लजीज कबाबों का नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है. हैदराबाद के पत्थर कबाब, लखनऊ के टुंडे और शामी कबाब दुनिया भर में मशहूर हैं. माना जाता है कि मुगलों के भारत में शासनकाल शुरू होते ही भारतीय खाने में बदलाव आने लगा था.
असल में मुगलों और भारतीय राजाओं के संघर्ष के दौरान खानसामे सबसे सुरक्षित थे. इस लिहाज से जो भी मुगल शासक अपराजित होता था, उसके खानसामे भारतीय राजाओं की रसोई में काम करने लगते थे.
ऐसा ही होता था, जब भारतीय राजा मुगल आक्रमणकारी से हार जाते थे. इस प्रकार मुगलों को भारतीय खाने और भारत को मुगल खाने का स्वाद चखने मिला.
कबाब इसी सफर के बीच जन्म लेने वाला एक व्यंजन है. इसके आविष्कार और इनके भारत आने की कहानी काफी दिलचस्प है. कहते हैं कि कबाब के भारत पहुंचने का रास्ता आसान नही रहा. कई खूनी जंग देखने के बाद इन्हें भारतीय रसोई में स्थान मिला.
अब जब इसकी खुशबू दुनिया भर में फैल रही है, तो इसके पूरे सफरनामे पर नज़र डालना दिलचस्प हो जाता है–
तुर्क में बना था पहला कबाब
18वीं शताब्दी में पहली बार ‘ऑट्टोमन यात्रा’ की किताबों में कबाबों का जिक्र मिला. इन तथ्यों की मानें तो 12वीं शताब्दी में पूर्वी तुर्क के एर्जुरुम प्रांत में पहली बार कबाब की रेसिपी इजाद की गई थी, हालांकि तब उसे कबाब का नाम नही दिया गया. उस दौरान मांस के टुकड़े को एक मोटे तवे पर पकाया गया और उसके ऊपर सूखे—पिसे हुए मसाले डाले गए.
ऑट्टोमन यात्रा ने अपनी किताब में इन्हें ‘क्यूब कबाब’ का नाम दिया है. ‘दा फादर आॅफ दा मॉर्डन डोनर कबाब’ के नाम से मशहूर इस्केंडर इफेंडी लिखते हैं कि वह अपने दादा के साथ भेड़ के झुंड को चराने ले जाया करते थे. भेड़ों के झुंड से ही उन्हें इनका मांस भूनकर पकाने का विचार पहली बाहर आया और यहीं से ‘वर्टिकल रोटिसेंरी’ नाम की एक और डिश का अविष्कार हुआ. इसे ही आगे चलकर दुनिया ने ‘कबाब’ के रूप में जाना.
तुर्की भाषा में कबाब को ‘कबुबा‘ कहा जाता है. जिसका शाब्दिक अर्थ है, ऐसा मांस जिसे बिना पानी के पकाया जाता है. कबुबा को सुमेरियन भाषा में ‘बारबेक्यूइंग’ कहा जाता है. भारत समेत दूसरे मुस्लिम देशों में इसे कबाब के नाम से ही जाना गया.
Kebab (Pic: Wikipedia)
चंगेज खान का पसंदीदा ‘कबाब’
तुर्क में मांस के टुकड़ों को तवे पर पकाना शुरू हो गया था, लेकिन इसका सही फायदा चंगेज खान को जंग के दौरान मिला.
चंगेज खान मंगोल साम्राज्य के प्रमुख शासकों में से एक था. उसने 1206 से 1227 तक कुल 21 वर्षों तक शासन किया. उसने अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए बड़े स्तर पर जंग लड़ी और हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया.
उसकी मंगोल सेना के बारे में कहा जाता है कि वह सबसे क्रूर थे और उन्हें ऐसा बनने के लिए चंगेज खान ने प्रोत्साहित किया. उसकी जीत उसके सैनिकों पर निर्भर थी, इसलिए वह उनके खानपान का पूरा ख्याल रखता था. खास बात तो यह थी कि चंगेज खान वही भोजन खाता था, जो उसके सैनिक खाते थे.
मंगोल के सैनिक जब जंग के लिए जाते थे, तब उनकी पत्नियां मांस, प्याज, आटा और चावल के साथ कुछ सूखे—पिसे मसाले रखतीं थी. सैनिक जंग के बाद विश्राम करते थे. इस दौरान वह अपनी तलवारों पर मांस के टुकड़े लपेट कर आग में भूनते थे. भुन जाने के बाद इन पर सूखे मसाले डालकर खाते थे. इसके साथ मंगोल योद्धा अपनी टट्टू और घोड़े की गर्दन के पास की एक नस से खून निकालकर पीते थे.
तलवारों पर मांस के टुकडों को गर्म करने का चलन बाद में तुर्क के घरों में भी आ गया. घर पर लोहे की रॉड में मांस के टुकड़े लपेटकर सॉस और हरी सब्जियों को मिलाकर कबाब तैयार किए जाने लगे. कहा जाता है कि पहली बार यहीं से सीक कबाब का अविष्कार हुआ.
एक वक्त ऐसा आया जब सैनिकों के पास आटा—चावल खत्म हो गया, तब उन्होंने अपने ही मरे हुए जानवरों के मांस को आग में भूनकर खाया और चंगेज खान के लिए यूरोपीय एशिया पर धावा बोला.
Genghis Khan Traditional Delicacy (Pic: Wayfaring)
भारत का पहला कबाब
माना जाता है कि भारत में पहली बार कबाब 16वीं शताब्दी में ईजाद किए गए. उस दौरान मुगलों का शासन था, इसलिए कबाब की रेसिपी ने भारत में आसानी से प्रवेश पा लिया. शाहजहां और मुमताज महल के बेटे औरंगजेब ने पहली बार गोलकुंडा किले की फतह के दौरान सैनिकों के भोजन के लिए कबाब बनवाए.
गोलकुंडा किला हैदराबाद में स्थित है. यह वही किला है, जिसने भारत को कोहिनूर हीरा दिया.
28 जनवरी, 1627 ई. को औरंगज़ेब ने गोलकुंडा के क़िले पर आक्रमण किया था. यह जंग आसान नही थी. किले के लिए औरंगजेब के सैनिकों ने पूरे नौ माह तक संघर्ष किया. इस दौरान उसके सैनिक खाने के लिए कबाब शैली का उपयोग करते थे. पर यहां तलवारों पर मांस नही भूना गया.
चूंकि, हैदराबाद में बड़ी संख्या में ग्रेनाइड पत्थर मौजूद हैं, जो अपेक्षाकृत ज्यादा गर्म होते हैं. इसलिए सैनिक मांस भूनने के लिए इन्ही पत्थरों का उपयोग करते थे. इसका दूसरा तथ्य यह भी है कि मांस को पत्थरों से चिपका देने से पत्थरों की गर्मी को कम किया जा सकता था. इस प्रकार सैनिकों को गर्मी से राहत मिलती थी और कबाब का स्वाद भी.
आज भी ‘हैदराबाद के पत्थर कबाब‘ काफी मशहूर हैं. इन कबाबों को अब भी ग्रेनाइड पत्थर पर गर्म करके ही तैयार किया जाता है.
Grilled Lemon Garlic Chicken Tomato Kebabs (Pic: Funnyjunk)
‘अकाल’ में सहारा बने कबाब
भारत के अवध में पहली बार रसोई में कबाब तैयार किया गया. अवध के नवाब वज़ीर और शुजाउद्दौला के बेटे आसफ़ुद्दौला को स्वादिष्ट और नए प्रकार के भोजन का शौक था. उन्होंने अपनी रसोई में पेटी कबाब, मोती पालो और अरवि का सालन जैसे पकवानों को इजाद करवाया.
दरअसल एक उम्र के बाद नवाब के दांत खराब हो गए थे और वह सख्त खाना नहीं खा पाते थे, इसलिए उनकी रसोई में भेड़ और बकरी के मांस से बने कबाब तैयार किए जाते थे. यह कबाब सबसे नर्म होते थे, जो मुंह में रखते ही घुल जाते थे. इन्हें बाद में शामी कबाब के नाम से जाना गया… शामी कबाब भारत के अलावा, पाकिस्तान और बांग्लादेश में काफी मशहूर हैं.
दरअसल अवध की रसोई में आने के बाद ही कबाबों को असली पहचान और स्वाद मिला.
आसफ़ुद्दौला के बारे में एक बात और कही जाती है. उन्होंने अकाल के दौरान आम लोगों को मजदूरी मिल सके, इसलिए लखनऊ में बहुत से निर्माण करवाए. इसमें सबसे मशहूर है आसफ़ी इमामबाड़ा. इसके अलावा क़ैसरबाग़, ‘दिलकुशमहल’, ‘बेली गारद दरवाज़ा’ और ‘लाल बारादरी’ आदि शामिल है. उन्होंने अकाल के दौरान ज्यादा खानसामे अपनी रसोई में रखे थे. इससे उन्हें स्वादिष्ट भोजन मिलता था और रसोईयों को मजदूरी.
आसफ़ुद्दौला की रसोई में अकाल के दौरान ही कबाबों की नई किस्में तैयार की गईं थी. इस दौरान टुंडे कबाब, शामी कबाब, गोलकादि कबाब के साथ ही शाकाहारी कबाब भी तैयार किए गए. आज भी लखनऊ में नवाबकाल के रसोईयों के वंशज कबाबों की दुकानें चला रहे हैं.
Mutton Shami Kebab (Pic: Crazy)
टुंडे कबाब का दिलचस्प किस्सा
टुंडे कबाब लखनऊ की पहचान है. यहां सबसे पुरानी कबाब की दुकान चलाने वाले रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अली और उनके पिता भोपाल के नवाबों के प्रमुख खानसामे थे. हाजी मुराद अली को पतंग उड़ाने का शौक था. एक बार पतंग उड़ाने के दौरान वह छत से नीचे गिर गए और उनका हाथ टूट गया.
इसके बाद वह नवाबों के लिए कबाब तैयार करते थे. उनके द्वारा तैयार किए जाने वाले कबाबों को टुंडे कबाब का नाम दिया गया. टुंडे का दूसरा अर्थ टूटा हुआ होता है. बस तभी से उनके कबाबों को टुंडे कबाब के नाम से जाना जाने लगा. हाजी मुराद कबाब बनाने के लिए 160 किस्म के मसाले इस्तेमाल करते थे. एक मसाले के बाद दूसरा मसाला डालने का निश्चित क्रम था. उनकी इस तकनीक को अब तक नहीं बदला गया है.
खास बात यह है कि उनका परिवार आज भी टुंडे कबाब बनाता है और उन ‘खास’ कबाबों को बनाने की रेसिपी उनके बेटों के अलावा और कोई नही जानता.
Tunde Kebab (Pic: Medium)
कुल मिलाकर कबाब बनाने का तरीका सदियों पुराना है, जिसको खाने के बाद हमारे मुंह से यहीं निकलता है, वाह क्या बात है.
क्यों सही कहा न… वैसे आपको कौन सा कबाब पसंद है, कमेन्ट बॉक्स में शेयर करें.
Web Title: Journey of Kebabs from History, Hindi Article
Feature Image Credit: Marketingvoice