पंजाबी में जब पटोला कहा जाता है, तो उसका व्यंग्यात्मक अर्थ निकलता है. कुछ इसे 'खूबसूरत लड़की' की तारीफ में कहा गया शब्द भी मानते हैं. पर जब यह शब्द गुजरात में लिया जाता है, तो वहां के लोगों का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है.
आखिर हो भी क्यों ना!
पटोला गुजरात की हस्तकला का वो नमूना है, जिसकी नकल तक करना अपराध है. यहां बनने वाली पटोला साड़ियां दुनियाभर में फेमस हैं पर ये बनती कैसे हैं यह बात अब तक राज रखी गई है.
भारत की सबसे कीमती साड़ियों में शुमार पटोला साड़ी का चलन एक शताब्दी पुराना है. पर तब से लेकर आज तक यह नया ही बना हुआ है. भारत की हर दुल्हन यह ख्वाब संजोती है कि वह अपनी शादी में एक बार पटोला साड़ी पहने पर इसे खरीद पाना भी आम आदमी के बस की बात नहीं है. इसके खास होने की एक या दो नहीं बल्कि कई वजहें हैं.
तो चलिए आज आपको पटोला के फैशन से परिचित करवाते हैं.
'रानी की वाव' से ली गई हैं डिजाइन्स
पटोला साड़ी की खासियत जानने से पहले इसका इतिहास जानते हैं. जो जुड़ा है गुजरात के प्रचीन शहर पाटण से. सरस्वती नदी के तट पर बसे इस क्षेत्र में 11वीं सदी में सोलंकी शासक राजा भीमदेव (1022-1063) का शासन था. उनकी पत्नी का नाम रानी उदयमती था. रानी अपने पति से बेहद प्यार करती थीं. जब राजा भीमदेव का देहांत हुआ तो रानी ने उनकी याद में इसी शहर में एक बावड़ी का निर्माण करवाया. बाद में इसे 'रानी की वाव' के नाम से भी जाना गया.
'रानी की वाव' वास्तुकला का वह बेजोड़ नमूना है. इसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दी है. रानी की वाव 64 मीटर लंबी, 20 मीटर चौड़ी व 27 मीटर गहरी है. इसका आकार मंदिर से उल्टा है, यानी डोम नीचे से ऊपर की ओर है. यहां छोटे स्कल्पचर बने हुए हैं जो कई धर्मों का प्रतीक माने जाते हैं.
किन्तु, इन सबसे भी ज्यादा खास है बावड़ी की दीवारों पर की गई नक्काशी. मारू-गुर्जर शैली में की गई इस नक्कशी को करने में मजदूरों को लगभग 7 साल का समय लगा था. इसी नक्काशी को पटोला साडियों पर चित्रित किया जाता है. बुनकर बताते हैं कि नक्कशी में केवल 4 तरह की आकृतियां हैं, जिसे आपस में इस तरह जोडा गया है कि ये हर दीवार पर अलग दिखाई देती हैं.
पटोला साड़ियों पर भी इन्ही चार आकृतियों को नक्कशी वाली शैली में उतारा जाता है. जब बावडी बनकर तैयार हुई थी, तब इसकी हस्तकला को रानी ने अपने कपड़ों पर सबसे पहले अंकित करवाया था. इसके बाद केवल महल की राजकुमारियां और रानियां ही इसे बनवाने और पहनने का अधिकार रखती थीं.
जब राजशादी परंपरा खत्म हुई, तो महल के कुछ बुनकरों ने पाटण शहर के बाहर साड़ी बुनाई का काम शुरू किया. पर उनकी ईमानदारी यह रही कि उन्होंने कभी किसी को यह नहीं बताया कि आखिर साड़ी शुरू से लेकर आखिरी तक बनती कैसे है. उस दौर में करीब 250 बुनकरों को पटोला साड़ी बनाने की कला आती थी.
बुनकर अपने काम के लिए इतने ईमानदार थे कि उन्होंने इस कला की बारिकियां अपनी बेटियों तक को नहीं सिखाई थी. उन्हें डर था कि यदि सभी इस कला को जान गए तो पटोला साड़ियों की कीमत नहीं रह जाएगी.
आखिर उनका यह सुझाव रंग भी लाया और आज साल्व समुदाय के केवल 3 मजदूर परिवार ही इसका को सहेजे हुए हैं.
साड़ी की नकल करने पर हो सकती है जेल!
आमतौर पर एक कारखाने में रोजाना सैंकडों डिजाइन की साड़ियां तैयार होती हैं, पर पटोला की एक साड़ी बनाने में दो मजदूरों को करीब 5 माह का समय लग जाता है. पटोला साड़ी में नर्तकी, हाथी, तोता, पीपल की पत्ती, पुष्पीय रचना, जलीय पौधे, टोकरी सज्जा की आकृतियाँ, दुहरी बाहरी रेखाओं के साथ जालीदार चित्र और पुष्प गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर बनाए जाते हैं.
साड़ी पर आकृति उकेरने का एक निश्चित क्रम होता है, इसलिए एक साड़ी को दो ही मजदूर पूरा करते हैं. जब तक एक साड़ी का काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक दूसरी की तैयारी नहीं की जाती.
इस तरह यदि किसी को पटोला साड़ी पहनना है, तो उसे बुनकरों को कम से कम 2 साल पहले आॅर्डर देना पडता है. साड़ियों की डिमांड और बुनकरों की सीमित संख्या के कारण कई बार 3 साल तक की वेटिंग भी मिलती है.
साल 2014 में पटोला साडी को जिओग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) रजिस्ट्रेशन दिया गया है. "डब्ल्यूटीओ" से जुड़े दुनिया के 160 देशों में यह व्यवस्था लागू है. जिसका सीधा सा अर्थ है कि किसी के पास भी साड़ी की नकल तक करने का अधिकार नहीं है. यदि कोई ऐसा करता पाया जाता है, तो उसे सजा और जुर्माना दोनो भुगतना पड़ सकता है.
डेढ लाख से शुरू होती है कीमत
पटोला साड़ी के प्रिंट तो खास हैं ही साथ ही इसकी बुनाई का तरीका थी हटकर है. साड़ी में प्योर सोने और चांदी के तारों की बुनाई होती है. जिसका सर्टिफिकेट साड़ी के साथ दिया जाता है. यानी यदि चाहें तो साड़ी की जरी निकालकर उसे बेच सकते हैं. इसकी तरह साड़ी में अलग किस्म के रेश्म का इस्तेमाल होता है, जो रेश्म के कीड़े की लार से बनता है.
साड़ी बनाने के पहले मजदूर इस रेश्म को बनाते हैं.
बुनकर सालभर में मुश्किल से आधा दर्जन साड़ियां ही बनाते हैं. यही कारण है कि सबसे सस्ती प्योर पटोला साड़ी की कीमत डेढ लाख रुपए है और अधिकतम 4 लाख रुपए तक की साड़ी आती है. भारत में 1934 में भी एक पटोला साड़ी की कीमत 100 रुपए थी. तब अंग्रेज भी इसे खरीदने से पहले सोचते थे. आज भी सबसे ज्यादा आॅर्डर भारत के बाद ब्रिेटन से आते हैं.
बुनकर विदेशों में साड़ियां से ज्यादा दुप्पटे और स्टोल बनाकर बेच रहे हैं.
पटोला साड़ी पर उकेरे गए प्रिंट कुछ इस तरह के होते हैं कि इसे दोनों ओर से पहना जाए, तब भी कोई अंतर नजर नहीं आएगा. इसे ‘डबल इकत’ आर्ट कहते हैं. डबल इकत में धागे को लंबाई और चौड़ाई दोनों तरह से आपस में क्रॉस करते हुए फंसाकर बुनाई की जाती है. डबल इकत को मदर ऑफ ऑल इकत भी कहा जाता है.
इसके चलते साड़ी में ये अंतर करना मुश्किल है कि कौन सी साइड सीधी है और कौन सी उल्टी.
इसके अलावा नेचुरल रंगों और धागों से बुने होने के कारण यह साड़ी इतनी मजबूत है कि 100 साल तक लगातार इस्तेमाल के बाद भी न तो फटती है, न ही इसके रंग में कोई फर्क आता है. गुजरात के म्यूजियम में रानी उदयमती की पहनी हुई साड़ी और उनके बाद की रानियों की पटोला चूनर अब तक ज्यों की त्योंं सुरक्षित रखी हुई हैं.
इतनी खास होने के कारण ही 2002 में भारत सरकार ने 'पटोला' पर पांच रुपए का डॉक टिकट भी जारी किया था. साथ ही बुनकरों को राष्ट्रीय पदक से सम्मानित भी किया जा चुका है. पाटण शहर में पटोला साड़ियों का इतिहास बताने के लिए सरकार ने एक म्यूजियम तक तैयार करवाया है.
पटोला साड़ी भारतीय हस्तकला का खबूसूरत नमूना है, पर इसकी समझ रखने वालों की सीमित संख्या देखकर डर यह है कि कहीं आने वाले सालों में इसे बनाने वाले बुनकर नहीं मिले, तो दुनिया दोबारा पटोला के रंग देख पाएगी भी या नहीं!
Web Title: Patola Saree: You Cab Be jailed, If Imitate it, Hindi Article
Feature Image Credit: deepmaalaexpert