हिन्दी की मुख्यधारा से जुड़े साहित्यकार डॉ. विनोद बब्बर से रोर हिन्दी के संपादक मिथिलेश कुमार सिंह ने भारतीय भाषाओं के वर्तमान स्वरूप, तकनीकी दुनिया में अंग्रेजी की बादशाहत, हिन्दी की मौजूदा चुनौतियों, युवा-शक्ति, भाषा को लेकर राजनीतिक पहलू सहित कई मसलों पर सवाल पूछे, जिन पर डॉ. बब्बर ने अपनी बेबाक राय रखी.
पेश हैं इस इंटरव्यू से जुड़े कुछ अंश –
प्रश्न: 2011 की जनगणना के आधार पर भारतीय भाषाओं के आंकड़े हाल ही में सामने आए हैं, जिसमें हिन्दी को सर्वाधिक 43.63% लोगों ने अपनी मातृभाषा बताया है. इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर: हिंद की पहचान हिन्दी से है. भारत का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो हिन्दी को न समझे. यह आंकड़ा और भी बढ़ जायेगा अगर इसमें सहयोगी या क्षेत्रीय भाषाओं को मिला लिया जाए.
संभवतः इन आंकड़ों को जमा करते वक़्त ज्यादातर लोगों ने अपनी मातृभाषा के रूप में अपनी क्षेत्रीय बोली को माना होगा.
प्रश्न: देखा जा रहा है कि आज डिजिटल मीडिया में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, जिसे हिन्दी के साथ मिलाकर प्रस्तुत किया जा रहा है. यह लोगों के बीच बहुत प्रचलित भी हो रहा है. ऐसे में क्या वजह है कि हिन्दी साहित्य को मेनस्ट्रीम में इस तरीके की स्वीकृति नहीं मिल पा रही है?
उत्तर: ऐसा नहीं है, क्योंकि उदाहरण के तौर पर अगर देखें तो रामचरित मानस जो कि अवधी में है और ब्रज साहित्य को भी हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में शामिल किया गया है.
ऐसे में, ये सारी क्षेत्रीय भाषाएं उन नदियों की तरह हैं, जो एक साथ मिलकर एक गंगा का रूप ले लेती हैं, जो हिन्दी की मुख्यधारा में शामिल है. बोलियां और भाषाएं संस्कृति की वाहिनी हैं. इनके माध्यम से संस्कृति जीवंत रहती है.
इन बोलियों की तरफ़ आकर्षित होना इस राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करता है.
प्रश्न: 2011 की जनगणना के आधार पर भारतीय भाषाओं के आंकड़ों में ये बात भी सामने आई कि मात्र 2.6 लाख लोगों ने अपनी मातृभाषा अंग्रेजी बताई. फिर अंग्रेजी को ही क्यों कारोबारी भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है?
उत्तर: अंग्रेजी हम भारतीयों पर एक थोपी हुई और मजबूरी में स्वीकार की जाने वाली भाषा है. इसे अंग्रेजों ने हमारी भाषाओं को हीन और अंग्रेजी को ज्ञान की भाषा के रूप में दिखाने के लिए हम पर थोपा है.
ऐसा भ्रम थॉमस बैबिंगटन मैकाले के प्रयासों से स्थापित भी हुआ. लेकिन, हमने इस भाषा को हृदय से नहीं अपनाया है. वह इसलिए क्योंकि अगर ऐसा होता, तो ये आंकड़ा सिर्फ 2.6 लाख पर ही आकर नहीं खत्म हो जाता.
पाठ्यक्रम की पुस्तकें या किसी भी रिसर्च का इंग्लिश में उपलब्ध होना, इसे कारोबारी भाषा के रूप में इस्तेमाल किए जाने का कारण है. हिन्दी के शोध कार्यों की थीसिस अंग्रेजी में जमा करने का प्रावधान, इसका ही एक उदाहरण है.
हिन्दी भाषियों को यह समझने की जरूरत है कि हमें इन ज्ञान के माध्यमों को हिन्दी में लाना पड़ेगा. हिन्दी तभी समृद्ध होगी, जब ये लोकव्यवहार, प्रशासन और ज्ञान की भाषा बनेगी.
प्रश्न: क्या अंग्रेजी की वजह से भारत की स्वीकार्यता विश्व में कम हो सकती है. क्योंकि, चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने एक प्रश्न उठाया था कि आखिर चीन से क्यों कोई सुंदर पिचाई और सत्या नडेला नहीं निकल रहे?
उत्तर: हम किसी भाषा का विरोध नहीं करते. बस मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए. इसे एक विषय की तरह पढ़ाए जाने में कोई आपत्ति नहीं है.
वैसे भी भारत ने त्रि-सूत्रीय तरीका अपनाया है, जिसमें मातृभाषा, मातृभूमि की भाषा और अंग्रेजी शामिल है. रही बात चीन की तो आज वह एक वैश्विक शक्ति के तौर पर उभर रहा है, जिसके पीछे एक कारण उसकी अपनी भाषा को ज्यादा अहमियत देना भी है.
प्रश्न: आप द्वारा भाषा और संस्कृति पर लिखी हुई किताब पर कृपया प्रकाश डालें?
उत्तर: भाषा और संस्कृति एक-दूसरे से अलग नहीं हैं. ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं. उदाहरण के लिए अगर कोई महिला अपनी भाषा में अपना लोक गीत गा रही है, तो वो इसके द्वारा अपनी संस्कृति को भी दर्शा रही है.
ऐसे में एक भाषा से उसके लोगों और उनकी संस्कृति की पहचान जुड़ी होती है. भाषा खत्म हो गयी तो वहां की लोक संस्कृति भी समाप्त हो जाएगी. यदि युवाओं को इस अंतर्राष्ट्रीय भाषा के चलते निजी संस्कृति से काटकर रखा जाए, तो ऐसे में संस्कृति जीवित नहीं रह पाएगी. गाँधी जी ने भी अपने बच्चों को पहले अपनी भाषा और फिर अंग्रेजी सीखने के बारे में हमेशा बल दिया.
प्रश्न: आपकी पुस्तक में ही एक अध्याय में 'युवा एक पूंजी या बोझ' से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर: युवा शब्द का अर्थ है, जिसमें उत्साह हो, ऊर्जा हो और कुछ नया करने की क्षमता हो. किन्तु, अगर इस शब्द को उल्टा कर दिया जाए तो यह वायु हो जाता है, जिसे सकारात्मक दिशा देना अनिवार्य हो जाता है.
जरा सोचिए अगर युवाओं को शिक्षा बेरोज़गारी आदि से जूझना पड़े तो क्या होगा. निश्चित ही उनकी ऊर्जा नकारात्मकता में बदल सकती है. चूंकि, युवा भारत की पूंजी है और वह गलत रास्ते पर ना जाए, इसके लिए उन्हें व्यस्त रखा जाना चाहिए.
ऐसी कोशिश होनी चाहिए कि उनका ध्यान रचनात्मक कार्यों में लग सके.
प्रश्न: क्या वैश्वीकरण के दौर में जहां पूरा विश्व ‘ग्लोबल विलेज’ के तौर पर देखा जाता है, ऐसे में क्या हिन्दी को अपनी शब्दावली को लेकर उदार नहीं होना चाहिए?
उत्तर: हिन्दी हमेशा से उदार रही है. हिन्दी में अनेक भाषाओं के शब्द हैं. इसकी सहज स्वीकारिता की विशेषता के रहते हमने कभी सम्पूर्ण शुद्धता और कठोरता की बात नहीं की. वैसे भी विश्व में ऐसी कोई भी भाषा नहीं जो संपूर्ण हो.
हमें अक्सर कुछ शब्द अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा से लेने पड़ते हैं, लेकिन इन शब्दों का चयन हमें अपनी क्षेत्रीय भाषाओं से करना चाहिए. जैसे अंग्रेजी के नॉन-स्टॉप की जगह दुरंतों का प्रयोग करना. फ्लाईओवर की जगह बंगला भाषा के ही ओडान पुल का प्रयोग किया जा सकता है.
रही बात 'ग्लोबल विलेज' की तो भारत इस विचार से वर्षों पहले ही अवगत है. यहां तक कि भारत तो ‘ग्लोबल फैमिली’ विचार का प्रचारक सदियों से रहा है. आपने "वसुधैव कुटुम्बकम्" को तो सुना ही होगा जिसका अर्थ है सारी दुनिया एक परिवार है.
प्रश्न: आज सरकारी नीतियों से लेकर उनके नामों में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बढ़ रहा है, उदाहरण के लिए 'डिजिटल इंडिया'. इस विषय पर आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर: देखिए, हिन्दी की बात करना तो आसान है, लेकिन हिन्दी में बात करना कठिन है. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी कामों को करने वाले नौकरशाह अंग्रेजी को तरजीह देते हैं.
वो हिन्दी की अपने स्टेटस से तुलना करते हैं. उनके लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखों की भाषा है. वैसे भी सही मायनों में ये नौकरशाह ही सरकार चलाते हैं, जो अंग्रेजी को स्टेटस सिंबल बना कर उसके इर्द गिर्द एक भ्रम फैलाना चाहते हैं.
ये लोग इस भ्रम का इस्तेमाल देश की आम जनता को सरकारी योजनाओं से दूर रखने के लिए करते हैं.
प्रश्न: डिजिटल मीडिया के आने से रोमन टेक्स्ट को बड़े स्तर पर स्वीकृति मिल रही है. आप देवनागरी लिपि आंदोलन से जुड़े रहे हैं तो ऐसे में आप इसके बारे में क्या सोचते हैं और इसके विकल्प क्या हैं?
उत्तर: आपकी बात आंशिक रूप से सही है. शुरूआत में ऐसा था, लेकिन अब यह हाल नहीं है. आज लाखों की तादाद में ब्लॉग आदि लिखे जा रहे हैं, जोकि हिन्दी भाषा में हैं.
स्मार्ट फोन में हिन्दी बोलने पर हिन्दी अंकित होने के सॉफ्टवेयर आ चुके हैं. खुद अंग्रेजी के ज्ञाता बर्नार्ड शॉ ने अंग्रेजी को एक दरिद्र और अधूरी भाषा माना था. देवनागरी विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है. साथ ही यह एक फोनेटिक स्क्रिप्ट भी है.
ऐसे में हमें अपनी भाषा को बढ़ावा देने की जरूरत है. रोर हिंदी यह कार्य बखूबी कर रहा है.
रोर हिंदी के समस्त पाठकों को मेरा नमस्कार.
Web Title: Language and Culture: A Talk With Dr Vinod Babbar, Hindi Article
Feature Image Credit: Roar Team