सिख गुरुओं ने देश-विदेश के अलग-अलग हिस्सों में यात्राएं कीं और हर जगह एक सामाजिक संदेश दिया. शायद ही कोई ऐसी दिशा रही होगी, जहां उन्होंने यात्रा न की हो.
जहां-जहां सिखों के इन गुरुओं ने यात्राएं कीं, सामाजिक संदेश दिया और ध्यान किया, वहां-वहां आज गुरुद्वारा साहिब स्थित हैं.
इन्हीं ऐतिहासिक गुरुद्वारों में से एक है तख्त सचखंड श्री हुजूर साहिब, जो कि महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित है.
यह गुरुद्वारा सिख धर्मों के पांच तख्तों में से एक है.
यहां सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना आखिरी समय व्यतीत किया था. नांदेड़ में हुजूर साहिब के अलावा कई अन्य ऐतिहासिक गुरुद्वारे भी हैं और ये सभी गुरुद्वारे गोदावरी नदी के किनारे पर बने हुए हैं.
यहां खास यह है कि आसपास रहने वाले मराठी लोग भी गुरु के रंग में रंगे हुए हैं और दिन-रात यहां सेवा करते हैं. यहां तक कि गुरुद्वारे में कई पाठी और ग्रंथी मराठी हैं, जिनके बुजुर्गों ने सदियों पहले सिख धर्म को अपना लिया था.
ऐसे आइए सिखों के इस पावन स्थान के इतिहास को जान लेते हैं –
गुरु गांबिंद सिंह जी का परलोक चलाणा
सन 1708 से पहले गुरु गोबिंद सिंह जी ने धर्म प्रचार के लिए कुछ वर्षों तक यहां अपने कुछ अनुयायियों के साथ शिविर लगाया था.
इससे पहले गुरु जी अपने पूरे परिवार को खो चुके थे. यहां उनके साथ काफी संगत जुड़ी थी. रोजाना कीर्तन-पाठ हुआ करता था.
यहां आने से पहले दो हमलावरों ने गुरु गोबिंद सिंह जी पर हमला किया था, लेकिन गुरु साहिब ने उनका मुंह तोड़ जवाब दिया और उन्हें अपनी तलवार से मार गिराया. हालांकि इसमें गुरु साहिब को गहरी चोट भी लगी, लेकिन अपनी संगतों के स्नेह और गुरु साहिब की हिम्मत से वह चोटें जल्द ही ठीक हो गईं.
फिर एक दिन गुरु साहिब को अचानक एक चोट का दर्द महसूस हुआ. इस पर उन्होंने संगतों से कहा कि अब 'परलोक चलाणा' का समय आ गया है.
उन्होंने संगतों को आदेश दिया कि अब गुरु ग्रंथ साहिब ही आपके गुरु हैं. आप अपना हर काम गुरु ग्रंथ साहिब के आदेश और रस्मों के अनुसार ही करेंगे. यह सुन संगतों की आंखें भर आईं, लेकिन गुरु जी ने उन्हें आंसू न बहाने की सलाह दी और गुरु ग्रंथ साहिब को अंग-संग मानने का आदेश दिया.
गुरु जी ने पांच पैसे और नारियल गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख रख माथा टेका और श्रद्धा सहित परिक्रमा की. इस पवित्र दिन समूह सिख संगतों को साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी से जोड़कर और युग-युगों तक अटल गुरुता गद्दी अर्पण की.
गुरु जी ने श्रीगुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु गद्दी देकर दीवान में बैठी संगत को फरमाया
आगिआ भई अकाल की तवी चलाओ पंथ..
सब सिखन को हुकम है गुरु मानियो ग्रंथ..
गुरु ग्रंथ जी मानियो प्रगट गुरां की देह..
जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शब्द में लेह..
इसके बाद गुरु साहिब ने सर्वत्र खालसा सिख संगत को भविष्य का मार्ग दिखाया और सदैव गुरु ग्रंथ साहिब जी के नियमों और मार्ग पर चलने का आदेश दिया.
संगतों को आदेश देकर गुरु साहिब अपने प्रिय घोड़े दिलबाग पर सवार होकर परलोक चलाणा कर गए. सिखों के अनुसार, गुरु गोबिंद सिंह जी ने जीवित परलोक चलाणा किया था.
इसके काफी समय बाद इस पावन-पवित्र धरती का नाम श्री अबचलनगर रख दिया गया.
हुजूर साहिब का निर्माण
गुरुद्वारा का निर्माण ठीक उसी स्थान पर किया गया, जहां गुरु गोबिंद सिंह जी ने आखिरी बार दर्शन दिए थे. गुरुद्वारे के भीतरी कक्ष को अंगीठा साहिब कहा जाता है, जिसका निर्माण उस स्थान पर किया गया, जहां 1708 में गुरु गोबिंद सिंह जी आखिरी बार विद्यमान थे.
सन 1832 से 1837 तक पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के आदेश पर इस गुरुद्वारे का निर्माण कार्य चला.
गुरु गोबिंद सिंह जी की यह अभिलाषा थी कि उनके परलोक चलाणा के बाद संतोख सिंह जी (जो उस समय सामुदायिक रसोई घर की देखरेख करते थे) नांदेड़ में ही रहें और गुरु के लंगर को निरंतर चलाएं.
गुरु साहिब ने कहा था कि बाकी संगत चाहे तो पंजाब वापस जा सकती है, लेकिन गुरु जी के प्रेम और बलिदान को देखते हुए संगतों ने वापस पंजाब जाने से मना कर दिया और नांदेड़ रहने का ही निर्णय लिया.
संगतों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की याद में छोटा सा गुरुद्वारा बनाया था, जिसमें गुरु ग्रंथ साहिब जी की स्थापना की गई थी.
आगे चलकर महाराजा रणजीत सिंह जी ने इस जगह पर भव्य गुरुद्वारे का निर्माण कराया, जो आज सिखों के महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है.
गोदावरी से भरकर लाया जाता है मटका
गुरु साहिब जी अपने समय पर स्नान और अन्य कार्यों के लिए अमृत वेले (तड़के, सुबह पूजा-पाठ के समय) पास बहती गोदावरी नदी से गागर (मटका) भर कर लाया करते थे.
उनकी इस परंपरा को आज भी गुरुद्वारे में जीवित रखा गया है. आज भी तड़के लगभग ढाई से तीन बजे के बीच गोदावरी नदी से गागर को भर कर लाया जाता है, जहां गुरु गोबिंद सिंह जी ने आखिरी समय व्यतीत किया था, उस स्थान को गोदावरी के जल से धोया जाता है.
जो गोदावरी नदी से जल भरकर लाते हैं, उन्हें भाई गागरी का नाम दिया गया है.
पानी भरते वक्त पहले वहां पाठ किया जाता है और फिर अरदास के बाद वहां से सचखंड साहिब में जल लाया जाता है.
दिलबाग की याद में रखे हैं घोड़े
गुरु साहिब हमेशा अपने अपने साथ प्रिय घोड़े दिलबाग को रखते थे. दिलबाग नीले रंग का घोड़ा था और उस तरह का घोड़ा दोबारा कभी नहीं हुआ.
गुरुद्वारा साहिब के पास एक बहुत बड़ा अस्तबल बनाया गया है, जहां काफी सारे घोड़े रखे गए हैं.
सिख बुद्धिजीवियों का कहना है कि इन घोड़ों को गुरु साहिब के घोड़े दिलबाग की याद में रखा गया है. दिलबाग अपनी प्रजाति का एकमात्र घोड़ा था, जो गुरु साहिब के साथ ही परलोक चलाणा कर गया.
आज भी सुबह और शाम अस्तबल में से कुछ मुख्य घोड़ों को गुरुद्वारा साहिब के बाहर लाया जाता है और संगतों को दर्शन करवाए जाते हैं.
ये तो सभी जानते हैं कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना आखिरी समय तख्त सचखंड श्री हुजूर साहिब में बिताया था, लेकिन यहां उन्होंने कैसे जीवन व्यतीत किया और संगतों के साथ किस तरह रहे, ये सब चीजें अब एक फांउटेशन शो के जरिए गुरुद्वारा गोबिंद बाग में दिखाई जाती हैं.
न सिर्फ गुरु गोबिंद सिंह, बल्कि सिखों के 10 गुरुओं की कहानी को फांउटेन पर बेहद खूबसूरती से उकेरा जाता है.
Web Title: History of Takhat Sachkhand Sri Hazoor Sahib Nanded, Hindi Article
Feature Image Credit: wordzz/sikhtourism