आज की भाषा में कहें तो यह नाम कितना क्लासी लगता है! जिसे सुनकर आंखों के सामने अचानक से लाइटिंग जगमगाने लगती है, खूबसूरत कोठियां दिखाई देती हैं, झालर, झुमके, कांच से सजे हुए झालीदार पर्दे नजर आते हैं.
कल्पनाओं में तैरती हैं खूबसूरत काली आंखे, गोरा चेहरा, पतली कमर और घुंघरू बांधकर सुर-ताल पर कदमताल करते कदम.. कानों में घुलता संगीत और चारों ओर से आती वाह.. वाह की आवाज!
हां थोड़ा फिल्मी है, पर जो है ऐसा ही है.
मुजरा, तवायफ और कोठों की जो परिभाषा हमने समझी या देखी है, वो केवल फिल्मों से. फिल्मों ने हमें बताया तवायफें कोठों की शान होती हैं, नवाबों की जान होती हैं और थोड़ी बहुत बदनाम होती हैं.. हमने इन सब बातों पर यकीन कर लिया.
किन्तु, यह सच 19वीं सदी के बाद का है. इसके पहले तक तवायफें बदनाम नहीं थीं. बल्कि वे मजहब, शराफत और तालीम का वो घरौंदा थीं, जहां बड़े-बड़े नवाब अपने बच्चों को तहजीब सीखने भेजा करते थे.
कोठों का जिक्र होता है तो बनारस का नाम सबसे पहले लिया जाता है.
तो चलिए तवायफों के इतिहास के दूसरे पन्ने को बनारस के रास्ते पलटते हैं.. और जानते हैं कैसे उनकी इबादत मुजरा बनी और कोठे मंडियों में तब्दील हो गए!
बनारस में तवायफों का स्वर्णिम काल
काशी संगीत की जन्मभूमि और कई साधकों की कर्मस्थली रही है. ऐसा होना लाजमी भी है, क्योंकि शिव की भक्ति बिना संगीत के अधूरी है. यहां के धार्मिक वातावरण और सांस्कृतिक परिवेश ने संगीत के कलाकारों को अपनी प्रतिभा मांजने का मौका दिया है. इतिहास पर गौर करें तो इसे ‘गुथिल’ जैसे संगीतज्ञों ने अपनी कला से नवाजा था.
‘गुथिल’ के बारे में कहा जाता है कि ये वीणा बजाने में सिद्धहस्थ थे. 14वी सदी में हस्तिमल द्वारा रचित नाटक ‘विक्रांत कौरवम्’ में बनारस के संगीत की व्याख्या देखने मिलती है. 16वीं सदी में काशी के शासक गोविन्द चन्द्र के समय गणपति अपने कृति ‘माधवानल कामकंदला’ में नाचगाना, कठपुतली का तमाशा और भाँड का विवरण देते हैं.
इससे स्पष्ट है कि बनारस में संगीत और महफिलें सजने का दौर 16वीं सदी के दौरान शुरू हो चुका था.
खास बात यह है कि बनारस में तानसेन के वंशज काशीराज दरबार की शोभा हुआ करते थे. मंदिरों, गंगा घाटों और खानपान के अलावा बनारस को उसके संगीत ने ख्याति दिलवाई. बात जब संगीत की होती है, तो यहां की तवायफों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है. 18वीं शताब्दी तक महलों में संगीत की महफिलें सजने का दौर शुरू हो चुका था.
नगरवधु और नगर नृत्की जैसी श्रेणियां बन चुकी थीं. लेकिन इस व्यवस्था में केवल कुछ कुशल नृत्कियां ही शामिल थीं. जैसे-जैसे प्रतियोगिता का दौर आता गया वैसे-वैसे व्यवस्थाएं बदलती गईं. 18वीं शताब्दी के अन्त तक तवायफों ने अपनी महफिलें महलों से निकलकर कोठो में सजानी शुरू कर दी.
इतिहासकारों का मानना है कि बनारस में तवायफों का सबसे बेहतर दौर मुगलशासन काल में रहा. चूंकि मुगल भारतीय संगीत के मुरीद थे, तो उन्होंने तवायफों को भरपूर आर्थिक सहायता दी और महफिलें सजाने की परंपरा की शुरूआत की.
19वीं सदी शुरू होते तक बनारस के राजपरिवारों में महाराज अपने मंत्रीमंडलों के साथ महफिलों का आनंद लेते थे. जमींदार और ठाकुर कोठों पर मुजरा सुनने पहुंचा करते थे. इन दोनों ही जगहों पर धन की इतनी बारिश होती थी कि तवायफों को कभी आर्थिक नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा.
राज दरबारों, रईसों की कोठियों के अलावा मंदिरों और मठों में भी संगीत की महफिल सजती थी.
मुजरा और नृत्य यहां कभी भी अश्लीलता का पर्याय नहीं बने. मंदिरों में भजनों की शानदार प्रस्तुतियां दी जाती थीं. नृत्यनाटिका के जरिए रामायण, शिव पुराण, तांडव जैसे कई पौराणिक कथाओं को जीवंत करने का प्रयास होता रहा. उच्च वर्ग (रईस ) के घरों में पड़ने वाले मुंडन, शादी, कर्णछेदन, उपनयन संस्कारों में भी संगीत प्रस्तुति देने के लिए तवायफों को बुलाया जाता रहा.
तीन वर्गों में बंटी तवायफें
बनारस में तवायफों को तीन श्रेणियों गंधर्व, रामजानी, और गौनहारिन में विभाजित किया गया था. यह श्रेणियां 19वीं सदी से पहले ही तय कर दी गईं थी, जिसका जिक्र श्यामलिक ने 'बन पद तडितकम' में किया है.
इसके अनुसार गंधर्व यानि वे महिलाएं, जो किसी एक पुरुष के साथ उसकी दासी बनकर रह जाती थीं. घरों की महफ़िलें सजाती थीं. रामजानी वे महिलाएं थीं, जो नृत्य और संगीत को व्यवसाय बनाकर किसी भी महफ़िल में शामिल होती थीं. गौनहारिन वे बुजुर्ग महिलाएं होती थीं, जो दुल्हन के गौना पर जाकर महफ़िल को गायन से सजाया करती थीं.
कश्मीर के राजा जयपीड (779-813) के मंत्री दामोदर गुप्त ने अपनी किताब 'कूट्नीमतम' में बनारस के उन कोठो का जिक्र किया है, जहां कश्मीर से आईं तवायफों ने महफिलें सजाईं और फिर वे यहीं की होकर रह गईं.
मशहूर शायर मिर्जा ग़ालिब ने 1827 में अपनी बनारस यात्रा पर एक किताब 'चिराग-ए-दायर' लिखी थी. जिसमें बनारस की तवायफों के संगीत और कला पर विस्तार से जानकारी दी.
मिर्जा ग़ालिब ने अपने शेर में बनारस की महफ़िलों के आकर्षण के बारे में लिखा है. उनकी किताब से स्पष्ट होता है कि मुजरे या महफिलें केवल पुरूषों के लिए नहीं थीं बल्कि उनका पूरा परिवार संगीत-नृत्य का आनंद लेता था.
घर की महिलाएं महफ़िल का आनंद उठा सकें इसके लिए लकड़ियों से झरोखे बनाएं गए थे. इन झरोखों की खास बात यह थी कि महिलाओं को दरबार में बैठा कोई आदमी देख नहीं सकता था, मगर वे ऊपर से दरबार-ए-महफ़िल का पूरा लुत्फ उठा सकती थीं. बनारस की पुरानी हवेलियों में आज भी इन झरोखों को देखा जा सकता है.
इनकी आवाज का दीवाना था बनारस
बनारस में यूं तो सदियों से तवायफों का संगीत गूंजा करता रहा है. लेकिन सभी का इतिहास सुरक्षित नहीं है. जो आखिरी सुरक्षित इतिहास मिलता है. उसमें सिद्धेश्वरी देवी का नाम सबसे पहले आता है. सिद्धेश्वरी देवी चंदा बाई की बेटी थी.
सन् 1900 में उन्होंने सियाजी महाराज से संगीत की तालीम ली. उनका कोठा मणिकर्णिका घाट के पास था. यहां शाम होते ही संगीत के कद्रदानों की कतारें लगनी शुरू हो जाती थीं.
दूसरा नाम रसूलनबाई का आता है. शंभू खां रसूलन बाई के उस्ताद थे और उनका कोठा बनारस की दालमंडी में था. वे कोठे के अलावा बनारस के चौराहों पर भी महफिलें सजाती थीं. इन महफिलों की खास बात यह थी कि यहां रईसों के साथ आम आदमी भी पहुंच पाता था. जिसके कारण रसूलनबाई बनारस के हर आम आदमी की पसंद बन गईं.
वृन्दावनी श्रृंगार की बंदिशें 'लागत करेजवा में चोट' जब कानों में गूंजती है तो जुबां पर पहला नाम जद्दन बाई का आता है. उनकी आवाज में तो जादू था ही साथ ही उनका रंग-रूप अच्छे-अच्छों को अपना दीवाना बना लेता था. जद्दन बाई ने संगीत की शिक्षा दरगाही मिश्र और उनके सारंगी वादक बेटे गोवर्धन मिश्र से ली थी.
अंग्रेजों ने तवायफों को बनाया वेश्या
मुगलकाल और राजशाही का दौर अंग्रेजों के आने के बाद से कमजोर होने लगा था. जब देश में ब्रिटिश क्राउन लॉ लागू हुआ तो तवायफों को वेश्याओं की श्रेणी में ला खड़ा किया.
उनकी महफिलों पर अश्लीलता फैलाने का तमगा लगाकर बदनाम किया गया. फिर कोठो को गैरकानूनी करार दे दिया गया. ब्रिटिश काल की अदालतों ने कहा कि यहां नाच गाना नाम का है, कोठों पर असल में जिस्मफरोशी होती है!
उस दौर में राजशाही जा रही थी, खजाने खाली हो रहे थे, अंग्रेजों का डर हावी हो रहा था सो महफिलें सजनी कम होने लगीं. महलों ने तवायफों से तौबा कर ली. जो रईस कोठों पर जाते थे. उनकी आमद कम हो गई. कुछ ही सालों में कोठों की रौनक गुम हो गई. तवायफें मुफलिसी के दौर से गुजर रहीं थीं. संगीत के कद्रदानों की कमी होती जा रही थी.
तवायफों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति गुस्सा था. इसलिए उन्होंने 1857 में हुई क्रांति को हवा देने का काम किया. कई कोठे क्रांतिकारियों की पनाहगार बने. रसूलनबाई और जद्दन बाई ने तो खुलकर क्रांति में सहयोग दिया. यही कारण है कि वे अंग्रेजों की नजर में आईं और उनके कोठे खाली करवा लिए गए. उनके अलावा कई और भी तवायफें थीं जो फुटपाथ पर आ चुकी थीं.
कोठे छिनने से सिर पर से छत चली गई. दूसरी मार तब पड़ी जब देश में रेडियो पहुंचा. रेडियो ने संगीत को घर-घर तक पहुंचा दिया था. सो अब तवायफों के पास तक आने की जहमत कोई भला क्यों उठाता. पेट पालने के कुछ तवायफों ने नवाबों की दूसरी बीवी बनना स्वीकार किया तो कुछ रखैल बनकर जीती गईं.
जिन्हें ये दोनों रिश्ते नसीब नहीं हुए उन्होंने जिस्मफरोशी को अपनाया. इस तरह अंग्रेजों के देश से जाते-जाते तक कोठे मंडियों में तब्दील हो चुके थे. जिस्मफरोशी पहले मजबूरी बना पर धीरे-धीरे यह फायदे का धंधा होता गया. गलियों से मुजरे का संगीत आना बंद हो गया और तवायफें वेश्या बन गईं.
20वीं सदी की शुरूआत तक संगीत और नृत्य गलत रूप अख्तयार कर चुका था. मुजरों को जिंदा रखने का काम भारतीय सिनेमा ने किया. लेकिन यहां भी तवायफों के प्रेमकहानियों ने दर्शकों को लुभाया. लोग फिल्मी पर्दे पर मुजरे देखते और गुजरे दौर की बातें करते लेकिन उन बदनाम गलियों में पैर रखना किसी को रास न आया.
आज बनारस की दालमंडी और मर्णिकर्णिंका घाट के आसपास पुराने कोठे हैं. जहां से 16 साल से कम उम्र की लडकियां भी अपने ग्राहकों के इंतजार में झरोखे से झांकती दिखाई दे जाती हैं. इनका संगीत से कोई लेना देना नहीं है. कुछ यहां जबरन लाई गईं तो कुछ स्वेच्छा से आ गईं. अब मजबूरी में यहां आने वाली लड़कियों की कहानियां खत्म हो चुकी हैं.
यदि आज भी बनारस का वो पुराना मुजरा देखने का है, तो एकमात्र ठिकाना है-मर्णिकर्णिंका घाट! कहां जाता है कि यहां 'वेश्याएं' एक रात के लिए 'तवायफ' बनती हैं. साथ ही अपने मोक्ष की कामना मन में लिए, आंखे बंद कर केवल शिव की भक्ति में मग्न होकर चिताओं के बीच नाचती है!
Web Title: Life of the Tawaifs of Banaras, Hindi Article
Feature Image Credit: wikimedia