भारत में हिंदी धारावाहिक बड़े ही चाव से देखे जाते हैं. इसे गृहणियों से लेकर घर के पुरुष भी देखते हैं.
हर दिन के साथ इस टेलीविज़न इंडस्ट्री की ऑडियंस बढती जा रही है. एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2016 की तुलना में 2017 में करीब 3.5 प्रतिशत घरों में टीवी देखने में बढ़ोत्तरी हुई है.
बात साफ है कि हमारे देश के लोगों का एक बड़ा हिस्सा टीवी पर अपना समय बिताता है. ऐसे में इसका प्रभाव भी उतना ही अधिक बढ़ जाता है.
इतने बड़े प्रभाव के बावजूद आज भी मीडिया कहीं न कहीं ‘महिलाओं' की बुनी-बुनाई तस्वीर’ को तोड़ने के बजाय और अधिक बना रही है.
आज भी ज्यादातर टीवी धारावाहिक में महिलाओं को बेचारी, बेसहारा और लाचार स्त्री के तौर पर ही दिखाया जाता है. ऐसे में, समय के साथ बदलते टीवी सीरियल की दुनिया में महिलाएं अभी क्यूँ पीछे ही हैं?
तो आइये, इसी प्रश्न के उत्तर के पीछे की वजहों को जानने का प्रयास करते हैं-
एक ‘आदर्श’ स्त्री की बनावटी परिभाषा
हमारे हिंदी टीवी धारावाहिकों में पितृसत्ता की झलक बड़ी सहजता से देखने को मिल जाती है.
इन धारावाहिकों में महिला और पुरुष के काम निर्धारित होते हैं. जहाँ पुरुष नौकरी के लिए बाहर जाता है. जबकि महिलाओं को केवल घर के कामों तक सीमित रखा जाता है.
वह एक आदर्श स्त्री मानी जाती है अगर वह अपने घर की सारी जिम्मेदारियां बिना किसी झिझक के पूरा करती हैं.
उन जिम्मेदारियों में शामिल है अपने पति के लिए सुबह उठकर टिफिन बनाना, बच्चों की सारी जिम्मेदारी अकेले ही निभाना और शाम को जबतक पति वापस घर न लौटे तब तक खाना नहीं खाना.
अपने पति के लिए कई सारे व्रत रखना. एक पतिव्रता स्त्री होना आदि. अगर वह इन सब कामों को नहीं करती है तो, वह आपके सीरियल नेगेटिव किरदार कहलाएगी.
कहने का मतलब यही है कि कहीं न कहीं इन धारावाहिकों ने एक स्त्री के आदर्श होने की एक ‘अजीब’ सी परिभाषा बना दी है.
इसके अलावा, अगर कोई स्त्री बाहर जाकर काम करती है तो, उसे घर की भी सारी जिम्मेदारियां उठानी होगी. इस तरह महिलाओं पर दोहरा बोझ आता है. उन्हें इस अवस्था में एक सुपर वुमन की तरह का तमगा दे दिया जाता है.
जिसमें ना चाहते हुए भी महिलाओं को फिट बैठना ही पड़ता है. यानी एक ऐसी छवि जिसमें आप भले ही एक पुरुष के बराबर काम कर रहीं हैं, बावजूद इसके घर के कामों की जिम्मेदारी भी आपकी ही है.
सुंदरता की परिभाषा सिर्फ गोरे रंग से ही क्यों?
हिंदी धारावाहिकों में सबसे बड़ी बात देखने को मिलती है तो, वह है लड़की सांवली नहीं होनी चाहिए.
जब कभी लड़के वाले लड़की के घर रिश्ता लेकर जाते हैं, तब लड़के वाले अगर सबसे पहले कुछ देखते हैं तो, वह है लड़की का ‘गोरा' रंग.
यह सपना बाबुल का...बिदाई और सबकी जोड़ी वही बनाता...भाग्यविधाता जैसे सीरियल में दिखाया गया. इसमें लड़की को अपने रंग के लिए कई तरह की बातें सुननी पड़ती थीं.
उन्हें हर समय उनके रंग के लिए ताने दिए जाते. उनके साथ बुरा बर्ताव होता और यह सिर्फ उनके रंग को लेकर.
जिसमें उनकी किसी भी तरह की कोई गलती नहीं होती है. धारावाहिकों के साथ-साथ विज्ञापनों में भी इस तरह महिलाओं के रंग को लेकर घटिया तस्वीर पेश की जाती है.
इस तरह से तस्वीर पेश की जाती है जैसे आपका गोरा रंग ही सबकुछ है. इसी पर सारी दुनिया टिकी हुई है.
इसके अलावा, धारवाहिकों में यदि बेटी सांवली है तो उसके घरवालों को भी बहुत परेशान होते हुए दिखाया जाता है. उन्हें अपनी बेटी के लिए रिश्ते ढूँढने में भी बहुत परेशानी होती है.
...और तभी आपकी ‘बहु’ संस्कारी है
बिंदी, चूड़ी, सिन्दूर और मंगल-सूत्र के बिना रहने वाली धारावाहिक जगत की स्त्रियाँ संस्कारी नहीं होती है.
अगर वह भारतीय परिधान साड़ी और सूट को तवज्जों नहीं देती हैं तो भी वह संस्कारी नहीं हैं.
साथिया सीरियल के एक दृश्य में एक महिला किरदार ही यह कहती हुई नज़र आती है कि, ‘जिसे कपड़े पहनने का का ढंग नहीं वह अपने बच्चों को क्या संस्कार देगी.’
इस प्रकार कहीं न कहीं आपका परिधान भी आपको सीरियल की दुनिया की आँखों से संस्कारी या असंस्कारी का तमगा देने में अहम है.
इसके अलावा, महिलाओं का अपने पति द्वारा बुरा व्यवहार करने के बावजूद उससे अटूट प्रेम करते रहने की छवि भी जरा पचती नहीं है.
कुछ धारावाहिकों ने यह छवि तोड़ी भी…
बदलते वक़्त के साथ आज भी धारावाहिक ज्यादा नहीं बदले हैं. अगर कुछ बदला तो, वह चेहरे है, लेकिन कहानी कहीं न कहीं एक जैसी ही रही.
हालांकि, कुछ धारावाहिक ऐसे भी आये जिसमे समाज में व्याप्त बुराइयों पर गहरा आघात किया गया. इसमें 'बालिका वधू' और 'न आना इस देश मेरी लाडो' जैसे सीरियल भी शामिल हैं.
'बालिका वधू' धारावाहिक में बाल विवाह जैसी कुरीति पर वार किया गया था.
वहीं 'लाडो' में कन्या भ्रूण हत्या जैसे गंभीर मुद्दे को भी उठाया गया. वहीं दूसरी ओर 'एयरलाइन्स' नाम का सीरियल भी आया. जिसमें कामकाजी महिलाओं के दृश्य को सामने रखा गया.
इस सीरियल में एयर होस्टेस को किन तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इस बात को दिखाया गया.
इसके अलावा, प्रतिज्ञा और उड़ान जैसे धारावाहिक भी आये. इन सीरियल में एक महिला का सशक्त रूप प्रकट किया गया.
प्रतिज्ञा में मुख्य किरदार को बोल्ड और अपने हक के लिए हमेशा आवाज उठाने वाली दिखाया गया. वह अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं करती है. साथ ही, अपने साथ होने वाले अत्याचारों का मुंह तोड़ जवाब देती है.
ठीक इसी प्रकार उड़ान टेली-सीरियल में भी एक ऐसा महिला किरदार बुना गया, जो अपने सपने को जीती है. वह अपनी इच्छा को मरने नहीं देती है बल्कि उसे पूरा करती है.
आज भी हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा टीवी सीरियल की दुनिया से जुड़ा हुआ है. ऐसे में इसका प्रभाव भी उतना ज्यादा है.
यह लोगों की सोच में बदलाव लाने का एक बड़ा साधन है. ऐसे में, टीवी सीरियलों के जरिये इस सोच को बदलने के बारे में अवश्य सोचना चाहिए.
हालांकि, पहले की अपेक्षा अब बदलाव आना शुरू हुआ है. लेकिन अभी भी इस तरह के सीरियलों की संख्या बहुत कम है.
Web Title: How Much Of The Image Of Women Have Changed, Hindi Article
Feature Image Credit: scoopwhoop