आधुनिक युग में शायद ही कोई ऐसी वस्तु हो, जो बुजुर्गों के साथ युवाओं के लिए भी खास हो. वहीं उसे पुरुषों के अलावा महिलाएं भी पसंद करती हो. फिर चाहे वो फैशन के लिए कपड़े, चप्पल व जूतें आदि ही क्यूँ न हो.
मगर, इसी फैशन की दुनिया में एक ऐसी चप्पल, जो कोल्हापुरी के नाम से मशहूर है.. उसे जहां एक तरफ 700 साल पहले राजा-महाराजों ने पहना. वहीं आज उसे भारत का एक ही वर्ग नहीं बल्कि सभी उम्र व जेंडर के लोग फैशन के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
आप को जानकर हैरानी होगी कि आज हम जिस हल्की वजन की कोल्हापुरी चप्पल को पहनते हैं. वो किसी ज़माने में 2 किलो के आसपास हुआ करती थी. ऐसे में हमारे लिए कोल्हापुरी चप्पल के रोचक इतिहास व समय के साथ उसके बदलाव को करीब से जानना दिलचस्प होगा.
तो आइये जानते हैं, जींस के साथ कुर्ता पायजामा पर पहनी जाने वाली कोल्हापुरी चप्पल से जुड़े कुछ रोचक बातों के बारे में...
700 साल पुराना है इसका इतिहास
कोल्हापुरी चप्पल का इतिहास 13वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है. तब इसे राजा-महाराजाओं द्वारा पहली बार पहना गया था. 700 पहले से लेकर आज तक इस खूबसूरत हस्तकला को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तानांतरित किया जाता रहा.
इतिहासकारों के अनुसार बिजनेस की दृष्टि से इसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई. इसकी उत्पत्ति महाराष्ट्र राज्य से हुई थी. शुरूआत में इसे कपाशी, पाई-तान, बक्कलनाली व पुकारी आदि अनेकों नाम से पुकारा जाता था.
इसके कई नामों के पीछे की भी एक कहानी है. महाराष्ट्र के जिस-जिस गांव में इस चप्पल को बनाते थे. उसे उसी गांव के नाम से बुलाया जाता था. इस परंपरा को महाराष्ट्र राज्य के कुटुंब समुदाय के के लोगों ने अपनाया था. उन्होंने ने भारत के इस पुराने कला को सँभालते हुए अपनी एक पहचान बनाई.
तब इस चप्पल को मजबूत बनाने के लिए मोटे सोल का प्रयोग किया गया. कारीगरों ने महाराष्ट्र राज्य में अत्यधिक गर्मी व पहाड़ी इलाकों को देखते हुए मजबूत व टिकाऊ चप्पलों का निर्माण किया.
वहीं इसका वजन लगभग 2 किलोग्राम के आसपास होता था. एक जोड़ी चप्पल बनाने में लगभग 6 सप्ताह का समय लगता था. इस चप्पल को बनाने के लिए बीफ, भैंस व बैलों के चमड़ों का इस्तेमाल किया जाता था.
सौदागर परिवार ने दिलाई पहचान
कोल्हापुरी चप्पल को वक़्त के साथ खूबसूरत बनाने के लिए परिवर्तन किया जाता रहा, मगर अभी तक कोल्हापुरी को उसके अनुरूप पहचान नहीं मिल पाई थी. कुछ सालों बाद मुंबई के कई गांवों में इस चप्पल को बनाया जाने लगा था. उसी गांव में एक गांव कोल्हापुर भी था.
पांडूराम पाखरे ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने पहली बार इस चप्पल को मुंबई निवासियों से परिचय करवाया था.
दरअसल, साल 1920 में कोल्हापुर गांव के सौदागर परिवार ने इस चप्पल की डिज़ाइन को एक अलग रूप दिया. उन्होंने इसके वजन को काफी हल्का कर दिया था. वहीं इसके सोल फ़्लैट होने के साथ ही दोनों तरफ से झुके हुए थे. कानो की तरह पतली होने की वजह से इसे कनवली नाम दिया गया.
सौदागर परिवार ने अपने नई डिज़ाइन वाले इस चप्पल को मुंबई के मशहूर जे जे एंड संस शूज नामक दुकान के मालिक को बेचा. इस रिटेलर की दुकान पर इसको बहुत अधिक पसंद किया गया.
बढ़ती मांग को देखते हुए रिटेलर ने कई और जोड़ी चप्पलों की मांग कर डाली. एक समय ऐसा आया जब सौदागर परिवार अकेले मार्केट में इसकी डिमांड नहीं पूरी कर पा रहा था. तब वे दूसरे लोगों को भी अपनी इस हस्तकला का हुनर सिखाने लगे.
इसको इतना पसंद किया गया कि, ये अपने निर्मित गांव के नाम पर ही कोल्हापुरी के नाम से ही मशहूर हो गई. आज भले ही अलग-अलग डिजाइनों की वजह से इसके कई नाम हों, मगर मार्केट में इसे कोल्हापुरी चप्पल के नाम से ही जाना जाता है. इसी के साथ ही मुंबई की वह शॉप भी आज अपनी शाख बनाये हुए है.
रिपोर्टों की मानें तो इसको बनाने के लिए जो चमड़ा प्रयोग किया जाता है. वह अधिकतर कोलकाता और चेन्नई से आता है. आज जिला कोल्हापुर में कई ऐसे कुटुंब परिवार रहते है, जिनकी रोजी रोटी इसी चप्पल से चलती है.
कैसे तैयार होती है कोल्हापुरी चप्पल
अब ये चप्पलें समय की मांग के हिसाब से अलग-अलग पैटर्न में बनाई जाने लगी है. इसको बनाने के लिए बकरों, भैंस व बैलों के चमड़े का इस्तेमाल किया जाता है. सबसे पहले चमड़ों को कुछ देर पानी में छोड़ देते है, जिससे चमड़ा नरम हो जाता है. इससे चमड़े की बदबू भी लगभग समाप्त हो जाती है.
इसके बाद फर्मे की साइज के हिसाब से चमड़े को काट लिया जाता है. वाटर प्रूफ चप्पल बनाने के लिए कटे हुए चमड़े को तेल में भिगो देते हैं. इससे चमड़े की झुर्री को भी ख़त्म करने में मदद मिलती है
फिर चप्पल की एड़ी को उसके हिसाब से बनाकर चमड़े को सोल से अच्छी तरह जोड़ देते हैं. आगे चप्पल की डिजाइन के हिसाब से इसे आकार दिया जाता है. जैसे दो पट्टे, अंगूठेदार, आदि पैटर्न की तरह इसे तैयार करते हैं. आज के समय में पहले की अपेक्षाकृत हल्के वजन में निर्मित किए जाते हैं.
इसको पहले अधिकतर सफ़ेद ही धागे से सिला जाता था. वहीं इसका रंग भूरा या पीला ही होता था, मगर बढ़ते फैशन में कोल्हापुरी चप्पल को भी अलग-अलग रंगों में रंग दिया गया.
आज मार्केट में कोल्हापुरी लाल, हरी, गुलाबी, काली व सुनहरे आदि जैसे कई रंग-बिरंगे कलरों में उपलब्ध हैं. पूरी तरह तैयार होने के बाद इस पर धागे की कढ़ाई, मोती व गोटे (लैस) आदि से सजाया भी जाता है. कोल्हापुरी चप्पलों के अलावा इसके जूते व जूतियां भी काफी पसंद की जाती हैं.
एशिया के अलावा यूरोपीयन देशों की भी पसंदीदा
भारतीय हस्तकला द्वारा निर्मित यह चप्पल सिर्फ देश में ही नहीं विदेशों में भी काफी पसंद की जाती है. वेस्टर्न कपड़ों पर भी कोल्हापुरी चप्पल खूब जमती हैं. आज यह चप्पल जर्मनी, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, अमेरिका आदि जैसे यूरोपीयन व एशियन इत्यादि के देशों में भी निर्यात किया जाता है.
कारीगर कोल्हापुरी चप्पल की बनावट कुछ इस तैयार करते है कि सभी उम्र के पुरुष इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. इसकी खास बात यह है कि इसको एक तरफ जहां हमारे युवा वर्ग जींस पर भी पहनना पसंद करते हैं. वहीं हमारे बुजुर्ग कुर्ता पायजामा व धोती पर भी इसे पहनना अपनी शान समझते हैं.
कोल्हापुरी चप्पल का पुरुषों के अलावा महिलाओं के बीच भी एक बड़ा क्रेज माना जाता है. महिलाओं के लिए कई रंग-बिरंगे चप्पल अच्छी सजावट के साथ मार्केट में उपलब्ध होते हैं. महिलाएं सलवार सूट के अलावा जींस व साड़ियों पर भी इसको पहनना पसंद करती हैं.
इस कोल्हापुरी चप्पल की खासियत यह कि जहां इसको एक किसान व मध्यम वर्ग का परिवार रोजमर्रा के लिए पैरों में पहनता है. वहीं राजनेता से लेकर कई अभिनेता भी इसको पहने नज़र आते हैं.
इस चप्पल के इस्तेमाल से हमारे शरीर को भी फायदा मिलता है. ये गर्मियों में पहनने के लिए बहुत अच्छे होते हैं, क्योंकि यह पैर को ठंडा करता है और शरीर की गर्मी को भी कम करता है. इसी के साथ ही इसके कलर आँखों में चुभते नहीं है. इसके हल्के कलर एक तरफ जहां लोगों को आकर्षित करते हैं वहीं इसका वजन हमारे लिए आरामदायक होता है.
तो ये थी भारतीय हस्तकला से निर्मित कोल्हापुरी चप्पल से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों के बारे में, जो वर्षों से आजतक फैशन की दुनिया में अपनी पहचान बरकरार रखे हुए है.
मगर, अफ़सोस आज यह कला कई कारणों की वजह से समाप्त होने के कगार पर है. अत: इसको बचाए रखने के लिए कोई ठोस कदम उठाये जाने की आवश्कता है.
Web Title: History of Kolhapuri Footwear, Hindi Article
Feature Image Credit: Kolhapurichappal