बात 1961 की है, जब पूरा विश्व शीत युद्ध के चपेट में था.
इसी वक्त अफ्रीका के कांगो में गृह युद्ध छिड़ा हुआ था. जिससे निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भरसक प्रयास किए लेकिन जब उसे सफलता हाथ नहीं लगी तो भारतीय सेना से मदद मांगी गई.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के एक आह्वान पर कांगो में शांति बहाल कराने के लिए मदद को हां कर दिया और अपने 3 हजार जांबाज सैनिक अफ्रीका भेज दिए.
यहां एक समय युद्ध के दौरान भारतीय सेना के मात्र 16 सैनिकों के सामने बेल्जियम के 100 से अधिक सैनिक थे.
भारतीय सैनिकों की कमान संभाल रहे थे एक युवा कैप्टन ने इन्हीं सैनिकों की मदद से बेल्जियम के 40 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. युद्ध में जीत मिली.
यह जांबाज युवा कैप्टन कोई और नहीं बल्कि सेना के सर्वोच्च सम्मान ‘परम वीर चक्र’ से सम्मानित 'कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया' थे. जिनके कारण पूरा देश गौरवान्वित महसूस करता है.
आइए इस लेख के माध्यम से कैप्टन गुरबचन सिंह की गौरवगाथा को जानते हैं –
गुलाम भारत में पैदाइश
1935 की बात है, देश अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था.
पूरे देश में जगह–जगह अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन जारी थे. इन्हीं सब के बीच 29 नवंबर 1935 को शंकरगढ़ के जनवल गांव के (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) मुंशी राम सालरिया की पत्नी धन देवी ने एक बच्चे को जन्म दिया.
यह बालक कोई और नहीं बल्कि ‘गुरबचन सिंह सालरिया’ ही थे.
बचपन से ही गुरबचन साहसी थे और इन्हें कबड्डी खेलने का बहुत शौक था. गुरबचन में एक खास बात थी कि वह अपने आत्मसम्मान के साथ बिल्कुल भी समझौता नहीं करते थे.
बेहद शांत स्वभाव वाले गुरबचन को एक बार एक लड़के ने परेशान करने की कोशिश की लेकिन आत्मसम्मान को लेकर सचेत रहने वाले गुरबचन भी कहां शांत रहने वाले थे!
सामने वाला लड़का कद काठी से मजबूत था, फिर भी गुरबचन सिंह ने ना आव देखा न ताव, उसे बॉक्सिंग के रिंग में मिलने की चुनौती दे दी.
तय समय पर मुकाबला शुरू हुआ.
सभी को यही लग रहा था कि गुरबचन सिंह हार जाएंगे, लेकिन रिंग के अंदर जिस मुस्तैदी के साथ गुरबचन सिंह ने उस लड़के पर मुक्कों की बरसात की, वह लड़का चारों खाने चित्त हो गया.
और अंत में जीत गुरबचन सिंह की हुई.
पिता से मिली फ़ौजी बनने की प्रेरणा
गुरबचन के पिता मुंशीराम सालरिया ब्रिटिश-इंडियन आर्मी की डोगरा स्क्वाड्रन, हडसन हाउस में नियुक्त थे.
गुरबचन सिंह को उनकी माता धन देवी बचपन में पिता के बहादुरी के किस्से सुनाती थीं.
गुरबचन पिता के बहादुरी के किस्से सुनते-सुनते ही बड़े हुए और फिर क्या, इस बहादुरी की छाप तो गुरबचन पर पड़नी ही थी, सो उन्होंने भी अपने पिता की तरह से फ़ौज में जाने का मन बना लिया.
गुरबचन सिंह फौज में जाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने लगे. उस समय गुरबचन सिंह की उम्र महज 11 वर्ष रही होगी, तभी उन्हें 1946 में बैंगलोर के ‘किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज’ में प्रवेश मिल गया.
15 अगस्त 1947 को देश अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद तो हो गया, लेकिन इसके दो टुकड़े हो चुके थे. बंटवारे के समय इनकी जन्मभूमि शंकरगढ़ भी पाकिस्तान में चला गया.
इन सब के बीच फ़ौजी बनने का सपना पाले गुरबचन सिंह ने पढ़ाई नहीं छोड़ा. और उसी किंग जॉर्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज की जालंधर शाखा में ट्रांसफर ले लिया.
मात्र 18 वर्ष की आयु में गुरबचन सिंह ने 1953 में एनडीए यानी नेशनल डिफेंस अकादमी की परीक्षा पास की और यहीं से स्नातक की पढ़ाई पूरी की.
फिर क्या गुरबचन सिंह का फौज में जाने का सपना 1957 में जाकर पूरा हो गया.
1957 की शुरुआत में गुरबचन सिंह 2/3 गोरखा राइफ़ल्स में बतौर कमांडिंग ऑफिसर शामिल हो गए और 1960 में 3/1 गोरखा राइफल्स में स्थानांतरित कर कैप्टन बना दिए गए.
कांगो शांति के लिए अफ्रीका भेजे गए
अब वह समय आ गया था, जिसके लिए कैप्टन गुरबचन सिंह का जन्म हुआ था.
वर्ष 1960 से पहले कांगो पर बेल्जियम का राज हुआ करता था. जब कांगों को बेल्जियम से आज़ादी मिली तो कांगो दो गुट में बंट गया और वहां गृह युद्ध जैसे हालात हो गए.
एक तबका कांगो के खनिज पदार्थों पर एकाधिकार चाहता था, जिस पर पश्चिमी जगत के कुछ देशों की भी नज़र थी.
इस समस्या से निपटने के लिए कांगो सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से मदद मांगी और संयुक्त राष्ट्र ने एक सैन्य टुकड़ी कांगो में भेज दी.
पश्चिमी जगत के व्यापारी और कांगो के अलगाववादी नेताओं को यह बिल्कुल रास नहीं आया.
समय के साथ कांगो के हालात और बिगड़ते गए. ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत से सैन्य मदद मांगी.
भारत ने कांगो में शांति और स्थिरता के लिए अपने 3000 सैनिक यूएन के झंडे तले भेज दिए. इन सैनिकों में कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया भी शामिल थे.
...और हुई दुश्मनों से मुठभेड़
संयुक्त राष्ट्र संघ कांगो में शांति बनाए रखने के लिए भरसक प्रयास कर रहा था, लेकिन दुश्मनों के नापाक मंसूबों की वजह से उसे अपनी कार्रवाई और तेज करनी पड़ी.
5 दिसंबर 1961 को दुश्मनों ने एयरपोर्ट और संयुक्त राष्ट्र के स्थानीय मुख्यालय की तरफ जाने वाले रास्ते एलिजाबेथ विले को चारों ओर से घेर लिया, जिसमें 100 से अधिक दुश्मन सैनिक दो बख्तरबंद वाहनों के साथ मुस्तैद थे.
इन दुश्मनों को हटाने के लिए 3/1 गोरखा राइफल्स के 16 सैनिकों की टीम को रवाना किया गया, जिसे लीड कर रहे थे कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया.
देखते ही देखते मुठभेड़ शुरू हो गई. दोनों तरफ से ताबड़तोड़ गोलियां चल रही थीं, मौका देखते ही गुरबचन सिंह ने रॉकेट लांच करने का आदेश दे दिया, जिसके वार से दुश्मनों के दोनों बख्तरबंद वाहन नष्ट हो गए और साथ ही उनके कई जवान घायल हो गए.
दुश्मन संख्या में अधिक थे, साथ ही वह स्वचालित हथियारों से भी लैस थे. एक बार को तो इन्हें रोक पाना मुश्किल लग रहा था, लेकिन कैप्टन गुरबचन सिंह ने दुश्मनों के 40 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.
कैप्टन के इस जज्बे और हिम्मत को देखकर दुश्मन दंग रह गए और मौका मिलते ही दुश्मन वहां से भाग खड़े हुए.
गोरखा राइफल्स इस लड़ाई को जीत चुकी थी, लेकिन दुश्मन की दो गोलियां कैप्टन गुरबचन सिंह के गले में जा लगीं.
मिला परम वीर चक्र सम्मान
गुरबचन सिंह ने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन अपनी जिंदगी के आगे उनकी एक न चली और मात्र 26 साल की छोटी सी उम्र में शहीद हो गए.
भारत के राष्ट्रपति ने 26 जनवरी 1962 को कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया को अदम्य साहस और शौर्य के लिए भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘परम वीर चक्र’ (मरणोपरांत) से सम्मानित किया.
और अंत में भारत के ऐसे वीर सपूतों को समर्पित जगदंबा प्रसाद मिश्र की दो लाइनें...
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
Web Title: The Brave Saga of Param Vir Captain Gurbachan Singh Salaria, Hindi Article
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