“मेरा नाम ‘आज़ाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर का पता ‘जेलखाना” यह उत्तर था 14 साल के उस क्रांतिकारी का, जो कभी भी अंग्रेजों की गिरफ्त में नहीं आया.
सन 1920 की बात है, देश में चारों ओर अंग्रेजों के विरुद्ध जोरशोर से विद्रोह हो रहा था, जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे.
उसी समय महात्मा गांधी के द्वारा चलाये जा रहे असहयोग आंदोलन से एक क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिया गया, ‘जो आज़ाद था, आज़ाद है और युगों-युगों तक आज़ाद रहेगा.
जी हां, वह निर्भीक क्रांतिकारी कोई और नहीं बल्कि अंग्रेजों को धूल चटा देने वाले भारत के महान सपूत ‘चन्द्रशेखर आज़ाद‘ थे.
लेकिन यह जानना दिलचस्प हो जाता है कि कभी गांधीवादी विचारधारा रखने वाले चन्द्रशेखर आखिर कैसे क्रांतिकारी बन गए.
तो आइए जानते हैं चंद्रशेखर के आजाद बनने की कहानी –
गरीबी ने गुलामी कराई, लेकिन…
1857 के विद्रोह को 49 साल पूरे हो चुके थे. अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचार लगातार बढ़ते जा रहे थे.
इस समय तक मोहनदास करमचंद गांधी भी भारत नहीं आ पाए थे, उसी रोज 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ तहसील के भावरा गांव में पंडित सीताराम तिवारी के घर एक पुत्र का जन्म हुआ. नाम रखा गया ‘चन्द्रशेखर तिवारी’.
चन्द्रशेखर बचपन से ही घर में टिकने वाले नहीं रहे, वह ज्यादातर समय अपने दोस्तों के साथ जंगलों में घूमने-फिरने में गुज़ार देते थे. उन्हें कुश्ती और कसरत के साथ-साथ तीरंदाजी का जबरदस्त शौक था.
परिवार गरीब था, इसलिए उन्होंने रोजी-रोटी के लिए तहसीलदार के यहां सेवक की नौकरी भी की, और निशाना अचूक था, इसलिए वह भूख मिटाने के लिए जंगलों में शिकार भी कर लिया करते थे.
चन्द्रशेखर ने तहसीलदार के नौकरी तो कर ली थी लेकिन वे खुले विचारों के आजाद पंछी थे. उन्हें किसी की गुलामी पसंद नहीं थी.
हालांकि उनके ऊपर इस नौकरी को करते रहने का पारिवारिक दबाव जरूर था, लेकिन वह मानने वालों में से कहां थे. पिता जी से मनमुटाव हुआ तो नौकरी छोड़कर बनारस की ओर निकल पड़े.
बनारस में चन्द्रशेखर के फूफा जी पंडित शिवविनायक मिश्र रहते थे, उन्होंने इनका दाखिला ‘संस्कृत पाठशाला’ में करा दिया, लेकिन विचारों में स्थिरता नहीं थी, मन घुमक्कड़ था, इसलिए न ताे वह पढ़ाई को जारी रख पाए और न हीं उनका मन इस बात की गवाही दे रहा था.
Chandrashekhar Azad. (Pic: The Logical Indian)
असहयोग आंदोलन से निकला ‘आज़ाद’
1919 में पंजाब के जलियांवाला बाग में आज़ादी की मांग कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं, जिसमें हजारों भारतीय शहीद हो गए, इस कांड से चन्द्रशेखर बहुत आहत थे.
अब तक महात्मा गांधी भी भारत की आजादी के लिए अहिंसक आंदोलन शुरू कर चुके थे.
गांधी चाहते थे कि अंग्रेज सरकार पंजाब की शर्मनाक और उत्तेजित करने वाली इस घटना पर खेद प्रकट करे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया.
पूरा देश गुलामी की जंजीरों को तोड़ देना चाहता था. असहयोग आंदोलन को भरपूर समर्थन मिला, इसकी लहर बनारस में भी चल रही रही थी.
1920 में अंग्रेजों के खिलाफ भरे गुस्से को निकालने के लिए चन्द्रशेखर भी इस आंदोलन में कूद पड़े.
आंदोलन को बढ़ता देख अंग्रेज जगह-जगह प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करने लगे. इन्हीं गिरफ्तार क्रांतिकारियों में से एक थे चन्द्रशेखर.
अदालत में पेशी के दौरान जब जज ने चंद्रशेखर से उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछा तो उनका जवाब था, “‘मेरा नाम ‘आज़ाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर का पता ‘जेलखाना’.”
जज यह उत्तर सुनकर आग बबूला हो गया और चन्द्रशेखर को 15 बेंत मारने की सजा सुना दी.
पीठ पर पड़ रहे हर एक बेंत के वार से चन्द्रशेखर तिवारी के मुंह से कराह की जगह ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम’ के स्वर निकल रहे थे.
यही समय था जब चन्द्रशेखर तिवारी दुनिया के लिए ‘चन्द्रशेखर आज़ाद’ बन गए.
जैसे ही वह जेल से रिहा होकर बाहर आए तो बनारस की गालियां ‘आज़ाद-आज़ाद’ के नारों से गूंजायमान हो गईं.
ये पहला और आखिरी मौका था, जब चन्द्रशेखर आज़ाद अंग्रेजों की गिरफ्त में आए थे. इसके बाद अंग्रेज अपने हाथ मलते रह गए लेकिन चन्द्रशेखर आजाद थे और मरते दम तक आजाद ही रहे.
Chandra Shekhar Azad, Alfred Park, Allahabad. (Pic: Flickr)
गांधीवादी से क्रांतिकारी तक
अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन ने अंग्रेजों को हिलाया तो लेकिन देश को आज़ादी नहीं दिला सका और गांधी ने 1922 में असहयोग आंदोलन समाप्त कर दिया. जिसका चंद्रशेखर आज़ाद के ऊपर सीधा प्रभाव पड़ा.
फिर क्या चन्द्रशेखर आज़ाद ने इस आंदोलन में जो हथियार छोड़ दिए थे, वह फिर से उठा लिए और निकल पड़े आज़ाद क्रांतिकारी बनकर देश को अंग्रेजों के चंगुल से आज़ादी दिलाने को.
उन दिनों उत्तर भारत क्रांतिकारियों का गढ़ हुआ करता था औऱ ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी‘ क्रांतिकारियों का एक बड़ा दल था.
पार्टी को चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी और अंग्रेजों को भी आगाह करना था कि आज़ादी अब अहिंसा से नहीं हिंसा से मिलेगी.
फिर क्या उन आंदोलन से ऊब चुके चन्द्रशेखर आज़ाद ने क्रांतिकारी दल के नेता रामप्रसाद बिस्मिल के साथ 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पर एक सवारी गाड़ी को रोककर सरकारी खजाना लूट लिया.
मामले में 40 से अधिक क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन कोई गिरफ्तार नहीं हुआ तो वह थे ‘चंद्रशेखर आज़ाद’.
खैर, लखनऊ की अदालत में 18 महीने तक मुकदमे चले, जिसमें 1927 में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फांसी की सजा सुना दी गई और बाकी को काला पानी कारावास भेज दिया गया.
इस घटना के बाद क्रांतिकारियों का संगठन बिखरने लगा. ऐसे में संगठन की सारी जिम्मेदारी चन्द्रशेखर आज़ाद के ऊपर आ गई.
चन्द्रशेखर भेष बदलने में माहिर थे. वह कभी मैकेनिक तो कभी ड्राइवर, तो कभी साधु बनकर अंग्रेजों के चंगुल से बच निकलते थे.
Kakori Kand. (Pic: satyagrah)
आजाद की भगत सिंह से मुलाक़ात
इस बीच आज़ाद ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी इकठ्ठा कर लिया.
उन दिनों गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप अखबार में एक विलक्षण प्रतिभा का धनी, आज़ादी का दीवाना भी काम किया करता था. एक दिन जब वह अखबार के लिए एक स्टोरी बनाने में व्यस्त था, तभी चन्द्रशेखर आजाद वहां पहुंच गए.
वैसे जिस जगह वह क्रांतिकारी खबर बना रहा था, उस जगह पर किसी अंजान को आने की अनुमति नहीं थी. लेकिन जैसे ही खबर बनाने वाले उस क्रांतिकारी की नजर इस अंजान चेहरे पर पड़ी तो गुस्से से भरी आवाज़ से उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी से पूछा, यह कौन हैं?
खबर बनाने में व्यस्त वह कोई और नहीं बल्कि भगत सिंह थे. जब विद्यार्थी ने भगत सिंह का परिचय कराया तो दोनों के मक़सद एक ही थे, केवल भारत की आज़ादी’.
इसके बाद चन्द्रशेखर और भगत सिंह में दोस्ती हो गई. अब ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन संगठन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया.
Chandrashekhar Azad and Bhagat Singh in a Gallery. (Pic: Abhishek Saha)
…और चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ हो गए
इसी समय भारत में साइमन कमीशन आया, जिसका भारी विरोध किया गया. ‘साइमन गो बैक’ के नारे लगे और जुलूस निकाले गए.
इसी विरोध प्रदर्शन के दौरान अंग्रजों के लाठी चार्ज से ‘लाला लाजपतराय’ बुरी तरह से घायल हो गए और उनकी मौत हो गई. इस मौत का बदला लेने के लिए चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु और कुछ अन्य क्रांतिकारियों ने मिलकर दिन-दहाड़े पुलिस अफसर सांडर्स की गोली मारकर हत्या दी.
अभी इन क्रांतिकारियों को अपना मकसद पूरे देश को बताना था.
एक योजना के तहत 8 अप्रैल 1929 को लाहौर की केंद्रीय असेम्बली में जनविरोधी कानून के विरोध में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंका और इस बार वहां से भागने की बजाए अपनी पार्टी की नीतियों, सिद्धांतों, लक्ष्यों और घोषणाओं के पर्चे फेंककर गिरफ्तारी दे दी.
केस चला, और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा मुकर्रर कर दी गई.
इससे पहले आज़ाद ने भगत सिंह को जेल से छुड़ाने का हरसम्भव प्रयास किया, लेकिन वह असफ़ल रहे.
चन्द्रशेखर आज़ाद वहां से भी निकलने में कामयाब हो गए.
कुछ दिन बाद 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में वह अपने पार्टी के साथियों से मिलने गए थे और किसी ने यह सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी.
सूचना मिलते ही अंग्रेज पार्क की ओर दौड़ पड़े और उन्होंने पार्क को चारों ओर से घेर लिया.
यह देख आज़ाद एक पेड़ के पीछे छिप गए और अपनी पिस्तौल से अंग्रेजों पर निशाना लगाने लगे, लेकिन गोलियां कम थीं और अंग्रेजों की तादाद ज्यादा.
हालांकि उनकी गोली से कई अंग्रेजों सैनिक घायल हो गए थे, लेकिन इधर से भी फायरिंग जारी रही.
आखिरकार अंत में उनकी पिस्तौल खाली हो गई, अब उनके पास केवल एक ही गोली बची थी, जिससे वह अपने अपने आपको आजाद कर सकते थे.
हुआ भी यही, चन्द्रशेखर ने अपने आपको गोली मार ली और वह आजाद पंछी की तरह से वहां से उड़ गए.
An Old Image of Chandrashekhar Azad. (Pic: thewire)
चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ थे, और ताउम्र ‘आजाद’ ही रहे.
कि जिनके बलिदान के बिस्तर पर,
हम चादर ताने सोते हैं,
शत शत नमन उन वीरों को,
जो शहीद होकर ही आज़ाद होते हैं.
Web Title: The Story of Chandrashekhar from being Gandhian to ‘Azad’ Revolutionary, Hindi Article