शरीर जला देनेवाली गर्मी, जमीन पर बिखरे एक-एक दाने के लिए आपस में लड़ते लोग. किसी म्यूजियम में रखे नर-कंकालों की तस्वीर पेश करते भूख से बिलबिलाते बच्चे-बूढ़े-जवान.
अस्थियां इस कदर उभरी हुईं कि जैसे कभी भी चमड़े को भेदकर बाहर निकल जाएं. सड़ांध छोड़तीं लाशें. लाशों को नोंचते कुत्ते व गिद्ध!
यह रेखाचित्र है सन् 1943 के बंगाल के अकाल का, जिसने विश्व के इतिहास में एक स्याह अध्याय जोड़ दिया. इस विभीषिका में करीब 40 लाख लोगों की अकाल मौत हो गयी थी.
यह वह दौर था, जब बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, बिहार व ओडिशा) की आबादी करीब 6 करोड़ थी. अकाल ने बंगाल को सामूहिक कब्रिस्तान में तब्दील कर दिया था.
इतिहास में इस अकाल को ‘द ग्रेट बंगाल फेमिन’ नाम से दर्ज रहा.
चूंकि इस कुख्यात अकाल के कई दिलचस्प पहलू रहे थे, इसलिए आईए उनको समझने की कोशिश करते हैं-
प्राकृतिक आपदा ने दिये थे संकेत
यूं तो दूसरा विश्व युद्ध जुलाई 1937 में जापान के चीन पर हमले के साथ ही शुरू हो गया था, लेकिन उस वक्त अंग्रेजी हुकूमत के अधीन रहे भारत में इसकी सुगबुगाहट नहीं थी.
करीब दो साल बाद यानी सन् 1939 में ब्रिटेन इस युद्ध में कूदा. चूंकि भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था, इसलिए इस युद्ध में हिस्सा लेने के लिए भारी संख्या में भारत से सैनिकों को भी भेजा गया.
इस युद्ध के बीच ही एक आफत भी दबे पांव बंगाल की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन, इससे सभी बेखबर थे.
सन् 1942 की बात है. तारीख 16 अक्टूबर. द्वितीय विश्व युद्ध की बमबारी के बीच बंगाल में करीब 142 किलोमीटर की रफ्तार से तूफान आता है. तूफान इतना विध्वंसकारी था कि उसने 11000 लोगों की जिंदगी छीन ली और सबकुछ बहा ले गया.
इस तूफान ने फसल को भी भारी क्षति पहुंचायी थी.
…लेकिन, किसी को ये इल्म नहीं था कि यह तूफान दुनिया के इतिहास में काले अध्याय की शक्ल में दर्ज बंगाल के अकाल के साथ जुड़ जायेगा.
A Woman Displaced from Her Home Due to Cyclone (Pic: boston.com)
सैनिकों पर करम, आवाम पर सितम !
तूफान ने तो फसल को नुकसान पहुंचाया ही था, रही सही कसर फसल में लगी बीमारियों ने पूरी कर दी थी. खाद्यान का उत्पादन एकदम कम हो गया था.
ब्रिटिश हुकूमत को इस बात का जानकारी थी कि इससे बंगाल के लोगों की जिंदगी खराब हो जायेगी, लेकिन हुकूमत को भला इससे क्या वास्ता ! उसे वास्ता था तो सिर्फ ब्रिटेन की तरफ से द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़ रहे सैनिकों से.
शायद इसीलिए ब्रिटिश हुकूमत ने सैनिकों के लिए खाद्यान की खरीद में इजाफा कर दिया. वर्ष 1940-1941 में सैनिकों के लिए 88 हजार टन गेहूं खरीदा गया था, जो अगले ही साल यानी 1941-1942 में बढ़कर 2,38,000 टन पर पहुंच गया.
तूफान, फसलों में कई तरह की बीमारियां लग जाने से खाद्यान के उत्पादन में गिरावट आ चुकी थी, लेकिन कोई एहतियाती कदम नहीं उठाया गया.
..फिर वही हुआ, जिसका डर था !
सन् 1943 में मई-जून आते-आते अनाज की समस्या ने विकराल रूप ले लिया और बंगाल में त्राहिमाम मच गया.
बंगाल में खाद्यान की किल्लत और अकाल की आहट जब सतह पर आनी शुरू हुई, तब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल थे. वही चर्चिल जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत फौजी के रूप में की थी. उन्होंने कई युद्धों में हिस्सा लिया था.
सन् 1900 में पहली बार वह चुनाव लड़े और जीत हासिल की. सन् 1940 में वह इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बने.
बहरहाल, सन् 1943 के मई-जून में बंगाल में भुखमरी शुरू हुई, तो यह खबर लंदन तक पहुंच गयी. वहां ब्रिटिश मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलायी गयी. बैठक में चर्चिल, भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लीओ अमेरी, भारत का वायसराय बनने की ओर अग्रसर फील्ड मार्शल सर आर्किबाल्ड वेवेल व अन्य अफसरान उपस्थित थे.
बैठक में बंगाल के अकाल के बारे में बताया गया और वहां तत्काल खाद्यान से भरे जहाज भेजने की अपील की गयी. चर्चिल ने इस अपील को बेरहमी से ठुकराते हुए दो टूक शब्दों में कह दिया कि बंगाल में अकाल के लिए वे लोग (बंगाल के निवासी) खुद जिम्मेवार हैं.
अकाल को लेकर चर्चिल को भारत से टेलीग्राम भी भेजा गया. टेलीग्राम में भूखों मर रहे लोगों का जिक्र था और मदद की गुहार.
चर्चिल ने टेलीग्राम के जवाब में लिखा था, ‘अकाल से अब तक गांधी की मौत क्यों नहीं हुई?’ गांधीजी का जिक्र आया है, तो बताते चलें कि कि महात्मा गांधी को चर्चिल ‘अधनंगा फकीर’ कहा करते थे. खैर…!
टेलीग्राम के इस मुख्तसर जवाब से पता चलता है कि उस नाजुक वक्त में चर्चिल के भीतर की इंसानियत चुकी थी.
बंगाल में अकाल पड़ने के बावजूद भारत से करीब 70 हजार टन खाद्यान्न ब्रिटेन भेजा गया था. चर्चिल से खाद्यान्न भारत भेजने की अपील भी की गयी, लेकिन जहाज की कमी का हवाला देकर ऐसा करने से मना कर दिया.
Young Winston Churchill (Pic: Pinterest)
ब्रिटिश प्रशासन का अड़ियल रवैया
अकाल से निबटने के लिए आस्ट्रेलिया ने गेहूं भिजवाया, तो गेहूं बंगाल न भेजकर ब्रिटिश ट्रूप के पास भेज दिया गया.
सात समंदर पार स्थित कनाडा व अमेरिका ने भी इस संकट की घड़ी में मदद की पेशकश की, लेकिन ब्रिटिश प्रशासन ने मदद लेने से इनकार कर दिया.
उन दिनों वर्मा चावल का प्रमुख निर्यातक देश हुआ करता था. भारत में भी यहीं से चावल का आयात होता था. किन्तु, दूसरे विश्वयुद्ध में वर्मा पर जापान का कब्जा होने से चावल का आयात प्रभावित हो गया था. इतना ही नहीं, जापानियों के बंगाल में प्रवेश करने के अंदेशे के चलते अनाज से भरी नाव, वाहन व यातायात के अन्य साधनों को नष्ट कर दिया गया था.
दूसरी तरफ, खाद्यान की कमी देखते हुए अनाज की जमाखोरी भी खूब हुई. लेकिन, ब्रिटिश हुकूमत जमाखोरों पर कार्रवाई करने में नाकाम रही.
इस तरह अकाल की एक विस्तृत पृष्ठभूमि तैयार कर दी गयी थी.
अकाल और उसके बाद क्या?
अकाल व खाद्यान की किल्लत ने लोगों को घास चबाने को मजबूर कर दिया था. भूखे लोग तिल-तिल कर मरने की जगह ट्रेनों के सामने कूदकर खुदकुशी करने लगे थे.
बंगाल प्रांत में अकाल की विभीषिका का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि लोग इतने कमजोर हो गये थे कि उनमें मरे हुए अपने परिजनों को दफना देने की ताकत भी नहीं बची थी. महिलाओं में इतनी हिम्मत न थी कि दुधमुंहे बच्चों को आंखों के सामने दम तोड़ता देख पातीं, इसलिए वे उन्हें नदियों-कुओं में फेंक दिया करती थीं. जगह-जगह लाशें बिखरी पड़ी थीं.
The Bengal Famine (Pic: storypick.com)
1943 की गर्मी से अकाल शुरू हुआ था. सन् 1944 के शुरुआती दिनों तक बंगाल डेथ चेंबर बना रहा. सन् 1944 में जब बंगाल में चावल की बम्पर उपज हुई, तब जाकर अकाल का कहर कम हुआ. लोगों के घरों में अनाज पहुंचा और उन्होंने उसे छुआ…और पेट की भूख मिटायी.
धीरे-धीरे जनजीवन पटरी पर लौटने लगा. लेकिन, आंखों के सामने भूख से छटपटाकर मरते लोगों का दर्दनाक मंजर वे कभी भूल नहीं पाए…और चर्चिल को भी नहीं!
Web Title: Untold Story of The Bengal Famine, Hindi Article
Featured Image Credit: documenta