किसी भी देश के लिए उसकी सैन्य शक्ति काफी मायने रखती है. ऐसे में अगर बात भारतीय सेना की हो तो क्या कहना!
इंडियन आर्मी का नाम सुनते ही हर भारतीय का सिर फख्र से ऊंचा हो जाता है. हर मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भारतीय सैनिकों ने अपनी जाबांजी का परिचय दिया है.
उनकी बहादुरी के किस्से तब से मशहूर हैं, जब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था.
यह समय था प्रथम विश्व युद्ध का. इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए सारी दुनिया के सामने भारत का सीना चौड़ा कर दिया था. बावजूद इसके ब्रिटिश सरकार की तरफ से लड़े उन वीर जवानों को वह सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था.
यहां बात हो रही है प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लड़े गये ‘बैटल ऑफ याप्रेस’ की, जो इतिहास के भूले पन्नों में कैद होकर रह गया.
तो आईये इतिहास के उन पन्नों में जमी धूल को हटाने की कोशिश करते हैं–
प्रथम विश्व युद्ध से कनेक्शन
बात उस जमाने की है, जब भारत अपनी आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लगातार संघर्ष कर रहा था. इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध की घोषणा हो गई. जर्मनी और उसकी साथी फौजों ने बेल्जियम के शहर याप्रेस पर कब्जा करने के लिए हमला बोल दिया था.
ब्रिटेन को भारी मात्रा में सैनिकों की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने अपने तमाम उपनिवेशों से सैन्य दस्ते को लाने की योजना बनाई. उन्हीं में से एक था इंडिया, जहां से उन्होंने भारी संख्या में सैनिकों की भर्ती का प्लान बनाया.
लाखों मील दूर लड़ने के लिए भारतीय तैयार तो हो गए, क्योंकि ज्यादातर भारतीयों का मानना था कि संकट की इस घड़ी में अगर वे ब्रिटिश सरकार की मदद करते हैं, तो हो सकता है कि इस युद्ध को जीतने के बाद वह भारत को आजाद कर दें.
वे सोचते थे कि इससे भारत की आजादी के पक्ष को और मजबूती मिलेगी.
इंडियन नेशनल कांग्रेस की भी यही सोच थी. इसके बाद भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़े. मगर अफसोस अंग्रेज यह युद्ध हार गए और लगभग सभी सैनिक इसमें शहीद हो गए.
Battle of Ypres (Pic: history.com)
जब याप्रेस पहुंचे भारतीय सैनिक
एक बड़ी संख्या में भर्ती के बाद भारतीय सैनिकों को पानी के जहाज से जर्मनी के इस इलाके में पहुंचा दिया गया, जहां युद्ध चल रहा था.
वह जगह थी याप्रेस!
कहते हैं कि जब यह लड़ाई लड़ी जा रही थी, उस वक्त कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. अब चूंकि, भारतीय सैनिकों ने इस परिस्थिति में लड़ने की कभी ट्रेनिंग नहीं ली थी, इसलिए मोर्चे पर खड़ा रहना उनके लिए आसान नहीं था. बावजूद इसके उन्होंने हार नहीं मानी और आखिरी सांस तक खड़े रहे.
यही नहीं, उन्होंने मजबूती से बड़ी खंदकों में घात लगाकर जर्मन सैनिकों पर हमला जारी रखा. रणभूमि में लगातार उनके साथी शहीद होते जा रहे थे, लेकिन जंग के कारण उनके पास उनके लिए आंसू बहाने तक का समय नहीं था.
हर हाल में उन्हें इस जंग को जीतना था, क्योंकि उनकी आंखों में यह सपना पल रहा था कि वह इस जीत के बाद उनका देश आजाद हो जाएगा. इसी सपने ने उन्हें हर स्थिति में दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने का जज्बा दिखाया.
नाजी सैनिकों से घिरा हुआ भारतीय दस्ता एक तरफ कड़ाके की ठंड की मार झेल रहा था, दूसरी तरफ भूख से वह बेहाल थे. ब्रिटिश उनको राशन तक मुहैया कराने में विफल साबित हुए.
Unheard Tales of Indian Soldiers Fighting In Battle of Ypres (Pic: Pinterest)
नाजी सेना को ‘पिलाया पानी’
सारी परिस्थितियां भारतीय सैनिकों के खिलाफ थी. बावजूद इसके वह नाजी सेना पर हावी हो चुके थे. भारतीय सैनिकों की शौर्यता के कारण ब्रिटेन खुद को जर्मनी के सामने मजबूत महसूस करने लगा था. एक पल के लिए लगा कि जर्मनी का काम भारतीय सैनिक खत्म कर देंगे.
तभी जर्मनी ने अपना आखिरी दांव चल दिया. उसने युद्ध के मैदान में क्लोरीन गैस का इस्तेमाल कर दिया. चूंकि, यह कांड अचानक हुआ था और भारतीय सैनिक के पास इसका कोई तोड़ नहीं था, इसलिए भारतीय सैनिकों को इसका खामियाजा अपनी जान देकर करना पड़ा.
भले ही अपने दांव से जर्मनी भारतीय सैनिकों को हारते हुए यह युद्ध जीत चुका था, किन्तु उसकी दबी जुबान पर भारतीयों की जाबांजी की ही बात थी.
शायद यही कारण रहा कि प्रथम विश्व युद्ध में सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार भारतीय सैनिकों को ही दिये गए थे. उन्हें 9000 से ज्यादा वीरता पुरस्कार मिले, जिनमें से विक्टोरिया क्रॉस की संख्या 13 थी. बताते चलें कि पहले विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से करीब 11 लाख भारतीय सैनिकों ने लड़ाई लड़ी, जिसमें लगभग 70000 सैनिक विकलांग और 60000 सैनिक वीरगति को प्राप्त हो हुए.
German prisoners wear gas masks in Ypres (Pic: Canada.com)
ब्रिटेन ने माना लोहा, लेकिन…
बावजूद इसके हैरानी की बात यह रही कि जिस तरह से भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया, उस हिसाब से उनकी शौर्यता को भारत में उन्होंने प्रचारित नहीं होने दिया. ऐसा न करने के पीछे कई कारण थे.
पहला यह कि अंग्रेज गोरे और काले लोगों में बराबरी की बात को स्वीकार ही नहीं करते थे. उन्हें ये बात हजम ही नहीं हो रही थी कि काले लोग गोरों से कहीं ज्यादा मजबूती से लडें.
दूसरा यह कि उन्हें डर था कि अगर इनका प्रचार किया गया तो भारत में आजादी की मांग को बढ़ावा मिलेगा. तीसरा यह कि ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों की भर्ती ग्रामीण इलाकों से की थी, जिसको वह जग जाहिर नहीं करना चाहते थे.
हालांकि, सालों बाद इस युद्ध में मारे गए सैनिकों के सम्मान में ही दिल्ली स्थित इंडिया गेट का निर्माण किया गया. याप्रेस के मेनिन गेट पर भी कई भारतीयों के नाम दर्ज किए गये. इसके अलावा 1927 में नेउवे चैपल में उनकी याद में एक स्मारक भी बनाया गया.
Unheard Tales of Indian Soldiers Fighting In Battle of Ypres (Pic: Nyafuu Archive)
दिल्ली के इंडिया गेट पर बेल्जियम के राजा फ्लिप्पे और रानी मटील्डे ने भारतीय सैनिकों के इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें याद करते हुए एक किताब को भी लॉन्च किया साथ ही एक प्रदर्शनी भी आयोजित की गई थी.
बावजूद इसके माना जाता है कि कई सालों तक इस युद्ध के शहीदों को वह सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वह हकदार थे.
Web Title: Unheard Tales of Indian Soldiers Fighting In Battle of Ypres, Hindi Article
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