19वीं शताब्दी के अंत की बात है. बिहार के 'सारन' जिले में एक साधारण ‘नाई परिवार’ के घर एक बालक का जन्म हुआ. जब ये बालक बड़ा हुआ, तो उसने अपनी रचनाओं के माध्यम से भोजपुरी साहित्य को पूरे विश्व से परिचय कराया.
जी हां! यह कोई और नहीं बल्कि विलक्षण प्रतिभा के धनी भोजपुरी साहित्य के ‘शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर थे.
भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी. इसी भाषा को आगे चलकर उन्होंने अपनी काव्य और नाटकों की भाषा बनाया.
जानना दिलचस्प हो जाता है कि कैसे पूरे विश्व में भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी की अलख जलाई और खुद भोजपुरी के शेक्सपियर बन गए –
बचपन में गाय चराने के दौरान सीखा नाच-गाना
बिहार के सारन जिले के गंगा और सोन नदी के किनारे बसे 'कुतुबपुर' गांव में एक 'नाई परिवार' के यहां 18 दिसंबर 1887 को 'दल सिंगार ठाकुर' की पत्नी शिवकली देवी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई.
नाम रखा गया 'भिखारी ठाकुर'. हालांकि कुछ लोग इन्हें राय बहादुर भी कहा करते थे.
समय बीता और भिखारी ठाकुर बड़ा होता गया.
परिवार गरीबी का दंश झेल रहा था. इसलिए बड़ा पुत्र होने के नाते भिखारी ठाकुर को बचपन से ही पारिवारिक पेशे में लगना पड़ा.
इनके परिवार का बाल काटने के अलावा छठी, मुंडन, जनेऊ, शादी, श्राद्ध आदि मौकों पर निमंत्रण बांटने का भी काम था. विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में पुरोहितों को सहयोग देना, इनका खानदानी पेशा था. जिसे भिखारी ठाकुर ने भी अपनाया.
भिखारी ठाकुर का पढ़ाई में मन बिल्कुल भी नहीं था. नाच-गाने और लड़कपन की बिंदास जिंदगी इससे ज्यादा सरल थी.
घर में 4 गाय थीं, जिन्हें वह हर रोज चराने के लिए ले जाया करते थे. वहीं, चरवाहों के साथ खेल-कूद में भिखारी ने नाचना-गाना भी सीख लिया था.
यही वो समय था, जब वो अपनी पढ़ाई और परिवार की जिम्मेदारियों से अवमुक्त दूर कहीं खेत में या उनकी पगडंडियों पर चलते हुए मस्ती कर लिया करते थे. वो इस समय स्वतंत्र थे, और उनके अंदर जो इच्छा थी, गाने की, नाचने की, जिसे वो अब तक मारे-मारे फिरते, वो सब यहां बाहर आ जाता.
और इसके बाद जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तो किसी को भी नहीं पता था कि यह 9 साल का नन्हां बालक भोजपुरी बोली के लिए वरदान साबित होगा.
भिखारी ठाकुर अपने बचपन के बारे में लिखते हैं,
"नौ बरस क जब हम भइनी,
विधा पढ़न-पाठ पर गइनी,
वर्ष एक तक जब मारल-मति,
लिखे ना आइल राम-गति..!!
मन में तनिक ना विद्या भावत,
घुमनी फिरनी गाय चरावत,
गइयाँ चार रहीं घर माहीं,
तिनके नित चरावन जाहीं..!!"
रामलीला देख आया भोजपुरी मंचन का ख्याल
गरीबी जब जीवन पर हावी होती है, तो इससे पीछा छुड़ाने की कोशिश होती है.
कुछ ऐसा ही प्रयास भिखारी ठाकुर ने भी किया. जब वह रोज़ी रोटी के लिए अल्पायु में ही अपना घर छोड़कर बंगाल चले गए.
वहां उन्होंने सोचा कि लोगों के बाल-दाढ़ी बनाकर कुछ पैसे कमाएंगे, लेकिन नाचने-गाने वाले भिखारी ठाकुर का इसमें मन कहां लगने वाला था. और कुछ ही दिन बाद वह पहुंच गए बंगाल के मेदिनीपुर जिले में, जहां उन्होंने पहली बार 'रामलीला' का मंचन देखा.
इंसानी रूप में राम-लीला का मंचन देख ये इतना प्रभावित हुए कि इन्होंने भोजपुरी में 'काव्य' लिखने और 'रामलीला मंचन' करने का मन बना लिया.
इन्होंने इसके लिए तुलसीदास जी की कृतियों को भी पढ़ा. भिखारी ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं थे, बावजूद इसके उन्होंने पूरा रामचरित मानस मुंह जुबानी याद कर लिया था.
खैर, घर से दूर भिखारी कितने दिन रहते, सो घर लौट आए. लेकिन ये इस समय खाली हाथ नहीं थे, अपितु अपने साथ मंचन की कला साथ लाए थे.
भिखारी यही कुछ 30 साल के आसपास रहे होंगे, जब अपने गांव 'कुतुबपुर' में उन्होंने अपने छोटे भाई और कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर 'नाटक मंडली' बनाई.
इस लोक-नायक मंडली के साथ मिलकर भिखारी ने 'रामलीला' और 'रास-लीला' जैसे काव्य नाटकों का भोजपुरी भाषा में मंचन किया. फिर क्या पहली बार इतने बड़े काव्य का भोजपुरी में मंचन होने की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई.
भिखारी ठाकुर को अब वह सम्मान भी मिलने लगा था, जिसके वह असल हक़दार थे.
इस सफर का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं...
"अल्प काले में लिखे लगनी,
एकरा बाद खड़गपुर भगनी,
ललसा रहे जे बहरा जाईं,
छुड़ा चलाके दाम कमाईं,
गइनी मेदिनीपुर के जिला,
ओइजा देखनी रामलीला..!!"
भोजपुरी वासियों के 'प्रवास' का दर्द लिखा...
कलाकार का मन अपने आसपास की घटनाओं के परिवेश से बहुत ही संवेदनशील होता है.
जब उन्होंने देखा कि गांव में जनसंख्या ज्यादा और खेती योग्य ज़मीन कम है. जमीन के मालिक जमींदारों, महाजनों के कर्ज़ से दबकर अपने ही खेत में मज़दूर बनकर रह गए थे.
उधर, महानगरों में बड़े-बड़े कल कारखाने लगाए जा रहे थे.
नतीजा यह हुआ कि शादी के बाद ग्रामीण मज़दूर, मज़दूरी के लिए कलकत्ता, खड़गपुर, कानपुर जैसे औद्योगिक नगरों की ओर पलायन करने लगे.
पलायन के बाद कुछ लोग तो कई वर्षों बाद गांव लौट आते थे, लेकिन कई लोग कभी नहीं लौटते. इतना ही नहीं, कुछ तो वहीं दूसरी औरतों से शादी भी कर लेते थे.
इधर पलायन के बाद घर में पति के इंतजार में बैठी पत्नी को कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता था.
इन सभी त्रासदियों को केंद्र में रखकर भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी साहित्य में शीर्ष पर स्थित नाटक 'बहारा बहार' लिखा.
इसी नाटक पर आधारित अपने निर्देशन और अभिनय से 1963 में भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' बनाई. ये अपने जमाने की सबसे लोकप्रिय फिल्म रही. ये आज भी भेजपुरी दर्शकों के बीच उतनी ही लोकप्रिय है, जितनी उस समय हुआ करती थी.
इसी नाटक और फ़िल्म ने भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर को अमर कर दिया.
फिल्म बिदेसिया की ये दो पंक्तियां तो भोजपुरी अंचल में मुहावरे की तरह आज भी गूंजती हैं.
"हंसि हंसि पनवा खीऔले बेईमनवा कि अपना बसे रे परदेश,
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गइले, मारी रे करेजवा में ठेस..!!"
मिला भोजपुरी साहित्य के 'शेक्सपियर' का तमगा
भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार थे. उन्होंने रंगमंच से समाज की कमियों को उजागर किया, भोजपुरी की फूहड़ता को दूर किया और लोक कल्याण के लिए लोक गीत का उपयोग किया.
भिखारी ठाकुर ने अपने पूरे जीवन में 29 पुस्तकें लिखीं. जिस कारण वह भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के प्रचारक बने. भिखारी ठाकुर के नाटकों से ही कुंठित समाज में बदलाव की बयार शुरू होती है.
और फिर क्या, इन्हीं सब खूबियों के कारण भिखारी ठाकुर को महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने 'भोजपुरी का शेक्सपियर' तक कह दिया.
भारत सरकार ने भिखारी ठाकुर को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया.
भोजपुरी साहित्य का एक दीपक उस समय बुझ गया, जब 10 जुलाई 1971 को भिखारी ठाकुर की मौत हो गई.
Web Title: Bhikhari Thakur: Shakespear Of Bhojpuri, Hindi Article
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