केरल इस समय बाढ़ से जूझ रहा है. इस बार केरल में आई बाढ़ को पिछले सौ साल में आई सबसे भयावह बाढ़ की संज्ञा दी गई है. इसने लगभग समूचे केरल को ही डुबो दिया.
अभी तक लगभग पांच सौ लोग इस बाढ़ में मारे जा चुके हैं और हजारों करोड़ों की परिसंपत्ति यह बाढ़ निगल गई है.
आने वाले कुछ दिनों में बाढ़ का प्रत्यक्ष कहर समाप्त हो जाएगा, लेकिन इसके दाग कई दिनों तक बने रहेंगे. हमेशा की तरह इस बाढ़ ने समाज के सबसे शोषित तबके को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है.
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गरीब किसानों की फसलें बर्बाद हो गई हैं, श्रमिकों के घर और जमा पूँजी बह गए हैं और लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा है.
हर साल बरसात के मौसम में देश के किसी न किसी हिस्से में बाढ़ आती है. हर साल सरकारें लीपापोती कर बाढ़ को महज एक प्राकृतिक आपदा बता देती हैं और इससे निपटने के लिए कोई ठोस इंतजाम नहीं करती हैं.
ऐसे में यह जानना बहुत जरूरी है कि क्या सच में बाढ़ केवल एक प्राकृतिक आपदा है या फिर इसके कारण मानव जनित हैं-
बाढ़ बन गई है जेब भरने का जरिया
आज आजादी के 71 वर्षों के बाद हमारे देश ने तकनीक के क्षेत्र में बहुत ज्यादा प्रगति कर ली है. हमने तरह-तरह के कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में भेज दिए हैं. इन उपग्रहों की सहायता से आज प्राकृतिक आपदाओं के बारे में पहले से पता करना बहुत आसान हो गया है.
लेकिन इसके बाद भी इससे बचने के लिए कोई तैयारी नहीं की जाती है.
इसके पीछे का कारण सिर्फ इतना है कि बाढ़ के बाद होने वाले राहत कार्यों के लिए लाखों-करोड़ों रूपए का राहत फंड आवंटित किया जाता है. इस फंड में सरकारें, प्रशासनिक अफसर और स्वयंसेवी संगठन अपना-अपना हिस्सा निकाल लेते हैं.
इस तरह से बाढ़ कमाई का एक जरिया बन जाती है.
बाढ़ की विभीषिका को कम करने की जगह राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप लगाते रहते हैं. लेकिन कोई भी बाढ़ के खतरे से बचने के लिए वास्तविक इंतजाम नहीं करता है. हर साल बाढ़ आती है और हर साल नेता लोग हवाई दौरे करते नज़र आते हैं.
पिछले वर्षों में केदारनाथ, चेन्नई, कश्मीर, मुंबई और उत्तर-पूर्व में बाढ़ अपना कहर बरपा चुकी है. इसमें चिंता की बात यही है कि पुराने समय की तरह अब बाढ़ एक निश्चित समयांतराल पर आने की जगह नियमित हो चुकी है.
यह बताता है कि कहीं न कहीं हम पर्यायवरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं और बदले में वो विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमसे बदला ले रहा है.
मानव जनित कारणों से आ रही है बाढ़
यदि हम बाढ़ के कारणों पर नजर डालें तो हमें नजर आएगा कि कई कारक इसके लिए जिम्मेदार हैं. अभी जाने-माने पर्यावरणविद माधव गाडगिल ने बताया कि पेड़ों कि बेलगाम कटाई, अंधाधुंध खनन और प्राकृतिक रूप से संवेदनशील माने जाने वाले इलाकों में रिहायशी इमारतों के निर्माण से ही हर साल नदियों में बाढ़ आ रही है.
यदि हम केरल की ही बात करें, तो यह राज्य पश्चिमी घाट के इलाके में मौजूद है. पश्चिमी घाट इलाके में केरल के अलावा कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा भी शामिल हैं. समय-समय पर अनेक पर्यायवरण समितियों ने इन राज्यों की सरकारों को रिपोर्ट भेजी हैं.
इन रिपोर्टों में बाढ़ के कारकों को नियंत्रित करने की बात कही गई है. लेकिन किसी भी सरकार ने इन रिपोर्ट्स को तरजीह नहीं दी.
होता यह है कि पहाड़ों पर लगे पेड़ मिट्टी के कटाव को रोकते हैं. जब ये पेड़ काट दिए जाते हैं, तो पहाड़ों की मिट्टी नदी अपने साथ बहा ले जाती है और यह गाद के रूप में नदी के तल में जमा होने लगती है. इससे नदी उथली हो जाती है और ज्यादा पानी बरसने की स्थिति में बाढ़ आ जाती है.
वहीं नदियों के किनारे बसाये गए रिहायशी इलाकों और शहर के बीचोबीच बनाए गए नालों को पाट देने की वजह से जल निकासी के प्राकृतिक रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं और थोड़ी सी ही बारिश में शहर डूबने लगता है. मुंबई में सन 2005 में आई बाढ़ इसका एक ज्वलंत उदहारण है. इसमें करीब 1,200 लोग मारे गए थे.
असल में अंधे मुनाफे की हवस और विकास के नाम पर पर्यायवरण के साथ की जा रही छेड़छाड़ ही वो असली वजह है, जिसके कारण लगातार बाढ़ आ रही है. यदि हम 2013 में केदारनाथ के उत्तरकाशी में आई बाढ़ को देखें, तो इससे हमारा यह मत पुख्ता हो जाता है.
इस बाढ़ को भले ही ईश्वर का प्रकोप बताया गया हो, लेकिन असल में पेड़ों की अन्धान्धुन्ध कटाई, नाजुक पर्यायवरण का ख्याल रखे बिना सैंकड़ों होटलों, रिजोर्टों और पार्किंग गृहों के निर्माण से नदियों और ग्लेशियरों के प्राकृतिक प्रवाह के रास्ते बंद हो गए और त्रासदी आ गई.
मानवता को केंद्र में रख बनानी होंगी योजनाएं
अगर हम बाढ़ से बचाव की बात करें तो थोड़े से प्रयासों से बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं. इन प्रयासों से न केवल हम पर्यायवरण का सरंक्षण कर पाएंगे, बल्कि बाढ़ के प्रभाव को एक बड़ी सीमा तक कम भी कर पाएंगे.
लेकिन इसके लिए हमें मुनाफे पर आधारित इस व्यवस्था से निपटारा पाना होगा, जो मानवीय आवश्यकताओं की बजाय बस कुछ चंद लोगों के इशारे पर काम करती है.
सरकारें इन चंद लोगों को खुली छूट देती हैं. वर्तमान में राष्ट्रीय वन्यजीव परिषद की स्वायत्ता ख़त्म कर दी गई है. अब जगलों की अंधाधुंध कटाई और बेलगाम खनन बिना किसी रोक-टोक के करना और आसान हो गया है.
यदि हम पहले की बात करें तो 1954 में गंगा आयोग का गठन हुआ था. इसने कई बहुउद्देशीय योजनाओं का प्रस्ताव रखा था. इसमें नेपाल से आने वाली नदियों के साथ आने वाली सिल्ट रोकने के लिए अलग-अलग बाँध बनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया था.
इसका आधा-आधा फायदा दोनों देशों को मिलता. तब इसके लिए 33 करोड़ रूपए की जरूरत थी. आज ऐसा करने के लिए लगभग 500 करोड़ रुपए की जरूरत है.
वहीं 1976 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग बना था. इसने नदियों से गाद हटाने की हिदायत दी थी. लेकिन किया कुछ भी नहीं गया.
कुल मिलकर लब्बोलुआब यही है कि आज हमारे पास बाढ़ से बचने और उसके प्रभाव को कम करने के लिए साधन मौजूद हैं. हमारे पास कई योजनाएं भी मौजूद हैं. ये योजनाएं दीर्घकालीन जरूर हैं, लेकिन कारगर हैं. ऐसा विभिन्न देशों के उदाहरणों से हमें पता चलता है.
आज जरूरत है कि हम पर्यायवरण का सरंक्षण करें. जो चंद मुनाफाखोर अपने मुनाफे के लिए लगातार प्रकृति का विनाश करते जा रहे हैं, उनके ऊपर लगाम लगाएं. ऐसा करने पर ही हम आने वाले समय में बाढ़ की विभीषिका से बच पाएंगे.
प्रभावित लोगों के लिए आप यथासंभव दान कर सकते हैं. डोनेट करने के लिए इस लिंक पर जाएं: https://milaap.org/fundraisers/helpkeralaroaragain
केरल बाढ़ प्रभावित लोगों की मदद के लिए रोर इंडिया यह अभियान #RoarForKerala चला रहा है. इस अभियान से सम्बंधित दूसरे लेख, विडियो इत्यादि आप यहाँ देख-पढ़ सकते हैं:
Web Title: Is Flood A Natural Calamity or Manmade, Hindi Article
Feature Image Credit: actionindia