जब भी बंटवारे का जिक्र आता है, जेहन में पाकिस्तान बनने की तस्वीर उभरती है. इसके साथ ही इतिहास को याद करते हुए आज की पीढ़ी बंगाल और पंजाब की विभीषिका को याद कर लेती है.
बता दें कि बंटवारे का दंश बंगाल और पंजाब के लोगों से बहुत पहले मिथिला के लोगों ने भी झेला, जिसे इतिहास ने भी कहीं किसी पन्ने पर दफना रखा है.
तो आइए आज उस विभीषिका पर नज़र डालते हैं, जिसका जिक्र बहुत ही कम हो सका है!
'सुगौली संधि' से शुरु होती है कहानी
4 मार्च 1816 को ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा ने सुगौली संधि का अनुमोदन कर दिया, जो 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्षरित था. इसके साथ ही ब्रिटिश और नेपाल शासन के बीच युद्ध विराम की घोषणा हो गई.
दो साल लंबे चले युद्ध के बाद हुए इस संधि में बंटवारे की ‘बू’ आ रही थी. जिसे दोनों शासकों ने बड़े ही चालाकी पूर्वक राजनीतिक इत्रों से पाट दिया था.
बहरहाल घाव तो घाव होते हैं. यही कारण है कि वे आज भी यदा-कदा दर्द दे जाते हैं.
सुगौली संधि के दो सौ साल पूरे होने पर नेपाल सीमा से लगे उत्तर बिहार (मिथिला) से इसके खिलाफ आवाजे उठीं. नेपाल से भारत के मैत्री संबंध को देखते इन आवाजों को कभी तरजीह नहीं दी गई.
इस संधि के तहत अंग्रेजों ने मिथिला (तराई) का एक बड़ा भू-भाग नेपाल के अधीन कर दिया था. लिहाजा मिथिला की राजधानी जनकपुर अब नेपाल में अवस्थित है, जहां हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होकर आए हैं.
...और मिथिला को शर्तों ने बांट दिया
नेपाली राजा विस्तारवादी सोच के पोषक थे. उन्होंने उत्तर में चीन और हिमालय के होने की वजह से दक्षिण की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था. दशकों से नेपाल भारत की भूमि को अपने कब्जे में ले रहा था.
जब ईस्ट इंडिया कंपनी को इसकी भनक लगी तो गोरखा युद्ध छिड़ गया.
सुगौली संधि के फलस्वरूप नेपाल ने अपने कब्जे वाली भारतीय भूमि को मुक्त किया, तो मैत्री को बढ़ाने के एवज में अंग्रेजों ने उसे मिथिला (तराई) के भू-भाग को ईनाम के तौर पर दे दिया.
1816 की इस संधि पत्र पर नेपाल की ओर से राजगुरु गजराज मिश्र और अंग्रेज़ों की ओर से लेफ़्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रैडशॉ ने हस्ताक्षर किए थे.
इसके बाद काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति हुई और ब्रिटेन की सेना में गोरखाओं की भर्ती की जाने लगी.
सुगौली में सुलगी 1857 के विद्रोह की आग
उन दिनों सुगौली में ब्रिटिश सेना की छावनी रहा करती थी. मंगल पांडे द्वारा शुरू किया गया विद्रोह छावनी दर छावनी सुगौली तक पहुंच गया था. नेपाल के राजा त्वरित सैन्य मदद पहुंचाकर इस विद्रोह को दबाने में कंपनी की मदद करने लगे.
ये भी कहा जा रहा है कि नेपाल की तत्कालीन मजबूरी ने उसे अंग्रेजों की कठपुतली बना दिया था. लिहाजा वह ब्रिटिश शासन को मदद पहुंचाने की तनिक कोताही नहीं करता था. इस बात से खुश होकर ब्रिटिश ने उसे फिर से मिथिला की भूमि दान में दी.
क्षेत्र के लोगों में जो विखंडन का दुःख था, वो फिर से हरा और बड़ा हो गया.
प्राचीन मिथिला की राजधानी जनकपुर सहित एक बड़ा भू-भाग एक अलग देश में चला गया. उल्लेखनीय है कि इस बार-बार के बंटवारे के बावजूद क्षेत्र के लोगों ने किसी भी प्रकार का विरोध नहीं किया.
गौरतलब हो कि अंग्रेजों ने महज अपने खजाने को भरने के लिए भारत का रुख किया था. उसे यहां की जनता और जनभावना से कोई मतलब नहीं था. उनके अंदर तो चालाकी कूट-कूट कर भरी थी.
यही कारण रहा कि नेपाल के साथ संधि के तहत जब मिथिला को बांटा जा रहा था, तो जनविरोध की आहट को भांपते हुए सीमांकन से उन्होंने परहेज किया गया. इसके तहत भारतीय मिथिला के लोग नेपालीय भू-भाग पर आ-जा सकते थे. लिहाजा जनसामान्य को किसी प्रकार की समस्या नहीं हुई. लोग व्यापार और संबंध-सरोकार के लिए निर्बाध आते-जाते रहे.
संधि से सामान्य जनजीवन हुआ बहाल
मिथिला के लोग प्राचीन काल से ही शांतिप्रिय रहे हैं और यहीं वेद और दर्शन लिखे गए. वैदिक संस्कृति की नींव तक रखी गई. इतिहास खंगालें तो भी यहां सत्ता-संघर्ष नगण्य ही रहे हैं. इन्हीं सब कारणों से मिथिला के राजा जनक राजर्षि कहलाते थे.
सुगौली संधि से पहले क्षेत्र के लोग गोरखा आक्रमण से आक्रांत रहा करते थे, तो ब्रिटिश सेना के हस्तक्षेप से अशांति का सृजन हो रहा था. स्थानीय रजवाड़े अंग्रेजों के आगे नतमस्तक हो गए थे.
संधि के तहत भले ही मिथिला का भू-भाग नेपाल के अधीन चले गए, लेकिन जनसामान्य के लिए आवाजाही में कोई रोक-टोक नहीं था. कोई भी सीमा-बंधन नहीं रखा गया. लिहाजा लोगों को धरातल पर बंटवारे जैसा कुछ लगा ही नहीं.
यह व्यवस्था आज भी कायम है...लेकिन दरारें दिख रही हैं!
अब दोनों तरफ लोकतंत्र है लेकिन...
भारत से जब अंग्रेजों की विदाई हुई तो लोकतांत्रिक सरकार ने नेपाल के साथ 1950 में शांति-मैत्री संधि की और किसी भी प्रकार की आशंका से दोनों तरफ के लोगों को मुक्त कर दिया.
लेकिन इधर कड़े माओवादी संघर्ष के बाद नेपाल से राजशाही का खात्मा हो गया. वहां भी लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ है. मूल नेपाल और भारत के मध्य ये जो ‘दान दिए भूमि’ पर जो लोग हैं, उन्हें नेपाल में मध्यदेशी या मधेसी कहा जाता है.
इनमें आज भारत के विभिन्न हिस्सों से आए लोग भी शामिल हैं.
नेपालीय लोकतंत्र में मधेसी अपने अधिकार को लेकर संघर्षरत हैं, तो वहीं भारत सरकार अपने संबंधों को साधने को लेकर सजग दिख रही है. ऐसे में यदा-कदा सुगौली की याद ताजा हो जाती है.
सैकड़ों साल पहले भू-दान के फलस्वरूप नेपाल को जो भी लाभ हुआ हो, भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र के लोगों को यह बात आज भी कष्ट देती है. बावजूद इसके यहां के लोग भारत-नेपाल के लिए अंतर्राष्ट्रीय संबधों में ‘स्नेहक’ की भूमिका निभा रहे हैं.
बहरहाल, सूरत जो भी हो इस पूरे प्रकरण से जो सामाजिक क्षति हुई है उसे पाटना कतई सहज नहीं है.
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Web Title: Treaty of Sugauli and Separatation of Nepal and India, Hindi Article
Feature Iamge Credit: Sastodeal