरने के लिए गोरिल्ला युद्ध प्रणाली का प्रयोग किया और उन्हें अपनी ताकत का लोहा मनवाया.
हालांकि, इस बीच तात्या को कई बार हार का सामना भी करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और हर बार अंग्रेजों के लिए चुनौती बनकर खड़े होते रहे.
Indian Commander For Freedom (Pic : conthroughhistory)
लक्ष्मी बाई के साथ ब्रिटिश शासन को पराजित किया
इसी कड़ी में 22 मार्च 1858 में जब सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला, तो लगा कि वह आसानी से झांसी पर कब्जा कर लेगा. ऐसे समय में तात्या रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए पहुँच गए. हालांकि, अंग्रेज सेना लक्ष्मीबाई समेत उनकी सेना की घेराबंदी करने में कामयाब हो चुकी थी.
बस वह मजबूत स्थिति में इसलिए नहीं थी, क्योंकि तात्या, लक्ष्मीबाई और सेना समेत किले के अंदर थे, जिसके अंदर पहुंचना अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था. असल में किला बहुत मजबूत जो था. खैर, समस्या यह थी कि तात्या कब तक सेना के साथ अंदर रहते. उन्हें बाहर तो आना ही पड़ता.
तात्या ने इस बात को समझा और अपने पुराने युद्धों के आधार पर खास किस्म की रणनीति बनाई. इसके तहत उन्होंने किले के अंदर मौजूद सभी स्त्री-पुरुषों को इकट्ठा किया और अंग्रेजों का सामना करने के लिए प्रेरित किया. इससे सेना के रूप में उनके पास एक अच्छी संख्या थी. अब वह अंग्रेजों का सामना कर सकते थे.
जल्द ही वह पूरे उत्साह के साथ अंग्रेजों से भिड़ गए. कहते हैं कि करीब दो सप्ताह तक दोनों सेनाओं के बीच यह युद्ध चलता रहा. शुरुआत में सब कुछ उनके हित में था, किन्तु अचानक अंग्रेज उनकी सेना पर हावी हो गए. यह देखते हुए तात्या ने रानी लक्ष्मी के साथ मिलकर रणनीति बदलते हुए वार किया और अंतत: इसमें रानी लक्ष्मीबाई की जीत हुई.
हालांकि, बाद में एक दूसरे युद्ध में ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना से युद्ध करते हुए रानी लक्ष्मीबाई 17 जून, 1858 को वीरगति को प्राप्त हुईं. अग्रेजों ने इसका फायदा उठाया और उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद ही ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया.
कैसे हुई ‘मौत’
लक्ष्मी बाई की मौत ने तात्या को पूरा तरह तोड़ दिया, किन्तु योद्धा होने के नाते उन्होंने शोक न मनाते हुए, अंग्रेजों के खिलाफ अपना मोर्चा खोले रखा. अपने अभियानों के माध्यम से उन्होंने उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात आदि में अंग्रेज़ों को कड़ी टक्कर दी और उन्हें बुरी तरह परेशान कर दिया. कहते हैं कि उनकी गोरिल्ला युद्ध-प्रणाली का अंग्रेजों के पास कोई तोड़ नहीं था. अंत में उन्होंने उन्हें छल से पकड़ने की योजना बनाई.
इस योजना में नरवर के राजा मान सिंह ने उनका साथ दिया. उसने तात्या से विश्वासघात करते हुए उनकी जानकारी अंग्रेजों को दी, जिसकी चलते 8 अप्रैल, 1859 ई. को अंग्रेज सोते हुए उन्हें पकड़ने में कामयाब रहे. कहते हैं बाद में ब्रिटिश सरकार ने उन पर कई मुकदमे चलाए और उन्हें फांसी दे दी.
Indian Commander For Freedom (Representative Pic: britishbattles)
हालांकि, इस तथ्य को लेकर लोगों के अलग-अलग मत मिलते हैं. कुछ लोग इसे ठीक नहीं मानते. उनके अनुसार तात्या को फांसी पर नहीं लटकाया गया. वह अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए 1 जनवरी, 1859 को शहीद हुए थे.
इस महान योद्धा के बारे में आप के पास अगर कोई ख़ास जानकारी हो तो हमसे अवश्य शेयर करें!
Web Title: Indian Commander For Freedom, Hindi Article
Featured Image Credit: pozadia