कुत्ते वफादार होते हैं. मालिक के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते हैं. यह बातें देखी सुनी गई हैं. लेकिन बहुत कम ऐसे किस्से हैं, जो इस बात को सच साबित करते हैं और फिर इतिहास में दर्ज हो जाते हैं.
मालिक और कुत्ते की वफादारी का एक किस्सा राजस्थान और हरियाणा के इतिहास में लिखा गया है.
यह किस्सा है 'बख्तावर सिंह के कुत्ते' का. यह वो कुत्ता था, जिसने जंग के मैदान में अकेले ही मुगलों के 28 सैनिकों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया और दर्जनों को इस कदर घायल किया कि वे जंग ही नहीं लड़ पाए. इस कुत्ते ने न केवल अपने मालिक के प्रति, बल्कि अपने राज्य के प्रति भी वफादारी निभाई थी.
तो चलिए आज कि कहानी बख्तावर सिंह के वफादार कुत्ते के नाम लिखते हैं.
लोहारु रियासत का वफादार मुलाजिम
विश्व इतिहास में तेरहवीं सदी को सबसे ज्यादा खूनी सदी माना जाता है. इस दौरान मंगोलों ने चीन से लेकर रूस तक और फिर बगदाद और पोलैंड तक कहर बरपा रखा था. वहीं भारत में भी कत्लेआम का दौर जारी था.
16वीं सदी आते तक भारत में मुगलों की सत्ता थी और उनका सरदार था औरंगजेब. वैसे तो औरंगजेब की बहादुरी के किसीदे पढ़े जाते हैं. कहा जाता है कि वह सबसे ताकतवर शासक था. उसकी सेना में इतना बल था कि हिंदुस्तान की रियासतें अपने आप उसके आगे घुटने टेक रहीं थीं. पर कोई था जिसे औरंगजेब की गुलामी मंजूर नहीं थी.
वह वक्त था 1670—71 का. राजस्थान और हरियाणा की सीमा के पास लोहारु रियासत थी. जहां के राजा का नाम 'ठाकुर मदन सिंह' था. ठाकुर अपने स्वभाव के लिए काफी मशहूर थे. वे दानदाता थे, गरीबों की मदद करते थे और यही कारण था कि उनके पास वफादारों की कोई कमी नहीं थी. ठाकुर के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा दो बेटे 'महासिंह' व 'नौराबाजी' थे.
दोनों बेटे शस्त्रविद्या में पारंगत थे. ठाकुर के कार्यकाल में सबकुछ ठीक चल रहा था.
बेटों के अलावा ठाकुर जिस पर सबसे ज्यादा विश्वास करते थे वह था उनका वफादार मुलाजिम 'बख्तावर सिंह'. बख्तावर सिंह 24 घंटे ठाकुर के साथ साए की तरह रहता था. उसने अपना जीवन, समय और परिवार सबकुछ ठाकुर के नाम कर दिया था. वैसे को बख्तावर के पास कुछ खास संपत्ति नहीं थी, फिर भी यदि कुछ था तो एक वफादार कुत्ता.
इस कुत्ते का नाम तो इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है पर किताबों में जहां भी लिखा गया है वहां इसे 'बख्तावर सिंह के कुत्ते' से ही संबोधित किया गया है. वैसे तो लोहारु रियासत की बहुत सी कहानियां हैं पर आज केन्द्र में है 'बख्तावर सिंह का कुत्ता'
जब औरंगजेब ने बनाई हमले की योजना
यह कोई साधारण कुत्ता नहीं था. उनकी नस्ल देसी थी और लहू भी अपने मालिक की तरह पूरी तरह देसी. यानि जो बख्तावर अपने मालिक के लिए था वही कुत्ता बख्तावर के लिए.
बख्तावर सिंह ने कुत्ते को अचानक होने वाले हमले, संदिग्धों की जांच और हमले से पहले आगाह करने जैसे कई बातों के लिए प्रशिक्षित किया था. यदि कारण था कि उस कुत्ते पर महल और वहां रहने वालों की सुरक्षा तक की जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी.
1671 में लोहारू रियासत सबसे धनी थी और इस धनी रियासत से औरंगजेब अच्छा खासा राजस्व वसूल सकता था. इसी मंशा से उसने ठाकुर के पास संदेश भिजवाया कि वे रियासत से मिलने वाले कल का कुछ प्रतिशत उन्हें दें.
साथ ही बदले में वे रियासत को सुरक्षा प्रदान करेंगे. ठाकुर ने आज तक किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की थी. खासतौर पर किसी मुगल ने अब तक लोहारू रियासत से राजस्व वसूलने की हिमाकत नहीं की थी.
ठाकुर ने औरंगजेब का प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए जवाब भिजवाया कि वह अपनी और अपने राज्य की सुरक्षा करने की ताकत रखते हैं. इस जवाब से औरंगजेब तिलमिला गया. उसने तत्काल ही हिसार गवर्नर अलफू खान को संदेश भिजवाया कि लोहारु रियासत के ठाकुर को उसके सामने हाजिर किया जाए. फिर चाहे इसके लिए जंग ही क्यों न करनी पड़े.
अलफू खान ने बिना देर किए ठाकुर के रियासत पर हमला करने की तैयारी शुरू कर दी. गुप्तचरों के जरिए जब तक ठाकुर को यह सूचना मिल पाती तब तक खान की सेना रियासत के दरवाजे पर आ पहुंची. ठाकुर ने अपनी सेना को तत्काल जंग के लिए तैयार किया. दोनों बेटों ने सेना की अगुवाई की और साथ में ठाकुर का वफादार बख्तावर भी मैदान में उतरा.
जंग में हिस्सा लेकर कुत्ते ने किया मुकाबला
बख्तावर मैदान में था तो भला उसका कुत्ता अपने मालिक को अकेला कैसे छोड़ता. इसलिए बख्तावर के घोड़े के पीछे उसका कुत्ता भी खड़ा हुआ. खान की सेना ने अब तक जंग में घोड़े और हाथी देखे थे पर कुत्ते को देखकर वे हंस दिए.
उन्हें लगा कि ठाकुर इतना कमजोर है कि उसे जंग के लिए एक कुत्ते पर निर्भर होना पड़ रहा है. बहरहाल जंग शुरू हुई. ठाकुर की सेना खान की सेना पर भारी पड़ रही थी. वहीं 'महासिंह' व 'नौराबाजी' के साहस के चलते दर्जनों सैनिक मारे जा चुके थे.
बख्तावर भी अपना मोर्चा सम्हाले हुए था. इस जंग में बख्तावर के कुत्ते ने भी कमाल कर दिखाया. वह खान के सैनिकों के पीछे पड़ जाता और फिर उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर बख्तावर के पास लाता.
बख्तावर उन्हें घायल करता और फिर घायल सैनिकों को कुत्ता नोंच नोचकर मार डालता.
जंग के दौरान 'महासिंह' व 'नौराबाजी' शहीद हो गए और बख्तावर गंभीर रूप से घायल हो चुके थे. लेकिन खान की सेना के आगे झुकना उन्हें मंजूर नहीं था. इसलिए वह अपने कुत्ते की मदद से जंग लड़ते रहे. जहां बख्तावर ने लगभग 100 सैनिकों को मार गिराया था. वहीं उसके कुत्ते ने करीब 28 सैनिकों की जान ले ली.
इसके साथ ही दर्जनों सैनिकों को इस कदर घायल कर दिया कि वे जंग न लड़ पाएं.
कुत्ते का साहस देखकर सैनिकों ने उस पर हमला बोल दिया. बख्तावर ने अपने कुत्ते की रक्षा करने का प्रयास किया और इसी दौरान वह सैनिकों के वार का शिकार हुए और शहीद हो गए.
मालिक आंखों के सामने दम तोड़ रहे थे, यह देखकर कुत्ता बख्तावर की मदद की लिए दौड़ा और तभी एक सैनिक की तलावर ने उसका शीश धड़ से अलग कर दिया. इस तरह जंग के मैदान में मालिक और उसके वफादार कुत्ते ने अपना बलिदान दे दिया.
पर तब तक खान की सेना लगभग हार चुकी थी. बचे हुए सैनिका जान बचाकर भाग निकले. खुद अलफू खान ने भी जंग का मैदान छोड़ दिया. ठाकुर मदन सिंह और उनकी रियासत अब सुरक्षित थी.
आज भी याद करते हैं कुत्ते की बहादुरी
जंग खत्म होने के बाद ठाकुर ने रणभूमि में अपने वफादार बख्तावर सिंह और उसके कुत्ते की याद में गुंबद का निर्माण करवाया. वैसे मुगलों के भारतीय कुत्तों से खौफ खाने का यह अकेला उदाहरण नहीं है.
किताब 'माइक एडवर्ड्स सीक्रेट ऑफ़ मंगोल लाइफ' में लिखा है कि मुसलमान इतिहासकारों ने मंगोल राजा चंगेज खान को डरपोक माना है. चंगेज खान को इंसानों से नहीं बल्कि कुत्तों से डर लगता था. डर का आलम यह था कि चंगेज की सेना ने निशापुर में कुत्ते और बिल्लियों को जान से ही खत्म कर दिया था.
बहरहाल लोहारु रियासत की रक्षा में 'बख्तावर सिंह के कुत्ते' का नाम भी बहुत सम्मान से लिया जाता है. हालांकि कुछ माह बाद औरंगजेब ने दोबारा रियासत पर हमला किया और कब्जा कर लिया. इसके बाद से यहां मुगलों और नवाबों का शासन रहा. इस दौरान भी रियासत की जनता गुलामों की तरह ही जीती रही.
यहां तक की 15 अगस्त 1947 को भारत के आजाद होने के बाद भी नवाबों ने रियासत का विलय करने से इंकार कर दिया. भारत सरकार लोहारु रियासत को बीकानेर रियासत में विलय करना चाहती थी पर नवाब इसके लिए तैयार नहीं हुए.
पूर्व विधायक स्व. चन्द्रभान ओबरा की किताब ' लोहारू बावनी का इतिहास' में लिखा है कि नवाबों ने 1803 ई में लोहारु रियासत की पुन: स्थापना की थी और 23 फरवरी 1948 में लोगों को नवाबी शासन से मुक्ति मिली. इसके लिए आर्य समाज और जनता को अंग्रेजों के साथ नवाबों से भी मुकबला करना पड़ा था. हालांकि यह एक दूसरी लंबी कहानी है.
पर कहा जाता है कि लोहारु की जनता को एकजुट करने में दिवंगत 'बख्तावर सिंह के कुत्ते' के किस्से ने बहुत मदद की थी.
Web Title: Untold Story Of Faithful Indian Dog, Hindi Article
Feature Image Credit: Dogalize