एक विधवा का घर बस पायेगा, नया जीवन साथी मिल पायेगा, समाज क्या-क्या बात बनाएगा! इसी उधेड़बुन में घिरी हुई, घाट किनारे, नदी के पास, क्या-क्या सोच रही थी? वो विधवा!
आकिब जावेद की लिखी ये पंक्तियां बनारस के घाटों और वृदांवन की गलियों की सच्चाई बयां करती है. यहां भक्ति के रंग विधवाओं की सफेद सूती साड़ियों पर ही उड़ रहे हैं. विधवाओं की स्थिति का एक आइना बनारस ने दिखाया था और आज दूसरा आइना वृदांवन में दिख रहा है.
आकड़ों की माने तो वर्तमान में मथुरा के अंदर करीब 30 हजार विधवाएं हैं और हर साल इनकी संख्या में बढोत्तरी हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने भी पाया कि वृदांवन में 1739 विधवाओं की स्थिति बेहद दयनीय है, और 200 से ज्यादा विधवाएं ऐसी हैं, जो सड़कों पर रहने का मजबूर हैं.
ऐसे में जमीनी हकीकत को जानना दिलचस्प होगा-
क्या कहती है पौराणिक कथा?
पिछली कड़ी में हम यह जान चुके थे कि विधवाओं को घर से दूर करने का रास्ता कुप्रथाओं ने बनाया. यह रास्ता आगे चलकर बनारस के लिए मुड़ा और एक पगडंडी वृंदावन के लिए भी निकल आई.
कुछ विधवाओं ने शिव के चरणों में मोक्ष की तलाश शुरू की और बाकी ने कृष्ण की भक्ति में.
विधवाओं के मथुरा और वृदांवन में आकर निवास करने के पीछे कई पौराणिक कथाओं का हवाला दिया जाता है. इनमें से एक कथा महाभारत काल की भी है. इस कथा के अनुसार पांड्वों को महाभारत युद्ध में विजय के लिए किसी राजकुमार की बलि चाहिए थी.
ऐसे में यदि पांडवों में से कोई अपनी या पुत्र की बलि देता तो युद्ध का तख्ता पलट सकता था. इसलिए, बलि के लिए खोज करते हुए तमिलनाडू में राजा अरावन के पास पहुंचे. अरवन को बलि देने में कोई परेशानी नहीं थी, पर उन्होंने कहा कि मेरा विवाह नहीं हुआ है.
यदि मैंने विवाह किया तो बलि के बाद वह विधवा हो जाएगी और यह जानकर कोई भी कन्या मुझसे विवाह नहीं करना चाहेगी. इस समस्या का हल भगवान श्री कृष्ण ने निकाला!
उन्होंने स्त्री का भेष धरकर अरवन से विवाह की इच्छा प्रकट की. अरवन इसके लिए राजी हो गए. उन्होंने स्त्री रूपी श्रीकृष्ण से विवाह किया और अगले दिन, जब अरवन का वध किया गया तो वे विधवा हो गईं. विधवा होने पर उन्होंने उसी तरह संताप किया जैसे कोई अन्य विधवा करती. उन्होंने विधवा नियमों का पालन भी किया.
इस कथा के आधार पर माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण चूंकि खुद विधवा का दुख भोग चुके थे, इसलिए वे जानते हैं कि उनका जीवन कितना कठिन होता है. यही तर्क देकर विधवाओं को वृंदावन और मथुरा की गलियों में छोड़ा जाना शुरू हुआ.
Awaiting Salvation (Pic: VideoBlocks)
बंगाली विधवाओं का वृंदावन से नाता
यूं तो हर जाति की विधवाएं वृदांवन की गलियों में जी रही हैं पर इनमें बंगाली विधवाओं का अधिक प्रतिशत होने के पीछे एक खास तर्क दिया जाता है.
भक्तिकाल के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में पश्चिम बंगाल के नवद्वीप गांव में हुआ था. वे 1515 में वृंदावन आए थे और फिर कभी वापिस नहीं लौटे.
बंगाल में महिलाओं की स्थिति उस दौर में भी काफी खराब थी. कम उम्र में विवाह और फिर पति के मरने के बाद के कठोर नियमों ने उनका जीना मुश्किल कर रखा था. बंगाल में बाल विधवाओं का प्रतिशत काफी ज्यादा था. दूसरी तरफ पुन:विवाह की प्रथा का शुभारंभ होने के बाद भी माता-पिता बच्चियों की दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं थे.
विधवाओं की दयनीय स्थिति को देखकर चैतन्य महाप्रभु ने उनके जीवन को कृष्ण की भक्ति से जोड़ दिया. जब वे वृदांवन आए तो उनके साथ कई बाल विधवाएं भी यहां आईं. इस तरह 500 साल पहले से विधवाओं का वृदांवन में आना बदस्तूर जारी है.
Life of Widows(Pic: nickyloh.com)
बस कट रही है जिंदगी
जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि मथुरा में 30 हजार से ज्यादा विधवाएं हैं. इनमें से 70 प्रतिशत विधवाओं की उम्र 55 साल से ज्यादा हो गई है. इनमें से अधिकांश बाल विधवाएं थीं, जो यहां रहते हुए 50 बरस से ज्यादा गुजार चुकी हैं.
बनारस की ही तरह यहां भी विधवाओं के रहने का कोई ठिकाना नहीं है.
इस्कॉन मंदिर, बांके बिहारी, कृष्ण जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट कुछ विधवा आश्रम चला रहे हैं. लेकिन यहां रहने के लिए भी विधवाओं को न्यूनत किराया भरना पड़ता है. वर्तमान में मथुरा में करीब 20 विधवा आश्रम है. हर आश्रम में 50 विधवाओं के रहने की क्षमता है, पर हालात इतने खराब है कि एक कमरें में तीन से चार बूढ़ी विधवाएं रह रही हैं.
कमरों का किराया भरने के अलावा खाने का प्रबंध करना भी इनकी अपनी जिम्मेदारी है.
वृदांवन और गोबरधन की परिक्रमा करने आने वाले भक्तों की भेंट से कभी कभार पेट भर जाता है, लेकिन बाकी दिन भोजन का इंतजाम भजन गाने के बदले मिले पैसों से ही होता है. जो महिलाएं काम करने की स्थिति में है, उन्हें जयगुरूदेव आश्रम, आनंद आश्रम, श्री बिंदु सेवा संस्था आश्रम, बालाजी आश्रम और राधे श्याम आश्रम जैसी जगहों पर काम मिला हुआ है.
विधवाएं यहां फूल की मालाएं, रूई की बाती, तुलसी की मालाएं बनाती हैं और इन्हें बेचने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की है. दिनभर हुई बिक्री का कुछ प्रतिशत आश्रम में दान करने के बाद इनके पास मुश्किल से 50 या 100 रुपए बचते हैं.
इससे ही उनकी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ होता है.
हेमा मालिनी के मथुरा सांसद बनने के बाद विधवाओं की वर्तमान स्थिति पर एक बार विवाद भी खड़ा हो चुका है. सांसद चाहती हैं कि वृदांवन में केवल उत्तर प्रदेश की विधवाओं को जगह मिले. बाकी राज्यों की विधवाएं अपने राज्य के आश्रमों में रहे.
किंतु, विडंबना यह है कि राज्यों में परित्यागता विधवाओं की संख्या की तुलना में आश्रम ही नहीं है. हालांकि, हेमा मालिनी के इस प्रस्ताव की मथुरा में कड़ी आलोचना हुई. उनके इस प्रस्ताव से सबसे बड़ी समस्या बंगाल और नेपाल से आई हुई विधवाओं के सामने है, क्योंकि बनारस की तरह मथुरा में बंगाली विधवाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा है.
Widows in Vrindavan (Pic: Anja Matthes)
‘ब्रजगंधा’ योजना से मिला बल, लेकिन…
मथुरा-वृदांवन का शायद ही ऐसा कोई मंदिर या गली होगी, जहां झुकी हुई कमर से चलती हाथ फैलाए भोजन की भीख मांगती विधवा दिखाई न दे!
जब सुप्रीम कोर्ट ने विधवाओं की दुर्दशा पर संज्ञान लिया तो केन्द्र सरकार ने इनकी मदद के लिए पेंशन योजना और स्वरोजगार योजनाएं शुरू की. अधिकांश योजनाएं तो कागज पर फल फूल रही हैं, लेकिन ‘ब्रजगंधा’ को बल मिला हुआ है.
इसी साल (2018 में) महिला दिवस पर इस योजना का शुभारंभ किया गया है.
‘ब्रजगंधा’ के तहत बांके बिहारी और इस्कॉन जैसे बड़े मंदिरों में चढ़ने वाले फूलों से विधवाएं इत्र बना रही हैं, जिसे ‘ब्रजगंधा’ नाम दिया गया है. एक करोड़ 67 लाख रुपए की राशि योजना के क्रियांनवयन पर खर्च की जानी है.
यह बात और है कि अब तक इत्र की बिक्री की न तो कोई सरकारी रिपोर्ट सामने आई है और न ही योजना का हिस्सा बनी विधवाओं को मिल रहा लाभ नजर आया है.
हालांकि, एफएफडीसी से ट्रेनिंग के बाद विधवाओं ने मंदिरों में चढ़े इन्हीं फूलों से इस होली में तकरीबन 100 किलो गुलाल बनाया था. जिसे बडे़े-बड़े मंत्रियों के यहां भेजा गया और बदले में आश्रमों को फंड मिला. हालांकि, इससे विधवाओं के जीवन स्तर में कोई खास सुधार नहीं आया!
विधवा पेंशन के नाम पर विधवाओं के खातों में सरकार 3600 रूपए सालाना जमा करती है. यह रकम उन्हें 6 माह में एक बार मिलती है, पर मथुरा-वृदांवन की परित्याग्यता विधवाओं की समस्या यह है कि जब वे यहां आई तो अपने साथ कोई आईडी प्रूफ लेकर नहीं चली थीं.
परिणाम स्वरूप इनके बैंक खाते नहीं खुले. यूपी सरकार की विधवा पेंशन योजना में सात लाख विधवाएं शामिल हैं पर इनमें से कुछ ही हैं, जो वृदांवन की है!
House of Widows Vrandavan(Pic: Shutterstock)
यमुना में फेंके जा रहे विधवाओं के शव
मोक्ष की आस में ब्रज की भूमि में जीवन गुजार देने वाली विधवाओं का अंत उनके जीवन से भी ज्यादा दर्दनाक होता है. एक रिपोर्ट के अनुसार विधवाओं का अपना कोई नहीं है, इसलिए उनके शवों को यमुना जी में बहा दिया जाता है.
पानी कम होने के कारण शव कई दिनों तक सड़ते रहते हैं और फिर जानवरों का चारा बन जाते हैं. कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने विधवाओं के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी उठाई है पर वे भी पूरे क्षेत्र की विधवाओं तक अपनी पहुंच नही बना पाएं हैं.
ईसीपीएफ एनजीओ की ओर से सुप्रीमकोर्ट को एक रिपोर्ट सौंपी गई है, जिसमें बताया गया है कि विधवाएं जिंदा रहते हुए अपने अंतिम संस्कार के लिए पैसा जमा करती हैं. साथ ही विश्वसनीय सफाई कर्मचारियों को दे देती हैं. ताकि, मरने के बाद उनका क्रियाकर्म हो सके.
वह बात और है कि मरने के बाद सफाईकर्मी उनके शवों को सरकारी अस्पतालों के पोस्टमार्टम विभाग में लावारिस छोड़ आते हैं. या फिर यमुना जी में बहा दिया जाता है.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मंदिरों में विधवाओं को आठ घंटे भजन गाने के बदले 6 से 8 रुपये अधिकतम मजदूरी मिलती है, जो इनकी रोज की जरूरतें पूरी करने के लिए नाकाफी हैं.
इस तरह कान्हा के चरणों में आने के बावजूद भी विधवाओं की मोक्षयात्रा खत्म नहीं हुई है!
Web Title: City of Widows Vrindavan, Hindi Article
Feature Image Credit: photoburst.net