सूफी कवियों में एक बड़ा नाम अमीर खुसरो का भी है. जिन्हें सूफी कव्वाली का पिता भी कहा जाता है. किसी भी सूफी दरबार में अगर महफिले समां (कव्वाली) का आयोजन हो और उसमें जब तक इनके लिखे शेर नहीं पढ़े जाए, तो वह पूरी तरह से मुकम्मल नहीं होती है.
खुसरो ने लगभग हर प्रकार की कविता लिखी, जिसमें ग़ज़ल मसनवी, कता, रुबाई आदि शामिल हैं. इन्होंने भारतीय उप महाद्वीप में कला और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
खुसरो ने अपने कलाम में फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ हिंदी और हिन्दवी का प्रयोग किया. शायद यही वजह है कि इन्हें खड़ी बोली का जनक व पहला कवि माना जाता है. बॉलीवुड के कई महान संगीतकार भी इनके कलाम को अपनी गायकी में इस्तेमाल करते रहे हैं, फिर चाहे वो रफ़ी हो या राहत फ़तेह अली खान ही क्यूँ न हो.
बहरहाल, खुसरो दिल्ली सल्तनत के कई सुल्तानों के दरबार में एक कवि और विद्वान के रूप में भी शामिल रहे, लेकिन इन्होंने अपने को पूर्ण रूप से सूफी रंग में ढाल लिया था.
ऐसे में इस महान कवि अमीर खुसरो की जिंदगी से रूबरू होना हमारे लिए दिलचस्प होगा…
12 साल के थे, जब शुरू किया लिखना
अमीर खुसरो का जन्म 1253 में एटा, उत्तर प्रदेश के पटियाली कस्बे में हुआ था. इनका वास्तविक नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन था. इनके पिता अमीर सैफुद्दीन महमूद, चंगेज़ खान के शासन के दौरान तुर्किस्तान में ‘लाचिन’ नामक कबीले के सरदार थे, जो बाद में भारत आकर बस गए थे. इनके पिता भी सूफी विचारधारा से प्रभावित थे. भारत में लौटने के बाद पिता सुल्तान शमसुद्दीन इल्तुतमिश की अदालत में एक उच्च अधिकारी के पद पर नियुक्त थे.
पिता अपने बेटे को अच्छी तालीम देना चाहते थे, जिसके लिए इनको 4 साल की उम्र में एटा से दिल्ली ले लाये. उन्होंने खुसरो के लिए बेहतर तालीम व्यवस्था का इन्तज़ाम किया. वहीं इनकी मां नवाब इमादुल मुल्क की बेटी थीं.
खैर, जब इनकी उम्र 9 साल की हुई तो, बाप का साया सिर से उठ गया. अपने पिता की इंतेकाल (देहांत) के बाद खुसरो अपने नाना इमादुल मुल्क के पास रहे. आगे, खुसरो ने कला-साहित्य के साथ-साथ खगोल विज्ञान, दर्शन शास्त्र, धर्म, रहस्यवाद और इतिहास की शिक्षा हासिल की.
खुसरो का बचपना संगीत भरे माहौल में गुज़रा, जिसका असर इन पर हुआ और तब इन्होंने शायरी को अपना शौक बनाना चाहा. 12 साल की ही उम्र में इन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था. 20 साल की उम्र में मशहूर कवियों में इनका नाम शुमार हो गया था.
पहले इन्होंने फारसी, अरबी और उर्दू भाषाओ का प्रयोग किया, लेकिन कुछ समय बाद इन्होंने हिंदी और ब्रज भाषा जैसे कई बोलियों में महारत हासिल किया. फिर इन्होंने अपने कलाम में हिंदी के साथ उर्दू का मिश्रण करते हुए. हिन्दवी भाषा का इस्तेमाल बखूबी किया, जो इनको किसी दूसरे कवियों से अलग बनाता है.
खुसरो ने हजारों पुराने वाद्य यंत्र तबला को दोबारा जीवित किया था. इतिहासकारों की माने तो इन्होंने पखावज के दो टुकड़े करने के बाद नए तबले का अविष्कार किया था.
सूफी मत में विश्वास और इनका देश प्रेम!
अमीर खुसरो के पिता ने सिर्फ शाही अदालतों में एक ऊँचा मुकाम ही हासिल नहीं किया, बल्कि सूफी विचारधारा के साथ जुड़ते हुए मानवीय व्यवहारों का पालन भी किया. परिवार की सोहबत का साफ़ असर खुसरो की भी जिंदगी में देखने को मिलता है.
जब खुसरो की उम्र 8 साल थी, तो पिता ने इन्हें उस वक़्त के महान सूफी हज़रत निजामुद्दीन औलिया की बारगाह में ले गए. खुसरो के पिता और नाना दोनों हज़रत निजामुद्दीन के मुरीद (भक्त) थे. इन्होंने भी उनको अपना अध्यात्मिक गुरु माना और सूफी विचारधारा का पालन करने लगे.
आज भी सूफी-संतों के दरबार में पढ़ी जाने वाली कव्वाली में इनके कलाम को खूब पढ़ा जाता है. खुसूसी तौर पर कव्वाली के अंत में एक रंग पढ़ा जाता है, जो अमीर खुसरो का लिखा “आज रंग है री मा, रंग है री” है.
इसी के साथ ही “मन कुन्तो मौला,अली मौला” व “छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके” जैसे कई कलामों का इस्तेमाल किया जाता है, जो बहुत मशहूर भी हुए.
खुसरो ने अपने कलामों में बड़ी ख़ूबसूरती के साथ गंगा जमुनी तहजीब की झलकियाँ भी पेश की है. इसी के साथ ही इनके कलाम में देश प्रेम की भावना देखने को मिलती है. इन्होंने अपनी गजलों में भारत के रहन-सहन व उसकी संस्कृति के साथ ही भारतीय पक्षियों से प्रेम का भाव प्रकट किया है.
खुसरो ने भारतीय विवधताओं को जहन में रखते हुए अपने कलाम को बखूबी पेश किया. इनकी कविताओं का कोई भी सानी नहीं.
कई बादशाहों के दरबार की शान रहे!
खुसरो की कविताओं का नशा कई सुल्तानों को चढ़ा था, जिसकी वजह से कई सुल्तानों के दरबार की शोभा भी बने रहे.
इसमें सबसे पहला नाम बादशाह गयासुद्दीन बलबन का आता है. खुसरो ने इनके भतीजे और बेटों का भी आश्रय ग्रहण किया था. बलबन के बड़े बेटे सुल्तान मुहम्मद कला और साहित्य का मुरीद था, तो वो उसके साथ भी रहने लगे. जब मुहम्मद को मंगोलों से लड़ने मुल्तान जाना पड़ा था, तो ये भी उनके साथ गए.
इस युद्ध में सुल्तान की मौत हो गई थी, जबकी खुसरो को बंदी बना लिया गया था.
हालांकि वो किसी तरह मंगोलों के चंगुल से निकलने में कामयाब रहे. फिर दोबारा वापस दिल्ली आ गए और बलबन को युद्ध का सारा किस्सा सुनाया. जिसके बाद बलबन बीमार रहने लगा और उसकी मृत्यू हो गई. इसके बाद ये दूसरे दरबार में भी रहें, जहां इन्हें मुल्क-शोअरा (राष्ट्र कवि) का दर्जा दे दिया गया.
बहरहाल, इस दौरान दिल्ली की सत्ता जलालुद्दीन खिलजी के हाथों आ गई, तब ये जलालुद्दीन के दरबार का हिस्सा बने. जलालुद्दीन की हत्या करने के बाद जब दिल्ली की सल्तनत पर अलाउद्दीन काबिज हुआ तो उसने भी खुसरो को अपने दरबार में शामिल किया था.
आगे, जब गयासुद्दीन तुगलक ने खिलजी वंश की सत्ता उखाड़ फेंकी और वो दिल्ली का सुल्तान बना. तब तुगलक ने भी इन्हें अपने दरबार की शोभा बनाये रखने की विनती की. जिसके बाद खुसरो ने तुगलक वंश में भी अपनी कविताओं का जलवा बिखेरा.
इस कड़ी में दिलचस्प बात यह कि इन्होंने तीन वंशों के साथ 11 राजाओं के दरबार में शामिल हुए, परन्तु कभी भी इन बादशाहों के राजनीतिक षड्यंत्रों का हिस्सा नहीं बने. इनके व्यक्तित्व को देखते हुए सभी बादशाह ने इनका सम्मान भी किया. फिर भले ही क्यूँ न वह पिछले सुलतानों का दुश्मन या हत्यारा रहा हो. इससे इनके व्यक्तित्व और महानता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
इन्होंने हमेशा से सूफी विचारधाराओं का समर्थन किया और जनता के प्रति सहानुभूति भी दिखाई, जो निजामुद्दीन औलिया के छाया का असर था.
हज़रत निजामुद्दीन से रहा गहरा लगाव!
खुसरो जितने बड़े कवि थे उतने ही व्यक्तित्व के धनी भी. ऐसा होना भी स्वाभाविक था, क्योंकि इन्होंने हमेशा से ही अपने पीर हज़रत निजामुद्दीन की बातों का पालन किया था. जिन्होंने हमेशा एकता और भाईचारे पर प्रबल जोर दिया और गरीबों और यतीमों की मदद करने का पैगाम दिया करते थे.
यही वजह है कि अगर अमीर खुसरो की चर्चा होती हो, मगर इस चर्चा में पीर हज़रत निजामुद्दीन के साथ उनके रिश्ते की बात न हो. तब तक उनका ज़िक्र अधूरा है. ठीक इसी प्रकार से निजामुद्दीन साहब की सवान-ए-हयात (जीवनी) पर भी लागू होता है.
बहरहाल, बचपन से ही इनकी छांव में पले बढ़े और इनके व्यक्तित्व को बखूबी समझा, जिसके बाद खुसरो की मोहब्बत अपने पीर के लिए ऐसी थी, जैसे दो जिस्म एक जान.
इन्होंने अपने पीर की शान में कई कसीदे भी पढ़े, जो दिलचस्प है. अपने प्रिय के लिए पढ़ी गई कविताओं में इन्होंने जो प्रेम भाव प्रकट किया उसका कोई सानी नहीं है, इसीलिए खुसरो का अपने पीर के लिए लिखा, हर वो कलाम आज भी लोगों के बीच पसंद किया जाता है.
हज़रत निजामुद्दीन को भी खुसरो से बड़ा लगाव था, उन्होंने कहा था कि अगर मुझसे कोई मेरे सिर पर खंज़र रखकर खुसरो का साथ छोड़ने को कहे, तो मैं अपना सिर देना पसंद करूँगा, मगर खुसरो का साथ नहीं छोडूंगा.
जब दुनिया को कहा अलविदा
खैर, इनके प्रेम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, जब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल के युद्ध में गए हुए थे, तभी इनको अपने महबूब (हज़रत निजामुद्दीन औलिया) के मृत्यू की खबर प्राप्त होती है.
ऐसे में ये फ़ौरन वहां से दिल्ली के लिए रवाना होते हैं. दिल्ली लौटने पर उन्होंने अपना सब कुछ गरीबों में बाँट दिया. फिर अपने महबूब की कब्र पर काला कपड़ा पहनकर बैठ गए और उनकी याद में आंसू बहाने लगे. उस दौरान इन्होंने ये कलाम भी पढ़ा:
"गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस, चल ख़ुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस."
इसके बाद खुसरो अपने पीर के वियोग में दुखित रहने लगे और आखिरी लम्हों में वो सिर्फ अपने पीर के कब्रों पर ही रहने लगे. पीर की मृत्यू से 6 माह बाद 1325 में खुसरो ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया . फिर उनको पीर की वसीयत के अनुसार, हज़रत निजामुद्दीन के आस्ताने के पास ही खुसरो को भी सुपुर्दे खाक कर दिया गया.
इस दौरान इन्होंने कई रचनाएं की और अपने पीर के साथ मिलकर मानवता की भलाई और गंगा जमुनी तहज़ीब को बढ़ावा दिया, जो आज भी इनके मजारों पर देखने को मिलती है. दिल्ली में स्थित हज़रत निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की मजार पर हर धर्म के लोग अपनी आस्था के अनुसार दर्शन करने जाते हैं.
तो ये थी भारत के मशहूर कवि अमीर खुसरो की जिंदगी से जुड़ीं कुछ अहम बातें
Web Title: Juliana: The Great Sufi Poet Amir Khusro, Hindi Article
Featured Image Credit: eventshigh/thehindu