इतिहास गवाह रहा है कि भारत ने कभी किसी मुल्क पर हमला नहीं किया. न ही कोई विजय अभियान शुरू किया. हां, अपनी संस्कृति और अस्मिता को बचाने के लिए तलवार जरूर उठाई है. भारत के राजपूती इतिहास में पानीपत (1526) और खानवा युद्ध (1527) का नाम सबसे ऊपर है. यह वो लड़ाईयां थी, जिसमें लाखों सैनिकों के रक्त से धरती लाल हुई थी.
बहरहाल, इन जंगों के साथ ही इतिहास खत्म नहीं हुआ. भारत की धरती पर 1529 ई.में एक और युद्ध लड़ा गया, जिसे ‘घाघरा युद्ध के नाम से जाना जाता है. यह युद्ध भारत के शासकों नहीं बल्कि, अफगान शासकों और बाबर की बीच हुई थी.
उस दौर का यह एक अनोखा युद्ध था, जिसमें पहली बार सिपाहियों ने धरती के साथ-साथ बिहार में बहने वाली घाघरा नदी के पानी को भी लहू के रंग में रंग दिया था. वैसे तो इस युद्ध में बाबर का बाल भी बांका नहीं हुआ था, लेकिन जंग जीतने के बाद वह ऐसी गंभीर बीमारी का शिकार हुआ कि एक साल के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई.
इस लिहाज से इस युद्ध के बारे में जानना दिलचस्प हो जाता है-
बाबर की जीत से बेचैन थे अफगानी
भारत पर राज करने का सपना मुगलों से पहले अफगानियों ने देखा था. सुल्तान महमूद गजनवी पहला अफगान सुल्तान था, जिसने भारत पर आक्रमण किया. इसके बाद शाहबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने आक्रमण कर पहली बार मुस्लिम शासन की नींव डाली.
1200 ईसा. से 1526 तक दिल्ली के तख्त पर मुस्लिम और अफगान यानि पठान शासकों का राज रहा. मुस्लिम शासकों में से अधिकांश तुर्की थे. इस लिहाज से दिल्ली सल्तनत पर आखिरी बार लोदी राजवंश ने अफगान शासक के रूपी में शासन किया.
बाद में बाबर के आने के बाद हालात बदल गए. बाबर ने पानीपत की जंग में पठान शासन का अंत कर दिया. शेरशाह सूरी ने एक बार फिर अफगानियों को सत्ता दिलाने की कोशिश की, लेकिन बादशाह अकबर के आगे उनका बस नहीं चल सका. इस तरह दिल्ली का तख्त अफगानियों के हाथ से जो फिसला तो कभी वापिस नहीं आ सका.
यूं तो पानीपत के युद्ध के बाद अफगानियों के सत्ता में आने की कोई गुंजाइश नही थी, लेकिन दो पठान फर्मुली और नूहानी सरदार बाबर की सत्ता को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे.
पानीपत और खानवा की जंग के बाद उनके पास न तो सेना थी और न ही हथियार. ऐसे में अंदर ही अंदर केवल विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी. इस चिंगारी को हवा देने का काम बंगाल के शासक सुल्तान नुसरत शाह ने किया.
उनका पूरा सहयोग अफगानी विद्रोहियों को मिल रहा था. बंगाल शासक भी नहीं चाहते थे कि बाबर का विजय अभियान जारी रहे, लेकिन सीधे तौर पर वह उसका सामना करने के लिए तैयार नही थें. यही वजह थी कि वे विद्रोहियों के जरिए अपने मन को तृप्त करते रहे थे.
कहते हैं कि जब बाबर चंदेरी के विजय अभियान में व्यस्त था, तब अफगान विद्रोहियों ने अवध में कोहराम मचाना शुरू कर दिया. हालांकि, इससे बाबर की तैयारियों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन वह विद्रोह को दबा पाने में नाकाम था. इसका परिणाम यह हुआ कि अफगानियों ने कन्नौज और शमशाबाद पर अधिपत्य कर लिया.
अब वे आगरा को जीतने की योजना बना रहे थे. इस दौरान बाबर चंदेरी युद्ध में व्यस्त था. युद्ध खत्म होने के बार उसे अफगानियों के बढ़ते विद्रोह और आगरा पर अधिपत्य करने के प्रयास की जानकारी मिली.
वह जानता था कि यदि आगरा पर अफगानियों का राज हो गया, तो दिल्ली का तख्त पलट करने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. बाबर के पास विद्रोहियों को रोकने का अब केवल एक ही जरिया था. इस आग को हवा दे रहे हैं अपने विद्रोहियों से खुलकर लड़ाई करना.
Babur in War (Pic: Wikimedia)
विद्रोहियों को मात देने की तैयारी
बाबर ने इब्राहिम लोदी को दिल्ली के तख्त से उखाड़ फेंका था, लेकिन उसका भाई महमूद लोदी बाबर से हर हाल में बदला चाहता था. विद्रोहियों के बल पर उसने बिहार पर कब्जा कर लिया था. इस जंग में पूर्वी प्रदेशों के शासकों ने उसकी मदद की थी.
वहीं दूसरी ओर चंदेरी के बाद बाबर ने अवध की तरफ रूख किया. बाबर के आने की खबर अफगानियों को फिर मुश्किल में डाल रही थी. विद्रोहियों के मुखिया अफगान नेता बिब्बन ने अवध से निकलकर बंगाल में शरण ली. उसके भागने के बाद बाबर ने लखनऊ को जीत लिया.
वहीं दूसरी ओर अफगानियों ने बिहार के बाद बनारस और फिर चुनार तक पहुंच बना ली. इसके बाद बाबर ने लखनऊ से निकलकर बिहार का रूख किया. इसके पहले बाबर यह जान गया था कि बंगाल शासक नुसरत शाह महमूद लोदी की मदद कर रहा है, इसलिए बाबर ने बंगाल संदेश भिजवाया कि कोई भी अफगानियों की मदद न करे.
हालांकि, इस बात को मानने से बंगाल शासक ने इंकार कर दिया. प्रस्ताव ठुकराने की खबर मिलने के बाद बाबर के सामने अफगानियों के साथ बंगाल शासक भी दुश्मन के तौर पर खड़ा था. विद्रोहियों के दमन के लिए 1529 को बाबर ने पहला हमला बोला. जहां पर सेना और विद्रोहियों के बीच मुठभेड़ हुई, वह जगह बिहार की घाघरा नदी का किनारा था.
जंग में महमूद लोदी ने भी हिस्सा लिया था. उसे उम्मीद थी कि पानीपत और खनवा के बाद चंदेरी का युद्ध करते हुए अब बाबर की हिम्मत जवाब दे गई होगी और उसे हराना मुश्किल नहीं होगा. इसलिए वह बिना किसी बड़ी तैयारी के ही इस जंग में कूद गया.
वहीं अफगानियों की आंखों में बदले की आग तो थी, लेकिन उनकी सेना कमजोर थी. इस कारण अफगानियों ने अपनी जान बचाने के लिए घाघरा नदी में उतर जाना बेहतर समझा, लेकिन सेना ने वहां भी उनका पीछा नही छोड़ा. सैनिकों ने नाव पर युद्ध लड़ा और देखते ही देखते ‘घाघरा की जमीन और पानी’ दोनों सैनिकों के रक्त से लाल हो गए.
Ghagra River (Pic: Wikipedia)
बंगाल में छिप गया दुश्मन
आखिर 6 मई 1529 की सुबह अफगानियों पर बाबर की सेना का, जो कहर टूटा वह उससे उभर न सके. शाम होते-होते तक एक-एक अफगानी की लाश बिछा दी गई. महमूद को अपनी शिकस्त साफ दिखाई दे रही थी. वह मैदान छोड़कर कर एक बार फिर बंगाल में जा छिपा.
महमूद को उम्मीद थी कि बाबर बंगाल तक उसका पीछा नहीं कर सकता, लेकिन गुप्तचरों ने बाबर को बंगाल में महमूद के होने के खबर दे दी. बाबर ने एक बार फिर बंगाल शासक को संधि के लिए संदेश भिजवाया.
बंगाल शासन अब तक अफगानियों को बाबर के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे, लेकिन उनकी हार के बाद यह साफ था कि यदि बाबर ने बंगाल पर हमला किया तो राज्य बचाना मुश्किल है.
अतत: बंगाल शासक नुसरत शाह ने बाबर के संधि प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. इसके तहत तय किया गया कि बाबर बंगाल पर हमला नहीं करेगा और इसके बदले बंगाल बाबर के किसी भी दुश्मन को राज्य में पनाह नहीं देने देगा. इसके अलावा महमूद को बंगाल से बाहर न निकलने का वायदा भी लिया गया. इसके बदले उसे बंगाल में ही जागीर दे दी गई.
महमूद के बंगाल में जागीर लेने के बाद बाबर ने बिहार का रूख किया और तत्कालीन शासक जलालुद्दीन से राज्य के कुछ जिलों का बंटवारा कर लिया. इसके बदले में अफगानियों ने बाबर की अधीनता को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया.
शांति के साथ आखरी सांस
बाबर ने न तो बंगाल में विद्रोह किया, न ही बिहार में!
दोनों ही राज्यों में संधियां करके यह साफ कर दिया कि अब वह जंग नहीं चाहता. ‘घाघरा युद्ध’ बाबर द्वारा लड़ी गई आखिरी जंग मानी गई. 1529 में ‘घाघरा युद्ध’ खत्म करने के बाद बाबर सिंधु से बिहार, हिमालय से ग्वालियर और ग्वालियर से चंदेरी तक का शासक बन गया था.
लड़ाई खत्म करने और राज्य का विस्तार करने के कारण बाबर ने कभी भी ठीक से शासन नहीं किया. अब वह शांति से जीना चाहता था और उसने तय किया कि वह काबुल जाएगा.
Babur Army (Pic: Pinterest)
1529 के अंत तक वह काबुल जाने के लिए निकल पड़ा. लाहौर पहुंचने तक उसे हुमायूं के कहने पर वह वापिस आगरा आ गया. उसे खबर थी कि सत्ता पलटने के लिए कई लोग षणयंत्र रच रहे हैं, इसलिए 1530 को उसने हुमायूं को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया.
इस निर्णय के तीन दिन बाद यानि 26 दिसम्बर 1530 को बाबर ने आगरा में ही अंतिम सांस ली.
Web Title: The Historic Battle Ghaghra War, Hindi Article
Feature Image Credit: Erewise