आज भारत को पोलियो से छुटकारा पाए हुए सात साल से भी ज्यादा हो चुके हैं. पोलियो एक अत्यधिक संक्रामक बीमारी है, जिसके कारण शरीर के विभिन्न अंग अपरिवर्तनीय लकवे से ग्रसित हो जाते हैं. एक समय पर देश में प्रत्येक वर्ष करीब पचास हज़ार बच्चे इस बीमारी का शिकार बनते थे. 2011 में भारत ने इस बीमारी से मुक्ति पा ली है.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि आज से लगभग सत्तर साल पहले एक महिला ने पोलियो मुक्त भारत का सपना देखा था. यह उस महिला की रखी नींव ही थी, जिसके कारण भारत 2011 में पोलियो मुक्त हो पाया. इस महिला का नाम है- फातिमा इस्माइल. तो आइए जानते हैं कि किस प्रकार फातिमा ने पोलियो मुक्त भारत के सपने की नींव रखी…
शुरुआत से ही समाज-सुधार में थी रूचि
फातिमा इस्माइल का जन्म 4 फरवरी 1903 को हुआ था. वे प्रसिद्ध गाँधीवादी नेता उमर सोभानी की बहन थीं. इस कारण उन्हें बचपन से ही घर में एक राजनीतिक माहौल में पलने-बढ़ने का मौका मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत छोटी उम्र में ही वे समाज-सुधार के बारे में गंभीरता से विचार करने लगीं.
शुरुआत में उन्होंने महिलाओं की शिक्षा की ओर ध्यान देना शुरू किया. इस क्रम में उन्होंने महिलाओं के लिए खोले गए औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र में पढ़ाना शुरू किया. आगे 1936 में वे अखिल भारतीय महिला सम्मलेन की शिमला शाखा की सचिव बनीं. इसी बीच देश में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन अपनी पूरी तीव्रता से चलने लगा.
फातिमा ने भी इसमें भाग लिया. उनके बम्बई स्थित घर पर कांग्रेस के कई नेता अक्सर नाम बदल कर रुका करते और अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करते थे. इन नेताओं में जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली का नाम प्रमुख था.
अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संघर्ष तेज हुआ तो 1942 में गांधी जी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारंभ हुआ. इस समय तक फातिमा इस्माइल ने निकाह कर लिया था और उनके घर एक बेटी का जन्म भी हो चुका था.
बेटी को हो गया पोलियो, और...
सन 1945 में पता चला कि उनकी बेटी पोलियो से ग्रसित है और अगर जल्द ही कुछ न किया गया तो हालात और ज्यादा बिगड़ जाएंगे. इस उद्देश्य से फातिमा ने पूरे देश में भ्रमण शुरू किया. जल्द ही उन्हें पता चला कि बेटी की हालत में सुधार के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता है. लेकिन फातिमा ने हिम्मत नहीं हारी.
इस पूरे भ्रमण के दौरान उन्हें पोलियो से जूझते हजारों बच्चे दिखे. उन्होंने तय किया वे न केवल अपनी बेटी की हालत को सुधारेंगी, बल्कि इन बच्चों की भी यथासंभव मदद करेंगी. इस बीच उनके पति का ईरान में ट्रांसफर हो गया.
लेकिन फातिमा ने भारत में ही रुके रहने का ही निर्णय लिया. आगे उन्हें पता चला कि मद्रास में एमजी कीनी नाम के एक डॉक्टर हैं, जो उनकी बेटी का इलाज कर सकते हैं. वे बिना समय गंवाए मद्रास की ओर चल पड़ीं.
जब वे मद्रास पहुंची तो डॉक्टर ने उनकी बेटी का इलाज करने से इंकार कर दिया. लेकिन फातिमा के बार-बार आग्रह करने पर अंततः वे इलाज करने के लिए सहमत हो गए. अगले आठ महीनों तक उनकी बेटी का इलाज चला.
इस इलाज के बाद जरूरत थी कि फिजियोथेरेपी के जरिए उनकी बेटी को एकदम सही कर दिया जाए. इस क्रम में फातिमा पुणे आईं. पुणे में फिजियोथेरेपी का एक केंद्र था. इसका प्रयोग अंग्रेज सैनिकों के घायल हो जाने पर उनके इलाज के लिए करते थे. आगे आग्रह करने पर उनकी बेटी को फिजियोथेरेपी द्वारा सही करने की इजाजत मिल गई.
इससे पहले सन 1920 में फातिमा विएना में मेडिकल की पढ़ाई करने गई थीं. परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़कर वापस आना पड़ा था. हालाँकि, इस बीच उन्होंने मेडिकल क्षेत्र में काफी कुछ सीख लिया था. खैर, फिजियोथेरेपी के बाद उनकी बेटी की हालत में काफी सुधार आया.
इससे उत्साहित होकर फातिमा ने निर्णय लिया कि वे पोलियो से जूझ रहे बच्चों की मदद करेंगी.
पोलियो से जूझ रहे बच्चों के लिए खोला क्लीनिक
यह सन 1947 था. देश बस आजादी की अंतिम दहलीज पर पहुँचने ही वाला था. इस समय फातिमा ने बम्बई के चिकत्सा समुदाय के प्रमुख लोगों से पोलियो से ग्रसित बच्चों के लिए एक पुनर्वास क्लीनिक खोलने का आग्रह किया.
लेकिन आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण यह संभव न हो पाया. इसी बीच बम्बई के डॉक्टर एवी बलीगा ने फातिमा को अपना क्लीनिक दे दिया. वहीं पुणे के केंद्र से फिजियोथेरेपी और वहां काम करने वाले डॉक्टर और कर्मचारी भी इसी क्लीनिक में आ गए. पुणे का यह केंद्र अंग्रेजों के जाने के साथ बंद होने वाला था, इसलिए ऐसा करना आसान हो गया था.
मई 1947 में इस क्लीनिक ने काम करना शुरू किया और एक वर्ष के भीतर यहाँ करीब 80 बच्चों का इलाज होने लगा.
इस क्लीनिक की खबर अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से फैली और बम्बई सरकर ने फातिमा को क्लीनिक का विस्तार करने के लिए और जगह दी. आगे फातिमा ने अमेरिका और इंग्लैंड में भाषण दिए और पोलियो से ग्रसित बच्चों के लिए एक अस्पताल खोले जाने की आवश्यकता पर भारत सरकार का ध्यान आकर्षित कराया.
इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने 1953 में खुद एक ऐसे ही अस्पताल का उद्घाटन किया. 1959 में फातिमा ने पोलियो से ग्रसित बच्चों के लिए एक स्कूल भी खोला. आगे उन्होंने ऐसे और भी स्कूल खोले. आज करीब 300 से ज्यादा बच्चे उनके इन विद्यालयों में पढ़ रहे हैं.
फातिमा की इस निस्वार्थ सेवा के लिए उन्हें 1958 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उन्होंने न केवल अपनी बेटी, बल्कि हजारों बच्चों को पोलियो की असहनीय पीड़ा से बाहर निकाला. यह उनके ही प्रयासों का परिणाम रहा कि 2011 में हमारा देश पूरी तरह से पोलियो से मुक्त हो पाया. 4 फरवरी 1987 के दिन फातिमा इस्माइल मृत्यु को प्राप्त हो गईं.
Web Title: Fathema Ismail: Woman Who Laid The Foundation Stone Of Polio Free India, Hindi Article
Feature Image Credit: FPH