बहुमत सर्वोपरि है, उसके निर्णय के खिलाफ नहीं जाना चाहिए…
और जनसंघ के वरिष्ठ नेता प्रोफ़ेसर बलराज मधोक द्वारा बहुमत के खिलाफ जाने से मजबूरन उन्हें पार्टी से निकालने पर मुझे मजबूर होना पड़ रहा है.
कमोबेश ऐसे ही विचार भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता रहे लाल कृष्ण आडवाणी के मन मस्तिष्क में तब उमड़े होंगे, जब उन्होंने जनसंघ के प्रमुख नेताओं में शामिल रहे प्रो. बलराज मधोक को पार्टी से बाहर करने का निर्णय लिया था.
बलराज मधोक एपिसोड
बात फरवरी, 1973 की है. तब कानपुर में जनसंघ की नेशनल एक्जीक्यूटिव के सामने एक नोट पेश किया गया था. कथित तौर पर उस नोट में बलराज मधोक ने देश की इकॉनमी और बैंकों के नेशनलाइजेशन पर जनसंघ, आरएसएस की आइडियोलॉजी के विपरीत बातें कह डाली थीं. बात यहीं तक नहीं थी, बल्कि प्रो. मधोक ने जनसंघ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संगठन मंत्रियों की नियुक्ति का विरोध करते हुए कह डाला था कि जनसंघ पर आरएसएस का असर बढ़ता जा रहा है.
Advani with Balraj Madhok (Pic: getty)
आज के इस मोदी युग में भी संघ के बारे में ऐसा खुला विचार रखने का साहस किसी के पास अब तक नहीं देखा गया है, तब की तो बात ही कुछ और थी!
बलराज मधोक का हश्र जो हुआ, वह निश्चित ही था…
किन्तु, इसके निमित्त बने आडवाणी और आगे आकर उन्होंने इस फैसले को लिया भी.
आडवाणी जिन्ना प्रकरण
1973 के बाद अब आइये 2005 में.
4 जून 2005, जब पाकिस्तान की अपनी यात्रा में लाल कृष्ण आडवाणी ने मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्युलर, यानी धर्मनिरपेक्ष होने का तमगा दे डाला था. संभवतः भाजपा के भीष्म पितामह कहे जाने वाले आडवाणी ने भारत का पीएम बनने के लिए अपनी तरफ से यह ‘मास्टरस्ट्रोक’ चला था.
चूंकि, उनकी तत्कालीन छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की थी और भारत जैसे देश में स्वीकार्य होने के लिए उन्हें सेक्युलर होने का तमगा पहनना आवश्यक लगा हो.
अपने इस उद्गार के लिए उन्होंने बेशक जिन्ना द्वारा संविधान सभा में दिए गए भाषण का सन्दर्भ भी लिया, किन्तु वह यह भूल गए थे कि यह वही जिन्ना थे, जिनके कारण देश बंटा और संभवतः विश्व का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ.
लाखों लोग बंटवारे के उस दौर में असमय काल के गाल में समा गए थे.
खैर, बात जब राजनीतिक हो रही है तो यूं समझ लीजिये कि आडवाणी बहुमत के उस सिद्धांत को भी भूल गए थे, जिसका इस लेख की शुरुआत में ज़िक्र हुआ है.
Lal Krishna Advani with Narendra Modi (Pic: news18)
वह प्रोफ़ेसर मधोक की ही तरह भाजपा, खासकर संघ की इच्छा के विरुद्ध उस नोट को पढ़ने का दुस्साहस कर चुके थे, वह भी पाकिस्तानी सरजमीं पर.
नतीजा इसका भी निश्चित था और हुआ भी वही…
पार्टी अध्यक्ष पद से आडवाणी को जबरन हटा दिया गया.
पार्टी पर मजबूत पकड़ की दास्ताँ
ऊँगली पर गिन लीजिये.
1973 के आसपास से जिन्ना प्रकरण, यानी 2005 तक लाल कृष्ण आडवाणी का पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी पर एक तरह से वर्चस्व ही था.
मनुष्य के शरीर में 206 हड्डियां होती हैं.
किस हड्डी का क्या प्रयोग है, यह एक कुशल डॉक्टर बखूबी जानता है. ऐसे ही, कौन सी नस दबाने पर मानव शरीर में क्या असर होगा, इसका ज्ञान भी एक डॉक्टर को होता ही है.
BJP’s National Executive Meeting in Goa (Pic: indiatoday)
ठीक वैसे ही 4 दशक से भी अधिक के एकछत्र वर्चस्व के बाद… 2005 में जिन्ना प्रकरण के उल्टा असर करने के बावजूद पार्टी में आडवाणी की पकड़ कम नहीं हुई थी. हालाँकि, उन्हें अध्यक्ष पद से हटाकर राजनाथ सिंह को भाजपा की कमान ज़रूर दे दी गयी थी.
लेकिन, यह रस्मी ही था.
राजनाथ सिंह ही नहीं, उस दौर के तमाम नेता आडवाणी की छाया में ही पले बढे थे. वह चाहे सुषमा स्वराज हों, वेंकैया नायडू हों या फिर नरेंद्र मोदी सहित तमाम राज्यों के छत्रप ही क्यों न हों!
अटल बिहारी बाजपेयी पहले ही रिटायर हो चुके थे.
कहा जा सकता है कि भाजपा संगठनात्मक रूप से जून 2013 तक एल. के. आडवाणी की छाया से बाहर नहीं निकल सकी थी.अब आप कहेंगे कि जून 2013 तक क्यों, तो उसी समय गोवा में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी, जिसमें नरेंद्र मोदी को इलेक्शन कैम्पेनिंग का चीफ बनाये जाने की घोषणा की गयी थी.
खैर, इस प्रकरण की बात आगे करेंगे…
उससे पहले 2009 के चुनाव की बात की जाए, जिसमें जिन्ना प्रकरण के बावजूद आडवाणी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. मार्च 2009 में ही संघ के चीफ बदले और मोहन भागवत इस संगठन के प्रमुख बनाये गए.
उन्होंने तब पीएम उम्मीदवार आडवाणी को देश का अगला प्रधानमंत्री बनने की बधाई भी दे डाली थी. यह तब था, जब उनसे पहले के सरसंघचालक के. सुदर्शन ने चार साल पहले ही आडवाणी और वाजपेयी को रिटायर होने की सलाह दी थी. वरिष्ठ पत्रकार और जाने माने एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी ने तब इसे अपने लेख में संघ का बदलना लिखा था.
जाहिर था कि आडवाणी की बाद के दिनों में भी पकड़ बेहद मजबूत थी.
…और आडवाणी ने दोहराई ‘गलती’
इस लेख के शुरूआती वाक्य में कहा गया है कि–
बहुमत सर्वोपरि है, उसके निर्णय के खिलाफ नहीं जाना चाहिए.
आडवाणी ने यह गलती दोबारा की.
Advani, Iron man of BJP with Narendra Modi and Dr. Manmohan Singh (Pic: firstpost)
वक्त था जून 2003 का और जगह थी गोवा.
पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में नरेंद्र मोदी के सर पर सेहरा बाँधने की एकराय बनती जा रही थी. इसी के साथ आडवाणी की नाराजगी की खबरें भी उतनी ही तेजी से चलीं.
गोवा जाने की फ्लाइट्स कैंसल हुई और आडवाणी गोवा नहीं गए. इधर दिल्ली, आडवाणी के आवास पर कुछ छुटभैयों ने संभवतः फुटेज पाने के लिए ‘नरेंद्र मोदी आर्मी‘ का बैनर बनवाकर आडवाणी मुर्दाबाद के नारे लगाए, जिससे मामला और बिगड़ता चला गया.
हालाँकि, भाजपा की ओर से सफाई दी जाती रही कि आडवाणी के खिलाफ नारे लगाने वाले लोग पार्टी से सम्बंधित नहीं थे, किन्तु सन्देश जा चुका था, और…
और, भाजपा के भीष्म पितामह का अवसान शुरू हो चुका था.
बाद के दिनों में भी आडवाणी द्वारा नरेंद्र मोदी को खुलकर आशीर्वाद देते नहीं देखा गया, जबकि राजनीतिक गलियारों में दोनों को गुरु-चेले का खिताब मिला हुआ था.
खैर, नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए और आडवाणी सहित कुछ और वरिष्ठ नेता मार्गदर्शक-मंडल में भेज दिए गए. इतने के बावजूद आडवाणी के साथ यही खबरें आती रहीं कि वह मोदी विरोधी वरिष्ठ नेताओं की अगुवाई कर रहे हैं, जिनमें यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे मोदी आलोचकों का नाम शामिल किया जा सकता है.
L K Advani with Atal Bihari Bajpayee and Dr. Murli Manohar Joshi (Pic: dayafterindia)
खुदा जाने, सच क्या है… मगर आडवाणी ने गरिमा बनाये रखी.
तब भी, जब राष्ट्रपति बनने की उनकी उम्मीद भी धूमिल हो गयी.
कहते हैं यह प्रकृति का नियम है. पेड़ से पुराने पत्ते झड़ते हैं, नए आते हैं.
संभवतः भाजपा के लौह-पुरुष के साथ भी यही हुआ.
आप क्या कहेंगे इस अनोखी-यात्रा पर?
Web Title: The Advani Story, BJP Leader in race of PM Position
Featured image credit: newsx