खाने का ख्याल आता है, तो आंखों के सामने तरह-तरह के व्यंजनों की कल्पना साकार होने लगती है. अचानक ही मुंह में पानी भी आ जाता है. हम शुक्र मनाते हैं उस प्रकृति का, जिसने हमें चखने के लिए इतने अच्छे स्वाद दिए हैं.
किन्तु, इन स्वादों को छोड़ कोई है जो इंसानी जिस्म और खून से अपनी भूख मिटा रहा है. हम किसी जानवर की नहीं, बल्कि आपके-हमारे जैसे इंसानों की बात कर रहे हैं. ये इंसान पापुआ न्यू गिनी के जंगलों में बसते हैं और इंसानी मस्तिष्क से अपना पेट भरते हैं!
कुछ लोग इन्हें नरभक्षी भी कहते हैं, पर यह कृत्य उनके लिए कोई पाप नहीं है. इन आदिवासियों की मानें तो वे ऐसा करके मृतक की आत्मा को संतुष्ट कर रहे हैं और खुद के शरीर को बलशाली बना रहे हैं.
चूंकि, इन तर्को के पीछे अंधविश्वास की भी कई कहानियां जुड़ी हैं, इसलिए इन्हें नजदीक से जानना दिलचस्प हो जाता है—
ताकत बढ़ाने के लिए खाते हैं दिमाग
दक्षिण प्रशांत का एक छोटा सा द्वीप पापुआ न्यू गिनी, जो अब देश बना चुका है.
पहाड़ों, जंगल और नदियों से घिरे इस देश का कुल आकार 4,628,840 वर्ग किलोमीटर मात्र है. 60 लाख जनसंख्या वाले इस देश में तकरीबन 850 भाषाएँ बोली जाती है और कई तरह के धर्म मानने वाले एक साथ रहते हैं. खास बात यह है कि इस देश का केवल 18 प्रतिशत भाग ही शहर में तब्दील हुआ है, बाकी लोग आज भी जंगलों में जी रहे हैं.
जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के समूहों में सबसे ज्यादा रोचक है, ‘कोरोवाई जनजाति’ के लोग, जिन्हें ‘फोर पीपुल्स’ भी कहा जाता है.
यह बड़ी ही रहस्यमय जनजाति है. कहते हैं कि इस जनजाति के लोगों का बाहरी दुनिया से कोई वास्ता नहीं है और इनके जीने का तरीका अपने आसपास की बाकी जनजातियों से भी अलग है. यही कारण है कि जंगलों में आए दिन आदिवासियों के विभिन्न समूहों से इनका विवाद होता है और फिर यह हिंसा में तब्दील हो जाता है.
भूमि अधिकार-वन अधिकार के लिए खूनी युद्ध होते हैं.
वे क्ररूता से एक-दूसरे पर वार करते हैं और जान लेने में जरा देर नहीं करते. किन्तु, जंग केवल यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि जब तक वे अपने दुश्मनों का सिर काटकर उसका मस्तिष्क निकालकर नहीं खा लेते. उन्हें चैन नहीं मिलता.
यह तरीका आप्रकृतिक लगता है. पर प्रकृति के बीच में रहने वाले इन नरभक्षियों के लिए यह सहज प्रक्रिया है. दुश्मनों के मतिष्क से बने भोजन को ‘ओमनासटस’ कहा जाता है, जो दुश्मन की पराजय और अपनी जीत का जश्न मनाने पर पकाया जाता है.
Brain Eating Tribal (Pic: travelmarbles.com)
अपने मृत रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ते
जब तक एक डच मिशनरी ने इस जनजाति की खोज की थी. तब तक कोई नहीं जानता था कि जंगलों में ऐसे इंसान भी रहते हैं. दिलचस्प बात तो यह है कि ये लोग केवल दुश्मनों को ही नहीं, बल्कि अपने मृत रिश्तेदारों के शवों से भी मतिष्क को आसानी से निकाल लेते हैं.
ऐसा करने के पीछे तर्क दिया जाता है कि यह मृतकों का सम्मान है.
उनका मानना है कि मस्तिष्क को खाए जाने से मृतकों के शरीर की ताकत उनके शरीर में प्रवेश कर जाएगी. इस तर्क के कारण रिश्तेदारों के मस्तिष्क तो आसानी से खाए जाते हैं. जबकि, दुश्मनों के मतिष्क खाने से पहले विशेष पूजा होती है.
उनका मत है कि यदि दुश्मन के मस्तिष्क को ऐसे ही खा लिया गया, तो वह शरीर पर उल्टा असर भी कर सकता है. हो सकता है कि जंग के दौरान उनकी ताकत को कम कर दे!
चुड़ैल के साए में आ गई जनजाति
इंसानों को खाने की की इस प्रवृत्ति से अंधविश्वास की एक कहानी जुडी हुई है. दरअसल न्यू गिनी के जंगली क्षेत्र में 1950-60 के दौर में एक अजीब तांत्रिक रोग फैला.
इस रोग का नाम था ‘कुरू’ जिसका अर्थ है ‘ भय से कंपना’.
इस रोग में रोगी पर किसी चुड़ैल का साया सवार होने की बात सामने आई. चुड़ैल के साए में आया हुआ व्यक्ति धीरे-धीरे कमजोर होने लगा. उसने लोगों से बातें करना बंद कर दिया और खुद को अकेले अंधेरे कमरें में बंद कर लिया.
कई दिन बीत जाने पर भी उसने भोजन को हाथ नहीं लगाया.
वह चुड़ैल इतनी शक्तिशाली थी कि लोग अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर पा रहे थे. भूख होते हुए भी खाना न खा पाना, नींद आने पर भी आंखे बंद न होना… ऐसे लक्षणों के कारण कुछ ही दिनों में शरीर की शक्ति जवाब दे गई.
बाकी लोग रोगी को मरा हुआ ही समझ लेते, पर एक दिन अचानक उसने हंसना शुरू कर दिया और इसके बाद कई घंटों और दिनों तक वह लगातार हंसता रहा. बाकी लोगों को पूरा विश्वास हो गया कि चुड़ैल ने उसे पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है.
इस रोग के अंतिम चरण में रोगी आम लोगों से बातें करना बंद कर देता है. उसके शरीर पर घाव उभर आते हैं, जिसमें मवाद भरा होता है. रोगी न तो उपचार के लिए तैयार होता न ही भोजन करने के लिए और फिर धीरे-धीरे उसकी मौत हो जाती.
एक अनुमान के मुताबिक उस दौर में इस रोग से करीब 1 हजार लोगों की मृत्यु हुई थी, जिसमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे.
Disease Outbreak (Pic: thesun.co.uk)
जब बीमारी का शिकार हुई प्रजाति
इस रोग ने आदिवासियों के चार समुदायों को अपनी चपेट में लिया. चुड़ैल के प्रभाव को खत्म करने के लिए आदिवासी सूअर का मांस खाते और दूसरे जानवरों की छालें नोंचकर खाते रहे पर स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर नहीं दिखा.
एक ऑस्ट्रेलियाई अधिकारी ने पापुआ न्यू गिनी के ‘पूर्वी हाइलैंड’ प्रांत में कई दिनों तक पर्यवेक्षण किया तब जाकर पहली बार इस बीमारी के बारे में जंगल के बाहर के लोगों को जानकारी हुई. आर्थर केरी ने 1951 में पहली बार इसे ‘कुरू’ बीमारी का नाम दिया.
चूंकि इस में रोगी लगातार हिलता रहता था और कुछ दिनों बाद लगातार हंसता रहता था, इसलिए इसे ‘हंसने वाली बीमारी’ भी कहा गया. 1953 में जॉन मैक आर्थर को इस बीमारी के बारे में खोज करने के लिए सम्मानित किया गया.
हालांकि, तब भी इस मनोवैज्ञानिक बीमारी की रोकथाम के बारे में कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा सके. चूंकि कोई यह नहीं समझ पा रहा था कि आखिर रोगी को यह रोग हो कैसे रहा है? आदिवासियों ने तो इसे काला जादू और तंत्र का प्रभाव समझा.
उन्होंने अपनी जान की रक्षा के लिए पूर्वजों की पूजा करना शुरू की. इस पूजा में पहले जानवरों की बलि दी गई फिर इंसानों ने अपनी बलि देने के लिए भी तैयार हो गए. आदिवासियों ने यह तय किया कि वे अपनी शक्ति का विस्तार करेंगे और इसके लिए अपने ही मृत रिश्तेदारों के मस्तिष्क को खा लेंगे.
उस दौर में कई आदिवासियों ने कुरू रोग से प्रभावित लोगों के शवों से मस्तिष्क को यह सोचकर निकाला कि इसमें डायन या चुड़ैल की शक्ति है.
यदि वे इसे खाते हैं तो उनमें चुड़ैल का सामना करने की हिम्मत आएगी.
‘लव प्रोटीन’ है जिम्मेदार…
बीमारी का नाम और प्रवृत्ति सार्वजनिक होने के बाद यह वैज्ञानिकों के लिए शोध का कारण बन गई. विषाणुविज्ञानी डेनिएल कार्लेटन गाज़डुसाक और डॉ विन्सेंट जिगास ने अपना शोध शुरू किया.
उन्होंने रोगियों के शरीर से विषाणु निकाकर उन्हें चिम्पांजी के मस्तिष्क में डाला. दो साल लगातार परिक्षण के बाद पाया कि चिम्पांजी में ‘कुरू’ रोग के संकेत दिखाई दे रहे हैं. इस खोज को आधुनिक चिकित्सा में काफी महत्वपूर्ण माना गया.
इस खोज के लिए डैनियल कार्लेट को 1976 में मेडिसिन का नोबल पुरस्कार दिया गया.
इसके बाद भी कुरू पर शोध जारी रहे. वैज्ञानिकों ने पुष्टि की कि यह रोग एक प्रीन नाम के वायरस के कारण होता है. यह वायरस एक तरह का ‘लव प्रोटीन’ है, जो कुरू के अलावा क्रॉइटजेफेल-जैकोब रोग, स्क्रैपबुक, मैडको जैसी बीमारियों का भी कारण बनता है.
‘लव प्रोटीन’ के कारण होने वाली बीमारियों को ‘संक्रामक स्पंज एन्सेफेलोपैथी’ या ट्रांसमिसिबल स्पॉन्गॉर्मॉर्म एन्सेफेलोपैथीज (टीएसई) कहता जाता है.
यह बीमारियां संक्रमित जीवों के मस्तिष्क को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं. कुरू भी इसी श्रेणी की एक बीमारी है और इसके पीछे किसी डायन का हाथ नहीं है. हालंकि, यह सच है कि इस बीमारी के लक्षण और परिणाम आप्रकृतिक हैं.
Tribal Life (Pic: purch.com)
1900 के दशक में आया था पहला प्रकोप
मानव वैज्ञानिक शर्ली लिंडेनबाम और ऑस्ट्रेलिया के माइकल अल्पर ने 1961 में उस आबादी पर अध्ययन करना शुरू किया, जो कुरू रोग से प्रभावित हुई थी.
आदिवासियों से बात करने पर पता चला है कि इसका पहला प्रकोप 1900 के दशक में आया था. तब तक जनजाति का कोई भी व्यक्ति इस रोग से प्रभावित नहीं था. स्टडी में सामने आया है कि बीमारी के प्रभाव से संक्रमित व्यक्ति के मस्तिष्क पर प्रीन वायरस फैलने लगा. तब तक वह क्रॉइटजेफेल जैकब बीमारी का भी शिकार हो चुका था.
जब प्रतिद्वंद्वी के साथ युद्ध में उसकी मौत हुई तो ‘फोर पीपुल्स’ जनजाति के लोगों ने उसके मस्तिष्क का भक्षण किया. हालांकि, दूसरे शरीर से आए इस वायरस को उनके शरीर में प्रभावी होने में कुछ समय लगा. पर जब वह पूरी तरह से प्रभावी हुआ तो एक महामारी बन गया, जिसने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया.
ब्रिटिश रीजन रिसर्च सेंटर की डॉक्टर साइमन प्रिया ने एक अध्ययन किया.
उन्होंने 3000 लोगों के डीएनए की तुलना 152 लोगों के एकत्रित डीएनए से की. ये वे लोग थे, जो कुरु रोग के कारण मर चुके थे. अध्ययन में पाया गया कि 3000 लोगों में से 560 लोगों ने मृतकों के को शरीर खा लिया था.
जो लोग बीमारी से बच गए उनके ‘लव प्रोटीन’ बाकी लोगों की तुलना में अलग थे. जिन्होंने उन्हें जीवित रखा. हालांकि, न्यू गिनी की ‘फोर पीपुल्स’ आबादी अब कुछ सैकड़ों में ही बची है. ये लोग जमीन से से 6 से 12 मीटर ऊंचाई पर पेड़ों पर बने घरों में रहते हैं, ताकि इन पर कोई आक्रमण न कर सके और बुरी आत्माओं का साया दूर रहे.
Papuan Korowai Tribe (Pic: Indonesia)
‘फोर पीपुल्स’ बाहरी दुनिया पर विश्वास नहीं रखते.
यही कारण है कि इनके बारे में जानकारी होते हुए भी कोई नहीं है, जो इनका हाथ पकड़कर अंधविश्वास के जाल से बाहर ला सके!
Web Title: Brain Eating Tribal, Hindi Article
Feature Image Credit: Archery Kid