'गुड बैक्टीरिया' और 'बैड बैक्टीरिया' के बारे में आपने जरूर सुना होगा! पर क्या कभी 'गुड आतंकी' 'बैड आतंकी' का नाम सुनने को मिला! बेशक इसका जवाब होगा कि आंतकी, आतंकी होता है, वह हर हाल में 'बैड' होता है.
उनमें भला कुछ भी 'गुड' कैसे हो सकता है? एक हद तक यह सच है, पर पूरी तरह से नहीं. वह इसलिए, क्योंकि आंतकियों की बिरादरी में भी ये दो गुट होते हैं, यह बात और है कि 'बैड' ने 'गुड' को खत्म कर दिया है!
हम जिस 'गुड आतंकी संगठन' की बात कर रहे हैं. उसे 'इखवान-उल-मुस्लिमून' कहा जाता है. यह हिन्दुस्तान के साथ था और 'बैड' यानि लश्कर-ए-तैयबा, जैज मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे बाकी संगठन, जो हिन्दुस्तान के खिलाफ.
बंदूके दोनों के पास थीं. एक की गोली आवाम पर चलती थी और दूसरे की आंतकियों के कलेजे पर. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर भारत के 'गुड आतंकी' कहां गए?
आईए जानते हैं-
सेना के साथ बन गए थे आंतकी
90 का दशक घाटी के आतंकियों के लिए किसी काल से कम नहीं था. इसे 'कुका पारा' काल कहना अतिशयोक्ती नहीं होगी! इस दौर में जो हश्र आंतकियों का हुआ था, वो शायद अब तक नहीं हो पाया है.
इसका सारा श्रेय जाता है कश्मीरी-डोगरी गीत गाने वाले उस इंसान को जिसे लोग मोहम्मद यूसुफ पारे के नाम से जानते थे.
उसने अपनी कला को बंदूक की नोक पर रख दिया और तय किया कि वह कश्मीर को आंतकियों से आजाद करा कर रहेगा. लोग उसे 'कुका पारे' कहते थे. कुका हिजबुल को खत्म करना चाहता था. आवाम समझती थी कि वह सेना का आदमी है, पर सेना ने कभी सामने से उसे नहीं अपनाया. न ही भारत सरकार ने कभी उसके सिर पर हाथ रखा.
वैसे यह संभव भी नहीं था. क्योंकि कुका कोई आम कश्मीरी नहीं, बल्कि 'इखवान-उल-मुस्लिमून' जैसा संगठन चलाने वाला आंतकी था. यह बात और है कि उसे 'गुड आंतकी' कहा जाता था.
उसने सीमा पार पाकिस्तान के आंतकी शिविर में प्रशिक्षण लिया. फिर आंतकवादी बना और सरेंडर करके भारत के साथ हो गया. वह उन लोगों के खिलाफ लड़ रहा था, जिनके खेमें में कभी रहा था.
ऐसे में वह हर आंतकी संगठन की कमजोर नब्ज जानता था. वह उनके तौर तरीकों से वाकिफ था. यही कारण है कि भारतीय सेना, कश्मीर पुलिस और इंटेलीजेंस तक उससे सूचनाएं लेती थीं.
इखवानियों की तुलना छत्तीसगढ़ के सल्वा जुडुम से की जा सकती है. जो आदिवासियों की फौज तैयार कर नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं. वहां की सरकार उन्हें समर्थन देती है.
खैर इस फौज के बारे में अगले हिस्से में जानेंगे, आज बात केवल 'कुका पारे' और 'इखवानियों' की है.
इखवानियों के कारण ही घाटी में 1996 के आम चुनाव संभव हो पाए थे. उस दौर में आंतकियों ने कश्मीर पर कब्जे की जितनी कोशिशें की उन सबको नाकाम करने के पीछे इखवानियों का हाथ रहा.
वे सेना के मुखबिर नहीं थे, बल्कि सैनिक थे जो फ्रंट पर आकर आंतकियों के सीने छलनी करते थे.
जब अकेला हो गया 'इखवान'
1996 के आम चुनावों में उन्होंने लोकतंत्र का हिस्सा बनने की पहली कोशिश की. कश्मीर की समस्या यह थी कि हर वो नेता जो चुनाव लड़ रहा था. वह आंतकियों की हिट लिस्ट में शामिल हो सकता था.
दूसरा 1989 के चुनावों में जो धांधली हुई थी उसके बाद हर राजनीतिक पार्टी कश्मीर का जनाधार खो चुकी थी. ऐसे में घाटी में चुनाव होना भारत सरकार के लिए किसी नामुमकिन लक्ष्य से कम नहीं था.
आखिर लंबे राष्ट्रपति शासन के बाद भारत के पास यह मौका था कि वह कश्मीर में चुनाव करवाकर दुनिया में अपनी शांति प्रक्रिया का प्रमाण दे. कश्मीर में लोकतंत्र कायम करना जरूरी हो चुका था.
ऐसे में एक बार फिर सरकार ने 'कुका पारे' की मदद ली. उसने अपनी राजनीतिक पार्टी 'जम्मू ऐंड कश्मीर आवामी लीग' तैयार की. सरकार चाहती थी चुनाव हों और पारे चाहता था कि उसकी छवि सुधरे.
दोनों का काम हो गया, पर कुका चुनाव में सीधे नहीं उतरा और उसके सारे उम्मीदवार हार गए. विधानसभा चुनावों में उसने यह गलती नहीं दोहराई और खुद अपनी पार्टी से चुनाव लड़ और जीता भी, लेकिन एक बार फिर उसके बाकी उम्मीदवार हार गए.
कुका विधायक बना. वहीं दूसरी ओर नैशनल कॉन्फ्रेंस ने चुनाव जीता और फार्रूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने. बस यही वो दौर था जब सेना और इखवान के बीच दिक्कतें शुरू हो गईं.
कुका को लोकतंत्र में रहना था, तो आंतक तंत्र छोड़ना पड़ा. लेकिन इसके चलते इखवान और अराजक हो गए. विधायक के साए में इखवानों पर आरोप लगने लगे कि वे किसी की नहीं सुनते.
वे ऐसी हत्याएं करते हैं, जिनकी कोई वजह ही नहीं. लोगों को डराते हैं, पैसे वसूलते हैं. सेना के हाथ से बात फिसलती जा रही थी. अब्दुल्ला सरकार ने इखवानों पर सख्ती दिखना शुरू किया. दो साल के भीतर ही सैंकडों इखवानों पर मुकदमें दर्ज हो गए, गिरफ्तारियां हुईं और कुछ एंनकाउंटर भी.
1998 तक 'इखवान-उल-मुस्लिमून' गुजरे दौर की बात हो गई.
...और मार दिया गया 'कुका पारे'
सेना से दूरियां और राज्य सरकार के निशाने पर आने के बाद अब इखवानों का ठौर ठिकाना नहीं रह गया था. सरकार का साथ देने की वजह से कश्मीरी आवाम ने उन्हें गद्दार करार दे दिया. यानि चारों ओर से केवल नफरत मिली.
यही वह मौका था, जब 'बैड आंतकियों' ने फिर से सक्रिय होना शुरू किया. सबसे पहले 'गुड आंतकियों' को निशाने पर लिया. कुछ इखवान आंतकियों की गोली से मरे तो कुछ आवाम के पत्थरों से और बचे हुए लोगों को सेना-पुलिस का भी साथ न मिला.
जिस कुका से एक वक्त में कश्मीर खौफ खाता था. उसे आंतकियों ने उसी के इलाके में साल 2003 में मौत के घाट उतार दिया. यह हत्या मुश्किल नहीं थी. जैश-ए-मुहम्मद के दो आतंकवादी हाथ में AK-47 लेकर आए और उसे भून दिया.
बाद में इसका जिम्मा भी ले लिया. तर्क दिया कि हमने कमांडर गाजी बाबा की हत्या का बदला लिया है.
बाद में खुलासा हुआ कि 2001 और 2002 में कुका ने एक चिट्ठी लिखकर सरकार से सुरक्षा की मांग की थी. पर उसे निम्न श्रेणी की सिक्योरिटी दी गई. उसने बुलेट प्रूफ कार मांगी, पर वह भी सरकार ने देना मुनासिब न समझा.
सब जानते थे कि जिस दिन आंतकियों को मौका मिला उस दिन कुका का अंत है, पर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया गया.
एक-एक कर दे दी गई मौत
साल 2003 में कुका की मौत के बाद इखवानों का सफाया तेजी से हुआ.
4 अप्रैल, 2018 को अब्दुल गफ्फार बट के घर आधी रात को दो बंदूकबाज पहुंचे और उसे उसके 24 साल के बेटे मंजूर के साथ उठाकर ले गए. कुछ देर में गोलियों की आवाज ने पूरे गांव को जगा दिया. अब्दुल खून से सनी हालत में घर पहुंचे.
जबकि, मंजूर की लाश दो दिन बाद सेब के बागीचे में मिली. उसका सिर धड़ से अलग था.
25 मई, 2018 को पांच आतंकी मुहम्मद याकूब वागे के घर पहुंचे. एक ने उसकी बीवी को पकड़ा और दूसरे ने बेटे को. बाकियों ने उन दोनों के सामने ही याकूब का गला काट दिया. यह सिलसिला आगे भी जारी रहा.
करीब 6 अन्य परिवारों में ऐसा हुआ. अब्दुल, याकूब और बाकी मरने वाले सभी एक वक्त में इखवान थे या उसके साथी रहे.
2 अप्रैल को एक स्थानीय ड्राइवर और एक क्रिकेट खिलाड़ी नसीर अहमद शेख की हत्या. अगस्त 2017 में नसीर के एक रिश्तेदार मुजफ्फर अहमद पर्रे का सिर कलम करने की घटना. सब एक ही वजह से हो रही थीं. 2003 में करीब 150 इखवान मारे गए, जबकि 2018 तक इनकी संख्या कई गुना हो गई.
आज इखवानों का घर 'हाजिन' अपने अतीत के कर्मों की सजा भोग रहा है.
'ऐरर ऑफ जजमेंट' या फिर...
आलम यह है कि हाजिन में रहने वाले कई लोग अपना घर-बार छोड़कर कश्मीर से ही बाहर चले गए हैं. कुछ रिश्तेदारों के यहां छिपते फिर रहे हैं. कुछ ने सुरक्षा के लिए अपने ही दुश्मन आंतकियों से हाथ मिला लिया है.
इन हत्याओं से पुलिस व खुफिया एजेंसियों को भी घाटा हुआ है, क्योंकि उन्हें अब आंतकियों की पक्की सूचनाएं नहीं मिल रही हैं.
इखवानों को लगता है कि भारत ने उनका इस्तेमाल किया और फिर मरने के लिए छोड़ दिया. उन्होंने सेना का साथ दिया और बदले में मिली कश्मीरी आवाम से अविश्वसनीयता, लश्कर और जैस जैसे आंतकी संगठनों से दुश्मनी.
राज्य सरकार इखवान मेंबर्स की मौत के बाद उनके परिवार को 1 लाख बीस हजार रुपए मुआवजा बांटती है, तो इतना तय है कि सरकार मानती है कि वे हमारा हिस्सा थे और हैं.
यदि ऐसा है तो सवाल उठता है कि अब क्या हुआ?
हथियारबंद लड़ाकों को सपोर्ट लेने और देने के अपने फायदे और नुकसान है. कश्मीर में हवा में अब भी यह चर्चा है कि सेना और आतंक की जंग में किसी तीसरे को प्लेयर नहीं बनने देना था... और यदि बनाया गया तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उठाते.
बाप इखवान लड़ाका था और आतंकी बेटे का गला काट रहे हैं.
बस अब यही सच्चाई रह गई है. इसे ‘ऐरर ऑफ जजमेंट’ ही कहा जा सकता है, जिसे आज पूरा कश्मीर भोग रहा है.
Web Title: Terrorist Organization Ikhwan-ul-Muslimeen, Hindi Article
Feature Image Credit: Newslaundr