किसी की आर्थिक स्तिथि उसके सपनों को सीमित नहीं कर सकती. बस, इंसान में वो ज़ज्बा और हिम्मत होनी चाहिए, जिससे वो अपने हर सपने को साकार कर सके.
किसी को यह अंदाजा भी नहीं होगा कि फूटपाथ पर सब्जी बेचने वाली की बेटी पूरी दुनिया में अपने हुनर का डंका बजाएगी.
पैसों की कमी, बाप का सिर पर साया नहीं और माँ का उन्हें कड़े संघर्षों से पालना. ये सब उनकी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत बना. इस ताकत के बल पर ही आज वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कोलाज आर्टिस्ट हैं.
ऐसे में, कोलकाता की गलियों से निकलकर इंटरनेशनल आर्टिस्ट बनने तक के सफ़र को जानना दिलचस्प रहेगा. शकीला शेख की कहानी कुछ ऐसी है जिसमें शकीला रुपी हीरा गरीबी नाम के दुख से हारा नहीं.
जानते हैं, शकीला शेख की अनसुनी कहानी, जिससे कभी हिम्मत न हारने की प्रेरणा मिलती है-
घर में दो जून की रोटी भी मुश्किल से जुट पाती
शकीला का जन्म 1973 में हुआ. वह छह भाई-बहनों में से सबसे छोटी हैं. वह महज एक साल की थी जब उनके पिता उन्हें और परिवार को छोड़ कर चले गए. जिसके बाद वो वापस कभी भी लौट कर नहीं आये.
ऐसे में, उनकी माँ के ऊपर सारी जिम्मेदारी आ गयी. उन्हें ही अपने बच्चों का पालन-पोषण करना था. उनकी माँ ने घर से लेकर बाहर सब कुछ अकेले देखा.
उनकी माँ ज़हेरन बीबी ने अपने बच्चों की परवरिश के लिए सब्जी की दुकान लगाना शुरू कर दिया. इससे मिलने वाले पैसे से ही वह परिवार चलाती थीं.
शकीला और उनके परिवार ने भीषण गरीबी देखी. ऐसा समय भी देखा जब घर में खाने के लिए कुछ नहीं होता था. उनके परिवार को भूखे पेट ही सोना पड़ता था. घर में कमाने वाली उनकी माँ अकेले भला सब्जी की दुकान से कितना कमातीं. उनकी थोड़ी सी कमाई में भला इतने सारे लोगों का पेट कैसे भरता.
उनकी माँ रोजाना 40 किलोमीटर तक का सफ़र तय कर के अपने घर मोग्राघाट से कोलकाता जाती थीं. उनके पास सब्जी बेचने और उससे मिलने वाले पैसों से घर-गुजारी करने के अलावा कोई विचार आ ही नहीं पाते थे.
जब घर में दो जून की रोटी नहीं जुट पाती थी, तो शिक्षा जैसी चीजों से भला क्या वास्ता पड़ता. अपनी माली हालत की वजह से वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रही थीं.
‘पनेसर बाबू’ बदलाव की दस्तक बनकर आए
वो महज सात साल की थीं, जब अपनी माँ के साथ सब्जी बाज़ार जाया करती थीं. उनकी माँ ने उन्हें कभी भी अपने साथ कोई काम नहीं करने दिया. जब उनकी माँ सब्जी बेच रही होती, तब वह बाज़ार में घूमती थीं. जब थक जाती तो सड़क के किनारे ही सो जाती.
नन्ही शकीला का बचपन यूं गुजर रहा था. उनकी ज़िन्दगी में ‘पनेसर बाबू’ बदलाव की दस्तक लेकर आए. अब ये कौन थे?
दरअसल, यह जब वह अपनी माँ के साथ बाज़ार जाया करती थीं. वहां पनेसर बाबू बाज़ार में सब्जी खरीदने आया करते थे. वह बच्चों को अंडे, चॉकलेट, पेंसिल आदि बांटा करते.
जिसकी वजह से बच्चे उन्हें बहुत प्यार करते थे. लिहाजा, प्यार से उन्हें ‘दिमबाबू’ कहकर बुलाते थे. (बंगाली में दिम का मतलब अंडे होता है).
शकीला 1980 दशक के दौरान उनसे मिलीं. पनेसर ने जब उन्हें सामान देने के लिए बुलाया तो उन्होंने उसे लेने से मना कर दिया. इस बात से वह बहुत प्रभावित हुए. बस, फिर क्या था! यहीं से उनके दिन बदले.
उन्होंने शकीला का दाखिला स्कूल में करवाया. उनके लिए पढ़ाई-लिखाई से संबंधित सारा सामान ख़रीदा. साथ ही, उनके परिवार को भी आर्थिक सहायता दी. शकीला उन्हें ‘बाबा’ कहकर पुकारती हैं.
उनकी इस एक मुलाकात ने शकीना की ज़िन्दगी में बहुत बड़ा बदलाव लाई. उनकी माँ को शुरुआत में पनेसर बाबू का प्यार कोई छल लगता. लेकिन समय के साथ वह उनकी नेकी पर कोई प्रश्न चिन्ह न उठा सकीं.
स्तिथि जस की तस बनी रही
तीसरी कक्षा तक वह अपने गाँव कोलकाता में ही पढ़ी. बाबू को लगा कि रोज गाँव से आना जान करने उनके लिए सुरक्षित नहीं होगा. इसके लिए उन्होंने शकीला का दाखिला गाँव में ही करने के बारे में सोचा.
लिहाज़ा, उन्होंने उनके भाई को 300 रुपये देकर उनका दाखिला कराने को कहा. उनके भाई ने वो पैसे अपने पास रख लिए और उनका दाखिला नहीं करवाया. इस बात को वो कभी भी पनेसर बाबू को नहीं बता पाईं.
खैर, समय बिता और 1987 में उनकी शादी हुई.
उनकी शादी अकबर शेख से हुई. वह उनसे पंद्रह साल उम्र में बड़े हैं. इसके अलावा, उनकी पहले से एक पत्नी मौजूद है. शकीला उनकी दूसरी पत्नी हैं.
शादी के बाद वह अपने पति के साथ सूरजपुर आ गईं. उनके पति भी सब्जी की दुकान लगाते थे. दुकान लागने के लिए वो रोजाना कोलकाता जाते. उनकी कमाई काफी नहीं थीं, अपनी दो पत्नियों के साथ जीवन-यापन करने के लिए.
गुजर-बसर के लिए शकीला ने घर में ही ‘थोंगा’ (पेपर पैकेट) बनाना शुरू किया. जिससे उन्हें रोज के 20 से 30 रुपए मिल जाया करते थे. इसी तरह उनकी जिंदगी कट रही थी.
इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा
पनेसर बाबू ने उनकी जिंदगी में एक बार और दस्तक दी. साल 1989 में, उन्होंने शकीला को एक पेंटिंग प्रदर्शनी देखने के लिए बुलाया. जिसमें फाइन आर्ट्स के नमूने को प्रदर्शित किया जाना था.
वह इसमें जाने की बिलकुल इच्छुक नहीं थीं. चूँकि, पनेसर बाबू ने बुलाया था इसीलिए वह चली गयीं. वह अपने पति के साथ वहां गईं.
जब वो वहां गयीं तो पेंटिंग्स को देखकर बहुत खुश हुईं. उनके बाबा ने उनसे चार बेस्ट पेंटिंग बताने को कहा और उन्होंने बताया. उनके बाबा को हैरानी तब हुई, जब शकीला की बताई हुई पेंटिंग ही विजेता हुईं.
इससे उनके बाबा को लगा कि शकीला को कला की पहचान है. इस प्रदर्शनी ने ही शकीला को एक आर्टिस्ट बनने का सपना दिखाया. जिसके बाद, जब वह घर लौटीं तो उन्होंने अलग-अलग तरीकों से कागज़ का प्रयोग करना शुरू कर दिया. वह विभिन्न साइज और आकार के पेपर को बेहतरीन तरीके से जोड़कर भगवान आदि बनाने लगीं.
उनके पति ने शकीला के बनाये हुए कुछ नमूने जब ‘बाबा’ को दिखाए, तो हैरान रह गए. इसके बाद, उन्होंने न सिर्फ शकीला को ज्यादा न्यूज़पेपर दिए बल्कि उनके द्वारा बनाए हुए कोलाज के लिए प्रदर्शनी भी लगवाई.
साल 1990 में, शकीला के आर्ट की पहली सोलो प्रदर्शनी लगी. इससे उन्होंने 70,000 रुपये कमाए. उस समय यह एक बहुत बड़ी रकम थी.
बस, अब क्या था! उनके सपनों को उड़ान मिल चुकी थी. इसके बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. आज वह अपने तीन बच्चों के साथ एक आरामदायक जीवन जी रही हैं.
पनेसर बाबू ने ही शकीला को CIMA (सेंटर ऑफ़ इंटरनेशनल मॉडर्न आर्ट) के बारे में बताया. आज के समय में, यही उनके काम को देश-विदेश में मैनेज और लेकर जाता है.
अपनी कला के लिए उन्हें कई अवार्ड्स भी प्राप्त हुए. साल 2003 में उन्हें ललित कला अकादमी फेलिसीटेशन और 2005 में चरुकला अवार्ड से नवाजा गया. आज के समय में उनका काम फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और अमेरिका जैसे देशों में सरहाया जाता है.
शकीला ने कभी हिम्मत नहीं हारी. प्रदर्शनी की पेंटिंग को देखकर देखे गए सपनो को उन्होंने साकार किया. उनके सफ़र को एक कामयाब सफ़र बनाने में उनके पति और ‘बाबा’ ने अहम भूमिका निभायी.
उन्होंने अपनी मेहनत से अपनी जिंदगी बदली. उन्होंने जिस स्तिथि में जन्म लिया, उस स्तिथि में रहने के लिए तैयार नहीं हुईं. यही वजह है आज वो हर महिला के लिए एक प्रेरणा का स्त्रोत हैं.
WebTitle: Shakila Sheikh: From Vegetable Vendor To International Artist, Hindi Article
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