प्रकृति की सुन्दरता से किसे लगाव नहीं होता. सभी उसके नजारें अपनी आंखों में कैद कर लेना चाहते हैं. यही कारण होता है कि जब कभी भी हमें कोई किसी नेशनल पार्क में घूमने के लिए कहता है, तो हम बिना सोचे हां कह देते हैं!
भारत सरकार भी इसकी महत्ता को समझती आई है. यही कारण है कि समय-समय पर उसने राष्ट्रीय पार्कों और उद्यानों के रूप में प्राकृतिक धरोहर को संरक्षित करने का काम किया. इसी कड़ी में अगर भारत के पहले राष्ट्रीय पार्क की बात की जाए तो, हर एक की जुबां पर उत्तराखंड के रामनगर में बसा जिम कार्बेट नेशनल पार्क का नाम आता है.
इस पार्क की सुंदरता के किस्से आपने खूब सुन रखे होंगे, किन्तु क्या आप आप जानते हैं कि इसका नाम ‘जिम कार्बेट’ ही क्यों रखा गया?
कहते हैं कि एक समय में इस पार्क में आदमखोर बाघों और तेंदुओं का आतंक था. ऐसे में ‘जेम्स एडवर्ट जिम कॉर्बेट’ नामक एक शिकारी वहां के लोगों के लिए मसीहा बनकर आया.
बाद में इन्हीं के प्रयासों से भारत को पहला नेशनल पार्क मिला था.
तो आईए जानने की कोशिश करते हैं कि ‘जिम कॉर्बेट’ कौन थे और शिकारी होने के बावजूद कैसे उनके दिल में जानवरों के लिए प्रेम पनपा–
कौन थे जिम कॉर्बेट?
जिम कॉर्बेट का जन्म 25 जुलाई 1875 में नैनीताल में ही हुआ. आम बच्चों की तरह ही वह बड़े हुए. उनकी शुरुआती पढ़ाई नैनीताल के फिलैंडर स्मिथ कॉलेज से पूरी हुई. इसके बाद उन्होंने 19 वर्ष की उम्र में सबसे पहले रेलवे की नौकरी शुरू कर दी. हालांकि, बाद में उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और दूसरे कार्यों में लग गए.
इसी दौरान उत्तराखंड के जंगलों में आदमखोर बाघ और तेंदुए जैसे खूंखार नरभक्षियों का आतंक चरम पर पहुंच गया था. जंगलों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों का जीना मुश्किल हो गया था. कुमाऊ-गढ़वाल में लोग दिन-ब-दिन इन आदमखोर जानवरों के शिकार हो रहे थे. यहां रहने वाले एक बाघ ने तो करीब 436 लोगों को अपना शिकार बना लिया था.
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए?
ऐसे में ‘जिम कार्बेट’ शिकारी के रूप में वहां के लोगों के लिए मसीहा बनकर आये.
उस समय की सरकार भी लोगों को मौत के घाट उतारने वाले नरभक्षियों से निजात पाना चाहती थी. इस परिस्थिति से उबरने के लिए तत्कालीन सरकार ने ‘जिम कार्बेट’ से मदद मांगी.
Jim Corbett (Pic: Corbett Expert)
मसीहा बनकर उभरे…
चूंकि, वह उस समय के नामी शिकारी थे, इस लिहाज से वह इस स्थिति पर काबू पाने में सक्षम थे. उन्होंने जंगल में आते ही मौत का पर्याय बन चुके जानवरों का शिकार शुरू कर दिया.
जिम ने अपना पहला शिकार ऐसे आदमखोर बाघ को बनाया, जिसने करीब 436 लोगों को मौत के घाट उतारा था. इसके बाद उन्होंने 1910 में मनुष्यों की जान लेने वाले पहले तेंदुए को मार गिराया, जिसने तकरीबन 400 लोगों कोअपना शिकार बनाया था.
1926 में रुद्रप्रयाग में दूसरा तेंदुआ उनका शिकार बना, जिसने 126 लोगों की जान ली थी.
अपने शिकार से जिम स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में सफल रहे. जब भी उन्हें जंगल में किसी आदमखोर नरभक्षी के आने की खबर मिली, तब जिम कार्बेट को बुला लिया जाता था. फिर क्या… वह जंगल की ओर शिकार पर निकलते और उसे मारकर ही वापस लौटते थे.
हालांकि, कई बार तो जिम और आदमखोरों के बीच होने वाली मुठभेड़ भयावह हो जाती थी.
Jim Corbett (Representative Pic: JCNP)
33 नरभक्षियों का शिकार!
जिम कार्बेट के अनुसार उन्होंने 1907 से 1938 के बीच लोगों की जान लेने वाले 33 आदमखोर नरभक्षियों का शिकार किया. उनमें 19 बाघ और 14 तेंदुए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन नरभक्षियों ने 1200 लोगों की जान ली थी. जिम कार्बेट ने जिन बाघ और तेंदुओं का शिकार किया था, वह पहले से ही चोटिल अवस्था में पाए गए.
बताया गया कि घायल होने के चलते वह शिकार कर अपना पेट भरने में असमर्थ हो चुके होंगे. इसी वजह से उनके द्वारा लोगों का शिकार किया जा रहा होगा. उन्होंने इस बात का जिक्र अपने द्वारा लिखी पुस्तक ‘मैन इटर्स आफ कुमाऊँ’ में किया है.
उन आदमखोरों में ऐसे बाघ भी शामिल थे, जो गोलियों से घायल हुए थे.
यूं तो जिम आदमखोर नरभक्षियों का शिकारी करने में माहिर थे, किन्तु अपने शिकार के दौरान जिम ने इस बात का खास ख्याल रखा कि उनके हाथों कोई ऐसे जानवरों का शिकार न हो जाए, जो मनुष्यों को नुकसान नहीं पहुंचाते थे.
अपनी इस कोशिश में वह सफल भी रहे.
जिम की मौत के बाद क्या!
आगे चलकर जिम ने महसूस किया कि अगर वह इसी तरह से बाघ और तेंदुओं को मारते रहेंगे, तो वह विलुप्त ही हो जायेंगे. इस कारण उन्होंने शिकार करना छोड़ दिया और लोगों को उनके संरक्षण के लिए प्रेरित किया.
साथ ही ‘जिम कॉर्बेट’ बाद के दिनों में वन्यजीव संरक्षक बन गए थे और अपनी इस नई भूमिका में भी उन्होंने बाघों का बचाव उतनी ही शिद्दत से किया जितने जुनून के साथ उन्होंने आदमखोर बाघों का शिकार किया था.
सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने ‘मैन इटर्स आफ कुमाऊँ‘ नामक पुस्तक लिखी, जिसके लिए 1928 में उन्हें ‘केसर-ए-हिन्द’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
अपने सफर में जिम ने अपने मित्र चैंपियन के साथ मिलकर 1936 में कुमाऊँ हिल्स पर स्थित भारत के पहले राष्ट्रीय पार्क को स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया.
1955 ई. में ‘जिम कार्बेट’ ने हमेशा के लिए अपने लोगों को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.
अपने शिकार करने की कला के लिए पूरी ज़िंदगी कुमायुं के पहाड़ों में बिताने के बाद जिम कॉर्बेट देश की आज़ादी के बाद कीनिया चले गए थे, जहां 79 साल की उम्र में साल 1955 में उनकी मौत हो गई थी.
Jim Corbett Park (Pic: JCNP)
बाद में 1957 में कुमाऊँ के रामपुर में बसे राष्ट्रीय पार्क का नाम बदलकर उनके नाम पर ‘जिम कार्बेट नेशनल पार्क’ कर दिया गया. जबकि, शुरू में इस पार्क का नाम ‘लार्ड माल्कम हैली’ हुआ करता था.
ऐसे कैरेक्टर जो एक तरह बाघों को मारे, वहीं दूसरी तरह बाघों सहित अन्य जानवरों के बचाव के लिए अभियान चलाये, कम ही लोग हुए होंगे… संभवतः नगण्य!
अपने दोनों ही रोल में उन्हें तारीफ़ मिलनी चाहिए और इससे बड़ी तारीफ़ क्या होगी कि उनके नाम से ही पूरा राष्ट्रीय उद्यान आज भी जंगली जीवों की शरण स्थली बना हुआ है.
आप का क्या कहना है?
Web Title: Jim Corbett, Founder of Jim Corbett Park, Hindi Article
Featured Image Credit: The Logical Indian