रैगिंग!
आज रैगिंग के रूप में किया जाने वाला अपराध छात्र जीवन को नष्ट कर रहा है. इसकी शुरुआत तो एक बेहद हल्के-फुल्के मज़ाक से हुआ करती थी. समय के साथ इसने बहुत भयावह रूप धारण कर लिया.
नौबत यहां तक आ गयी कि इसके खिलाफ एक कानून लाना पड़ा. साथ ही, इसे आपराधिक गतिविधि की श्रेणी में रख दिया गया. इसने न जाने कितने मासूम छात्रों की जान भी ली है.
इस रैगिंग रूपी डायन ने ना जाने कितने छात्रों को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना दी है. इससे जुड़े मामले तो मीडिया या हमारे सामने तभी आ पाए जब छात्र को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
ऐसे में, आखिर इसकी शुरुआत कब से हुई और यह भारत में अपनी जड़ें ज़माने में कैसे सफल हुआ. जानते हैं, रैगिंग के मतलब, इतिहास समेत इसे करने की मानसिकता के पीछे की वजहों के बारे में-
‘स्वागत’ के नाम पर भद्दा मजाक!
रैगिंग को एक ऐसे अधिनियम के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें ऐसी गतिविधि जो किसी व्यक्तिगत छात्र की गरिमा का उल्लंघन करे.
फ्रेशर 'स्वागत' के रूप में की जाने वाली रैगिंग मानव कल्पना का प्रतीक है. जो कहीं न कहीं ये दर्शाती है कि इंसान अपनी सर्वोच्त्ता को साबित करने के लिए किस हद तक गिर सकता है.
साल 2017 में एक सर्वे के अनुसार भारत के लगभग 40% छात्रों को किसी न किसी रूप में रैगिंग और धमकाने का सामना करना पड़ा. जिसमें से यह चिकित्सा और इंजीनियरिंग कॉलेजों में इसका प्रकोप ज्यादा है. यह आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं क्योंकि यह डाटा रैगिंग के खिलाफ सख्त कानून बनने के बावजूद आया है.
ग्रीक से हुई थी इसकी शुरुआत!
कहा जाता है कि ग्रीस में 7वीं और 8वीं शताब्दी की शुरुआत में यह खेल समुदायों में खिलाड़ियों की खेल भावना को मजबूत करने के लिए किया जाता था, ताकि आने वाले नए खिलाड़ी हर तरह के अपमान सह सकें. इससे वह मज़बूत होते थे और अपनी टीम में घुल-मिल जाया करते थे. इसके बाद यह सेना में सैन्य बालों ने भी अपनाना शुरू कर दिया.
धीरे-धीरे यह समय के साथ शिक्षा प्रणाली में भी आ गया. आपको बता दें, छात्र संगठन बनाने की प्रथा सबसे पहले यूरोप के देशों से शुरू हुई थी. जब ये छात्र संगठन बने थे तब तो यह हितों के लिए काम करते थे. कुछ समय बाद 18वीं सदी में इन्होंने अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और इसके साथ ही हिंसक रूप भी धारण कर लिया.
छात्र संगठन बनाने की प्रथा तेज़ी से फ़ैल रही थी. साल 1828-45 में अमेरिका की यूनिवर्सिटी में भी स्टूडेंट यूनियन बनना शुरू हो गया.
रैगिंग की वजह से दुनिया में सबसे पहली मौत अमेरिका में हुई थी. यह घटना 1873 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में हुई. यहां की कॉरनेल यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग से गिरकर एक छात्र की मौत हो गई.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसकी स्थिति और खराब हो गयी. वापस लौट कर आए मिलिट्री के लोग वापस कॉलेज जाने लगे. ऐसे में, यह स्थिति और खराब हो गई क्योंकि वे सेना में होने वाली रैगिंग को अब छात्रों के साथ अपनाने लगे. जिससे इसने हिंसक रूप ले लिया था.
रैगिंग करने के पीछे छुपी हुई मानसिकता!
यह सीनियर छात्रों में खुद को एक अथॉरिटी की भावना देता है. जिसकी वजह से उसका मनोबल बढ़ जाता है. लिहाज़ा, वह खुद को सुपीरियर मानते हुए आदेश देना पसंद करने लगता है.
रैगर छात्र के आदेशों को पीड़ित छात्र पूरा कर देता है. जिसकी वजह से उनका मनोबल और भी ज्यादा बढ़ जाता है और वो खुद को ऊँचा समझने लगता है.
रैगिंग को अंजाम देने का एक बड़ा कारण है प्रतिशोध. इसका मतलब ये है कि खुद रैगिंग का शिकार हुए छात्र इसे अपने जूनियर्स के साथ करते हैं. वह अपने साथ हुई ज्यादतियों का बदला अपने जूनियर्स से निकालते हैं. उनके लिए जो उन्होंने सहा वो सब सहे.
इसके अलावा, रैगर छात्र अपनी निजी खीझ का गुस्सा भी रैगिंग द्वारा निकालते हैं. वह अपनी सारी इच्छाओं को इसके ज़रिये अंजाम देते हैं.
इसके साथ ही, यह हमेशा ऐसा नहीं होता कि हर सीनियर छात्र रैगिंग करने में रूचि रखता है. वह अपने साथियों से अलग न हो जाए इसलिए वह ग्रुप का हिस्सा बन जाते हैं. कई बार वे पैसों और नए कपड़ों के बदले में इसे करने से नहीं कतराते.
आज के युवाओं में यह ‘फैशन' की तरह भी बन गया है. यह छात्रों में इस धारणा के साथ भी उभरा है कि यह उन्हें फैशनेबल बनाता है. जो कि बिलकुल गलत है.
...और जब भारत में बरसा इसका प्रकोप!
रैगिंग का चलन भारत में आज़ादी से पहले ही आ चुका था. यह इंग्लिश और आर्मी कॉलेजों में बस हंसी मजाक के तौर पर ही किया जाता था. जिसे सिर्फ सीनियर्स और जूनियर्स एक दूसरे को पहचानने के लिया किया करते थे.
साल 1960 तक इसमें किसी भी तरह की हिंसा आदि शामिल नहीं थी. यह बड़ी ही शालीनता और मज़ाक के साथ किया जाता था. समय के साथ यह बढ़ता गया और साल 1980 में मीडिया के बढ़ते प्रभाव की वजह से यह छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति के रूप में भी दिखाई देने लगा.
90 के दशक में आते-आते यह अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया. इसी दौरान, भारत में प्राइवेट मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज खुल रहे थे. जिनके साथ ही रैगिंग ने अपना भयानक रूप ले लिया. दक्षिण भारत में इसका असर बुरी तरह देखने को मिला.
दक्षिण भारत में इस समय बहुत सारे छात्रों के आत्महत्याओं के मामले सामने आए. आंकड़ों की मानें तो वर्ष 1997 में तमिलनाडु में रैगिंग के सबसे ज्यादा मामले पाए गए. मामले की गंभीरता को देखते हुए 1997 में तमिलनाडू सबसे पहला राज्य बना जहाँ रैगिंग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया.
रैगिंग के खिलाफ इन बातों को भी जाने!
साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे भारत में रैगिंग को पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके बावजूद कुछ मामले सामने आए. इसी कड़ी में साल 2009 में धर्मशाला के एक मेडिकल कॉलेज के एक छात्र अमन काचरू की रैगिंग की वजह से मौत की खबर आई. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी शिक्षण संस्थानों को रैगिंग विरोधी कानून का सख्ती से पालन करने के निर्देश दिया.
रैगिंग के खिलाफ बने एंटी-रैगिंग कानून के तहत अगर कोई छात्र दोषी पाया जाएगा तो उसे 3 साल की सजा हो सकती है. इसके साथ ही, उसपर जुर्माना भी लगाया जा सकता है.
इसके अलावा, अगर कॉलेज नियमों का पालन न करें या मामले की अनदेखी करें तो उनपर भी कानूनी कार्रवाई हो सकती है. कॉलेज में रैगिंग की समस्या न आए, इसके लिए यूजीसी (UGC) ने छात्रों के व्यवहार से संबंधित कड़े नियम बनाए हैं.
उन नियमों के अनुसार, अगर छात्र के रंगरूप या उसके पहनावे पर टिप्पणी की जाए या उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई जाती है, तो यह रैगिंग ही मानी जाएगी. इसके अतिरिक्त यदि किसी छात्र का उसकी क्षेत्रीयता, भाषा, नस्ल, जाति आदि के के आधार पर अपमान किया जाना भी अपराध होगा.
अंत में अगर किसी भी छात्र को किसी भी काम को ज़बरदस्ती करवाया जाता है तो वो भी रैगिंग की श्रेणी में ही आएगा. इसीलिए फैशन के नाम पर की जाने वाली इस रैगिंग को हमेशा के लिए कह दें अलविदा.
Web Title: Ragging Which Has Taken Many Lives Of Students, Hindi Article
Feature Image Credit: DNA