इंसान को दुनिया में जिन्दा रहने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं, लेकिन जब सामूहिक रूप से यह काम किया जाए तो वह कहलाता है 'लिज्जत पापड़!
जी हां यह वही नाम है, जो हमारे परिवारों में दशकों से लिया जा रहा है. जब भी राशन की लिस्ट तैयार होती है, तब उसमें लिज्जत पापड़ का नाम जरूर लिखा जाता है.
आखिर हो भी क्यों नहीं, भारत में पापड़ का पर्याय लिज्जत ही तो है. पर जिस रोज लिज्जत का पहला पापड़ बेला गया था, तब किसी ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन पूरा देश इसके स्वाद का दीवाना होगा और हजारों महिलाओं के घर की रोजी-रोटी चल निकलेगी.
यूं तो रास्ते में कई मुश्किलें आईं पर सबको पार करते हुए, सरकार से कोई आर्थिक सहायता लिए बिना 'लिज्जत पापड़' की अनवरत यात्रा आज भी जारी है.
तो चलिए लिज्जत पापड़ के स्वाद को एक बार उसकी कहानी के जरिए चखते हैं.
80 रुपए उधार लेकर शुरू किया काम
मुंह में स्वाद घोल देने वाले लिज्जत पापड़ की शुरूआत किसी बड़े उद्योग या फिर पैसे कमाने के उद्देश्य से नहीं हुई. बल्कि 1959 में मुंबई में रहने वाली जसवंती बेन ने अपने परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए शुरू किया था.
इस काम को करने वाली वे अकेली नहीं थीं, बल्कि उनके साथ थी 6 और महिलाएं. इन महिलाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि वे परिवार के खर्च को कैसे सम्हालें. पहले सामान खरीदने में कटौती की, फिर कम खाना शुरू कर दिया.
किन्तु, यह समस्या का हल नहीं था. पढ़ीं लिखीं नहीं थी, इसलिए नौकरी मिलना संभव नहीं था. जिन्हें अक्षर ज्ञान था वे परिवार की बंदिशों में थीं. तो अब एक ही रास्ता था! कुछ ऐसा काम किया जाए जिसके लिए घर से बाहर भी न जाना पड़े और पैसे भी आ जाएं.
उनके पास घर के काम खत्म करने के बाद काफी समय बाकी था, जिसमें वे व्यवसाय कर सकती थीं. पर समस्या यह थी कि आखिर किया क्या जाए?
सभी महिलाएं गुजराती परिवार से थीं, तो जाहिर है कि उन्हें पापड़-खाखरा बनाने में महारत थी.
जसवंती जमनादास पोपट ने तय किया कि वे यही काम करेंगी. उनके साथ शामिल हुईं पार्वतीबेन रामदास ठोदानी , उजमबेन नरानदास कुण्डलिया, बानुबेन तन्ना, लागुबेन अमृतलाल गोकानी, जयाबेन विठलानी. उनके साथ एक और महिला थी, जिसे पापड़ों को बेचने की जिम्मेदारी दी गई.
व्यवसाय तय हो चुका था. पापड़ बनाने की विधि भी सबको पता थी. चूंकि यह महिलाओं वाला काम था, इसलिए परिवार ने भी रोकटोक नहीं की. अब समस्या थी तो बस व्यवसाय शुरू करने के लिए पैसों की.
जिसका जुगाड़ करने के लिए ये सातों महिलाएं सर्वेंट आॅफ इंडिया सोसायटी के अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता छगनलाल पारेख के पास पहुंचीं. छगनलाल को महिलाओं के व्यवसाय से ज्यादा उनके साहस को देखकर खुशी हुई. बिना देर किए छगनलाल ने 80 रुपए उधार दे दिए.
...और इस तरह बना बना पहला पापड़
रुपए उधार देने के बाद छगनलाल ने महिलाओं को एक फर्म के बारे में बताया जो घाटे में चल रही थी, और अपनी मशीनें बेच रही थी. सो वहां जाकर महिलाओं ने पापड़ बनाने की एक मशीन खरीद ली. साथ में खरीदा गया वह सामान जो पापड़ बनाने के लिए जरूरी था.
15 मार्च 1959 वह दिन था, जब लिज्जत का पहला पापड़ बेला गया.
महिलाएं मशीन लेकर अपने घर की छत पर पहुंची. दो महिलाएं मशीन सेट कर रही थीं. बाकी पापड़ बनाने के लिए आटा लगाने लगीं. एक महिला ने पॉलीथिन तैयार की, जिसमें पापड़ों को रखा जा सके.
दो घंटे में यह काम खत्म करने के बाद आटे की पहली लोई मशीन में रखी गई और एक मिनिट से भी कम में वह पापड़ बनकर उतर आई. पहले पापड़ को देखकर सातों महिलाओं के चेहरे पर ऐसी मुस्कान आई जैसे कोई हीरा तराशा गया हो!
बस इसके बाद यह सिलसिला जारी रहा. कुछ ही घंटों में इतने पापड़ तैयार हो गए थे कि उनके चार पैकेट बनाए जा सकें. यह पहला प्रयोग था, इसलिए केवल चार पैकेट तैयार कर काम रोक दिया गया.
फिर इन पैकेट को जाने माने व्यापारी भुलेश्वर को बेचा गया. भुलेश्वर ने कहा कि यदि पापड़ बिक गए और मांग बढ़ी तो पहला आॅर्डर उन्हीं की तरफ से आएगा. अब इंतजार था उस सुबह का जब पापड़ों के सभी पैकेट बिक जाएं.
आखिर मेहनत रंग लाई और अगले ही दिन भुलेश्वर की दुकान से एक कर्मचारी आया, जिसने कहा सेठ जी ने और पापड़ मंगवाए हैं. इस खबर को सुनते ही उनकी खुशी का ठिकाना न रहा. जल्दी से घर का काम निपटाकर उन्होंने पापड़ बनाना शुरू कर दिया.
चार पैकेट से 40 और फिर 400 तक पहुंचने में वक्त नहीं लगा. खास बात यह थी कि सातों ने तय किया था कि वे इस व्यवसाय के लिए किसी से चंदा नही मांगेगी, चाहे हमारा व्यवसाय घाटे में ही क्यों ना चला जाये. कुछ माह की मेहनत में ही उन्होंने 80 रुपए का उधार चुका दिया.
बचे हुए पैसों से पापड़ बनाने का और सामान खरीदा और कुछ पैसे आपस में बांट लिए.
पहले साल कमाएं 6196 रुपए
छगनलाल को महिलाओं की मेहनत पर पूरा यकीन था सो उन्होंने मार्गदर्शन दिया. पहले दो प्रकार के पापड़ बनाएं गए, जो क्वालिटी के हिसाब से महंगे और सस्ते थे. इसके बाद छगनलाल ने उन्हें स्टैण्डर्ड पापड़ बनाने के सुझाव दिया. जिसमें किसी भी स्थिति में क्वालिटी से समझौता न किए जाए.
छगनलाल ने महिलाओं के इस समूह को व्यापार करने का हुनर सिखाया, ग्राहकों से बात करना, उनकी मांग समझना और घाटे से उभरने की तरीके बताए. साथ खुद उनके व्यापार का लेखा-जोखा सम्हालना शुरू किया.
3 माह की मेहनत ने ही सात सहेलियों के इस समूह ने कोआपरेटिव सिस्टम का रूप ले लिया. जिसके तहत और जरूरतमंद महिलाओं को जोड़ा गया. कॉलेज जाने वाली लड़कियां भी इसकी सदस्य बनी.
सदस्य बनने के लिए न्यूनतम आयु सीमा 18 वर्ष तय की गई और अधिकतम सीमा का कोई निर्धारण नहीं किया. जिसके कारण हर उम्र की महिला इस समूह में शामिल होती गई.
3 माह में समूह में 7 से बढ़कर 25 महिलाएं हो गई. पहले साल में इसकी वार्षिक आय 6196 रूपये हुई. उस दौर में यह रकम बहुत बड़ी थी. साल के आठ माह तो व्यापार अच्छा हुआ पर बारिश के चार माह काम ठप्प रहा.
चूंकि धूप नहीं निकलने के कारण पापड़ सूखते नहीं थे. एक साल तो यूं ही निकला पर जब अगले साल बारिश आई तो महिलाओं ने पापड़ सुखाने का नया तरीका इजात कर लिया.
वे पापड़ों को खटिया पर सुखाती और उसके पास में स्टोव जलाया जाता. जिसकी गर्मी से पापड़ सीलने से बच जाते. यानि दूसरी बार उन्होंने पूरे साल काम किया. पापड़ों के व्यवसाय को बढ़ाने के लिए उन्हें किसी विज्ञापन की जरुरत नहीं पड़ी.
चूंकि पापड़ों का स्वाद ही इतना अच्छा था कि सभी इसकी तारीफ करते थे. दो साल के भीतर मुंबई के अलावा आसपास के गांव कस्बों में भी इन पापड़ों की महक पहुंच गई. महिलाओं के काम की तारीफ तो हुई ही साथ ही अखबारों ने उनके बारे में भी बहुत से प्रेरणादायी आर्टिकल लिखे.
देखते ही देखते समूह में सदस्यों की संख्या 100 से 1000 तक पहुंच गई. व्यापार इतना बढ़ गया था कि एक छत कम पड़ने लगी थी. सो समूह की महिलाओं को सलाह दी गई कि वे अपने घर से ही काम करें.
प्रतियोगिता के जरिए हुआ नाम का चयन
1962 में ग्रुप ने अपने पापड़ का नामकरण किया और यह नाम था 'लिज्जत पापड़'. इस नाम को रखने के पीछे भी एक कहानी है. लिज्जत गुजराती शब्द है, जिसका अर्थ स्वादिष्ट होता है. पापड़ के नामकरण के लिए एक प्रतियोगिता रखी गई थी. जिसमें सभी महिलाओं ने अपनी पसंद के नाम एक पर्ची में लिखकर डाले. लिज्जत नाम देने वाली धीरजबेन रुपारेल इस प्रतियोगिता में विजयी रहीं. उन्हें इस नाम के लिए 5 रुपए की ईनामी राशि भी दी गई थी.
इस ऑर्गेनाइजेशन का नाम “श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़” रखा. काम अच्छा चल रहा था और धीरे-धीरे वे महाराष्ट्र के सीमावर्ती राज्यों के शहरों तक पापड़ की महक पहुंचा चुकी थीं. 1962-63 में इस ग्रुप की वार्षिक आय 1 लाख 82 हजार पहुंच गया.
1966 को लिज्जत को सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर किया गया.
इसी साल एक खुशखबरी खादी ग्रामोउद्योग की तरफ से आई. जिसके अध्यक्ष देवधर में खुद लिज्जत का इंस्पेक्शन किया और 8 लाख की पूंजी का निवेश किया. धीरे-धीरे व्यापार के तार फैलते गए और लिज्जत की महक देश के अन्य राज्यों में भी पहुंच गई.
इस सफलता से उत्साहित लिज्जत ने 70 के दशक में आटा चक्की, प्रिंटिंग डिवीज़न और पैकिंग डिसिशन की मशीनें खरीद लीं. इसके साथ ही महिलाओं ने पापड़ के अलावा खाखरा, मसाला,वादी और बेकरी प्रोडक्ट बनाना भी शुरू कर दिए.
साथ में अगरबत्ति बनाने का काम भी किया गया पर उसमें खास मुनाफा नहीं हुआ. 80 के दशक में लिज्जत ने देशभर के मेलों में अपने स्टॉल लगाने शुरू कर दिए. हर दुकान पर लिज्जत के बैनर दिखाई देने लगे. लिज्जत के पैकेट पर 'बन्नी' पप्पेट को छापा गया.
बन्नी का निर्माण ही लिज्जत के प्रचार प्रसार के लिए किया गया था. यह टीवी के विज्ञापन का हिस्सा भी बना. फिर 'बन्नी' के बहाने लिज्जत देश विदेश तक पहुंच बनाने लगा. 90 के दशक में लिज्जत ने विदेश में बसे अपने जान पहचान वालों के जरिए वहां व्यवसाय फैलाया.
2002 में लिज्जत का टर्न ओवर 10 करोड़ तक पहुंच गया. 15 मार्च 2009 को लिज्जत ने 50वी वर्षगाँठ मनाई थी. तब तक इस ग्रुप के भारत में 62 शाखाओं को तैयार कर लिया, जिसमें करीब 45 हजार से ज्यादा महिलाएं काम कर रही हैं.
लिज्जत ग्रुप की एक अच्छी परंपरा यह रही कि यहां काम करने वाली हर महिला को 'बहन' शब्द से संबोधित किया जाता है. जिसमें उम्र का फासदा नहीं दिखता और सब एक समान लगते हैं.
बिल्कुल अलग है काम करने का तरीका
लिज्जत ग्रुप की महिलाओं के काम करने का तरीका काफी अलग है. इस व्यापार में सभी महिला सदस्य हैं. यानि वे मुनाफे और घाटे में बराबरी की हिस्सेदार हैं. सुबह साढ़े चार बजे पापड़ उत्पादन का काम शुरू होता है.
उद्योग समिति की एक मिनी बस महिलाओं को उनके घर से सुबह फैक्ट्री तक लाती है और काम के बाद उन्हें घर तक छोड़ भी आती है.
हर शाखा का नेतृत्व एक संचालिका करती है. इन शाखाओं के संचालन के लिए 21 सदस्यों वाली एक केंद्रीय प्रबंधन समिति भी बनी है. जिसमें एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष, दो सचिव और दो कोषाध्यक्ष सहित छह निर्वाचित अधिकारी हैं.
इनका चुनाव सर्वसम्मति से किया गया है. जो हर साल बदलते रहते हैं.
ब्रिटेन, अमेरिका, मध्य पूर्व के देशों, थाइलैंड, सिंगापुर, हांगकांग, हॉलैंड, जापान, अस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी लिज्जत अपनी पहचान बना चुका है. लिज्जत अपनी सदस्य बहनों की बच्चों को दसवीं और बारहवीं परीक्षा पास करने के बाद स्कालरशिप भी प्रदान करती है.
इसके अलावा न्यूनतम ब्याज दर और बिना किसी गांरटी के गु्रप महिलाओं को लोन भी देता है. 1998-99 और साल 2000-01 में सर्वोत्तम कुटीर उद्योग का पुरस्कार अपने नाम कर चुका लिज्जत हर साल उपलब्धियों के झंडे गाड़ रहा है.
2002 का इकोनॉमिक टाइम्स का बिजनेसवुमन ऑफ द ईयर अवार्ड, 2003 में देश के सर्वोत्तम कुटीर उद्योग का सम्मान भी अपने नाम किया है. 2005 में देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने संस्थान को ब्रांड इक्विटी अवार्ड से नवाजा था.
2010-11 में लिज्जत पापड़ को पॉवर ब्रांड के रूप में चयनित किया गया.
जाहिर है कि लिज्जत पापड़ की सक्सेस स्टोरी पढ़ने के बाद अब आपको पापड़ बेलना मूर्खतापूर्ण नहीं लगेगा.
Web Title: Lijjat Papad Success Story, Hindi Article
Feature Image Credit: Shalini/youtube