आज बॉलीवुड या भारतीय सिनेमा विश्व स्तर तक पहुंच गया है. यह विश्व में अपना नाम शीर्ष स्थानों में रखता है. फिल्मों और गीत से हर भारतीय एक गहरा नाता रखता है.
यही वजह है कि आज भी दशकों पुरानी हो चुकी फिल्मों के डायलॉग बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहते हैं. अब वो चाहे शशि कपूर का ‘मेरे पास माँ है', हो या फिर सनी देओल का ‘ढाई-किलो का हाथ’. कहने का मतलब ये है कि बॉलीवुड से हमारी जिंदगी कहीं न कहीं बहुत पास से जुड़ी है.
माइथोलॉजी से शुरुआत हुई इन फिल्मों ने आज लगभग ‘हर’ प्रकार की फिल्मों को बनाना शुरू कर दिया है. इसी तरह फिल्मों के साथ-साथ महिलाओं के किरदार और उनका चित्रण भी बदलता रहा है.
अब माँ, बहन और आदर्श पत्नी से लेकर आज एक करियर-ओरिएंटेड महिला का सफ़र तय हुआ है. ऐसे में, सिनेमा में महिलाओं के बदलते स्वरुप के विषय में जानना दिलचस्प रहेगा.
जानते हैं, हिंदी सिनेमा में महिलाओं की बदलती तस्वीर के बारे में-
एक नज़र 'बॉलीवुड' के इतिहास पर
साल 1931 से पहले भारत का सिनेमा मूक था. जो आमतौर पर ‘साइलेंट एरा’ के रूप में जाना जाता है. साल 1913 में दादा साहब फाल्के ने भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी.
इसके बाद 1931 में आई फिल्म ‘आलम आरा’ भारत की पहली बोलती फिल्म बनी. इसका निर्देशन अर्देशिर ईरानी ने किया था. इस फिल्म ने बहुत बड़ा बिज़नेस किया. ब्लैक एंड वाइट फिल्मों के दौर में हर साल लगभग 200 फ़िल्में बनाई जाती थी.
इस तथ्य से पता चलता है कि यह इंडस्ट्री के रूप में शुरुआत से ही विशाल था. इसके साथ ही इससे भारी तादाद में लोग जुड़े रहे.
सिनेमा को समाज का प्रतिबिंब माना जाता है. साथ ही, इससे समाज भी काफी हद तक प्रभावित होता है. यह लोगों की सोच को भी प्रभावित करता है. शुरुआत में फिल्मों की कहानी पौराणिक कथाओं पर बनाई गयी. आज़ादी से पहले यह स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी एक अहम साधन की तरह थी.
वहीं आज़ादी के बाद अब सिनेमा के जरिये सामाजिक मुद्दों को उठाया जाने लगा. इस दौरान फिल्मों में गरीबी, गाँव-देहात की दयनीय तस्वीर दिखाई गयी. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है ‘दो बीघा जमीन’. इस फिल्म में ज़मींदारी सिस्टम पर गहरा आघात किया गया है.
'महिलाओं’ का चित्रण एक मजबूत नारी के तौर...
1950 के दशक तक आते-आते रंगीन फिल्मों ने काफी लोकप्रियता हासिल कर ली थी. इसी के साथ हिंदी फिल्म्स में भी बदलाव आने शुरू हो गए थे.
फिल्म के डायलॉग से लेकर गाने तक सब कुछ बदलने लगा था. अब फिल्में रोमांटिक भी होनी शुरू हो गई थी. इसी दशक में कई बड़े-बड़े सितारे जैसे दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, नरगिस, नूतन, मीना कुमारी और मधुबाला जैसी नायिकाएं उभरी.
1960 के दशक में फिल्में अब विदेश में भी बनायीं जाने लगी यानी कि अब विदेशी लोकेशन का भी चित्रण किया जाने लगा. अब गानों के साथ-साथ डांस भी बढ़ने लगा. फिल्मों में इस समय धर्मेंद्र और राजेश खन्ना बहुत लोकप्रिय हुए.
1950 से 1970 के बीच के समय को बॉलीवुड फिल्मों का सुनहरा काल माना गया. इस दौरान भले ही सिर्फ ग्रामीण भारत का चित्रण था, लेकिन इसमें भारत की परम्पराओं, व्यवहार, नैतिकता आदि का बखूबी चित्रण किया गया.
सबसे बड़ी समस्या ‘गरीबी' के विषय को लेकर भी एक से एक बढ़कर मूवीज बनीं. जैसे कागज़ के फूल, मदर इंडिया पाकीज़ा और पड़ोसन.
ये समय ऐसा भी था जब महिलाओं के कंधे को भी किसी फिल्म को चलाने में अहम माना जाता था. उनका किरदार भी पुरुषों के बराबर मजबूत होता था. महिलाओं को भी भी उस समय दमदार किरदार दिए जाते थे.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है साल 1957 में आई फिल्म ‘मदर इंडिया’ है. महबूब द्वारा बनायीं गई इस फिल्म में नरगिस का किरदार बेहद प्रभावशाली रहा है.
बॉडी और मेकअप को मिलने लगी ज्यादा तवज्जों
1980 का दशक ‘एक्शन’ से भरपूर था. इस दौरान स्क्रीन पर महिलाओं की जगह सिमटने लगी. महिलाओं का प्रयोग अब फिल्मों में ग्लैमर जोड़ने के लिए किया जाने लगा. उन्हें फिल्मों में डांस और गाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा.
इस दशक में अब महिलाओं के अपहरण, बलात्कार और हत्या जैसे सीन्स का प्रयोग ज्यादा होने लगा. पहले की मजबूत नारी को अब बेचारी, दुर्बल और बेसहारा की तरह चित्रित किया जाने लगा.
स्मिता पाटिल द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सोनबाई’ में इस बात को महसूस किया जा सकता है. इस फिल्म में महिलाओं का इस्तेमाल ग्लैमर के तौर पर भी किया गया है.
बात अगर हाल-फिलहाल के सिनेमा इतिहास की करें तो अब हीरोइन की बॉडी उसके सफल होने के लिए जरूरी समझी जाने लगी है. यह देखा जाने लगा कि हीरोइन जिम में कितना समय व्यतीत करती है. वो कितनी फिट है आदि.
बता दें, इस समय श्रीदेवी ‘थंडर थाइस’ के नाम से जानी जाती थीं. अब हीरोइन अपना ज्यादा समय जिम और मेकअप रूम में ज्यादा समय बिताने लगीं.
खैर, इस दौरान श्रीदेवी ने ‘हिम्मतवाला’ और ‘जोशीले’ जैसी फिल्म में भी काम किया था. जिसमें उन्होंने एक बहुत मजबूत महिला का किरदार निभाया था.
90 का दशक और एक 'होममेकर' की छवि
1990 के दशक में हिंदी सिनेमा बहुत बड़े बदलाव आये. इस दौरान, महिलाओं का किरदार बिल्कुल बदलने लगा था. साल 1994 में आई फिल्म ‘मोहरा’ में इस बात को देखा जा सकता है. इसमें महिला को स्वाबलंबन की तरफ बढ़ते हुए दिखाया गया है. इसमें हीरोइन एक पत्रकार का किरदार निभाती है.
इसी दशक में एक बार फिर महिला को सिर्फ एक ‘होममेकर’ के तौर पर दिखाया जाने लगा. जिसमें ‘बीवी नं 1’, कुछ-कुछ होता है, दिल तो पागल है और कभी ख़ुशी कभी गम शामिल हैं. इस दौरान किसी भी महिला को करियर के प्रति समर्पित नहीं दिखाया गया.
इसके साथ ही, अब फिल्मों में महिलाओं के ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ होने की छवि भी पेश की जाने लगी. यदि कोई महिला धूम्रपान या शराब पीती है तो वह ‘वैम्प’ ही है. अब या तो एक महिला बहुत संस्कारी यानी ‘अच्छी’ या फिर ‘बुरी’ ही दिखाई जाने लगी.
90 के दशक में एक बात और बहुत ख़ास रही. इस दौरान, अब हीरोइनों ने भी बोल्ड और स्टाइलिश कपड़े पहनने शुरू कर दिए. पहले की फिल्मों में यह सिर्फ खलनायिकाएं ही पहना करती थीं.
आगे चलकर, ‘कॉर्पोरेट’ और ‘निशब्द’ जैसी फिल्में भी आईं. राम गोपाल वर्मा के निर्देशन में बनी फिल्म ‘लोलिता’ ने भी काफी हद तक महिलाओं को अलग तरीके से दिखाया.
‘निशब्द’ में जिया खान द्वारा एक टीनएज लड़की का बूढ़े व्यक्ति से प्यार हो जाना जैसे किरदारो को भी दिखाया गया.
ऐसे ही आज जहां महिला केन्द्रित फिल्में भी ज्यादा बनने लगी हैं. उनके किरदार में भी वजन डाला जा रहा है. वहीं दूसरी एक धड़े में महिलाओं का इस्तेमाल किसी वस्तु की तरह भी हो रहा है.
खैर, आज भी सिनेमा के गलियारों में महिलाओं के किरदार पुरुषों जितने प्रभावशाली कम ही होते हैं. आपकी इसपर क्या राय है कमेंट बॉक्स पर जरुर बताएं.
Web Title: How Much Of Hindi Cinema Heroines Have Grown Till Now, Hindi Article
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