खतना! जो जानते हैं कि इस शब्द की परिभाषा क्या है, वो केवल इसका नाम लेने भर से ही सिहर उठते हैं. मुस्लिम समुदाय के लड़कों में 'खतना' होने के अपने वैज्ञानिक फायदे हैं.
पर जरा सोचिए केवल प्रथा के नाम पर लड़कियों को जब इस दर्दनाक प्रक्रिया से गुजरना पड़े तो कैसा लगता होगा?
उस तकलीफ को हम और आप महसूस भी नहीं कर सकते, जिससे 2 से 7 साल की बच्चियां गुजरती हैं. वो बेटियां जिन पर माता-पिता कभी खरोंच तक नहीं आने देना चाहते. उनके शरीर के नाजुक हिस्से बेरहमी की भेंट चढ़ जाते हैं.
शुक्र है कि कम से कम अब भारत के बोहरा मुस्लिमों की महिलाओं को इस दर्द से निजाद मिलने की उम्मीद जागी है.
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को नाबालिग बच्चियों का खतना किए जाने की प्रथा पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह एक बच्ची के शरीर की ‘अखंडता’ को भंग करता है. इस प्रथा से बच्ची को ऐसा नुकसान पहुंचता है, जिसे भरा नहीं जा सकता.
यही कारण कि इसको प्रतिबंधित किए जाने की मांग की जाती है.
तो चलिए इसके पीछे के उन कारणों को जानते हैं जिसके कारण न केवल हमारे देश में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी इस प्रथा का पुरजोर विरोध हो रहा है-
एनीस्थीसिया के बिना देते हैं दर्द
आगे की कहानी समझने से पहले हमें यह जानलेना चाहिए कि आखिर 'खतना' किस दर्दनाक बला का नाम है!
मेडिकल साइंस की भाषा में कहा जाए तो फीमेल जेनिटल कटिंग या फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन यानी खतना में महिलाओं के बाह्य जननांग के कुछ हिस्से को काट दिया जाता है. इसके तहत क्लिटोरिस के ऊपरी हिस्से को हटाने से लेकर बाहरी और भीतरी लाबिया को हटाया जाता है. इस प्रक्रिया को 'खफ़्द' या 'फ़ीमेल जेनाइटल म्युटिलेशन' (एफ़जीएम) भी कहते हैं.
महिलाओं का खतना जैसे संवेदनशील विषय पर 'द हिडन फेस ऑफ ईव' नाम से किताब लिख चुकीं. लेखिका नवल अल सादावी के अनुसार समुदाय में यह धारणा है कि 'लड़की के यौनांगों के बाहरी हिस्से के भाग को हटा देने से उसकी यौनेच्छा नियंत्रित हो जाती है, जिससे यौवनावस्था में पहुंचने पर उसके लिए अपने कौमार्य को सुरक्षित रखना आसान हो जाता है.'
इस प्रक्रिया का सबसे दुखद पहलू यह है कि खतने के दौरान बच्ची को एनीस्थीसिया भी नहीं दिया जाता. यानि बच्ची चीखती रहती है और बेरहम हाथ उसके नाजुक हिस्से चीर डालते हैं.
पारंपरिक तौर पर इसके लिए ब्लेड या चाकू का इस्तेमाल होता है जो कई बार इन्फेक्शन का कारण भी बन जाता है.
साफ लफ्जों में कहा जाए तो खतना के दौरान कुछ औरतें बच्ची के हाथ-पैर पकड़तीं हैं और एक औरत चाकू या ब्लेड से उसकी भगनासा (क्लाइटोरल हुड) काट देती है. खून से लथपथ बच्ची महीनों तक दर्द से तड़पती रहती है.
'खतना' के पीछे धर्म और विज्ञान
मुस्लिम पुरूषों में भी खतना की प्रक्रिया होती है. इसके पीछे वैज्ञानिक आधार साफ-सफाई और संक्रमण से बचाव का है. विज्ञान मानता है कि पुरूषों का खतना होने से उनमें एचआईवी जैसे अन्य संक्रमण होने की संभावना 80 प्रतिशत तक कम हो जाती है.
किन्तु, महिलाओं के खतना करने के पक्ष में विज्ञान भी कोई तर्क नहीं दे पाया है. जैसा की महिलाओं खतने के संदर्भ में आम धारणा है कि यह उनकी यौन इच्छाओं को नियत्रंण में रखता है, इस बात को विज्ञान सिरे से नकारता है.
शोध में यह स्पष्ट हो चुका है कि महिलाओं के खतने का उनकी यौन इच्छाओं से कोई संबंध नहीं है.
यदि महिलाओं का 'खतना' करने के पीछे के धार्मिक कारण तलाशे तो पता चलता है कि अफ्रीका में युवा लड़कियों की शादी तभी होती है जब उसने बचपन में खतना करवाया हो. ऐसा करवाने वाली लड़कियों को ही कुंवारा माना जाता है.
कुल मिलाकर यह उनकी पवित्रता का प्रमाण होता है. मासाई समुदाय में तीन दिन तक चलने वाली खतना रस्म के बाद लड़की को महिला का दर्जा मिलता है. इस रस्म के दौरान लड़कियों के जननांगों को काटने की परंपरा रही है.
जबकि, उत्तरी मिस्र को अपनी उत्पत्ति का मूल स्रोत मानने वाले बोहरा मुस्लिम समुदाय के लोग इसे इस्लामिक परंपरा का नाम देते हैं. उनके अनुसार महिलाओं के जनानंग के जिस हिस्से को काटा जाता है वह 'हराम की बोटी' कहलाता है.
कहा जाता है कि शैतान महिलाओं को बहकाए नहीं इसलिए इस हिस्से को काट देना चाहिए.
हालांकि, कुरान में कहीं भी महिलाओं का खतना कराए जाने का कोई जिक्र नहीं मिलता. कुरान में पुरूषों का खतना कराने के धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों तर्क हैं पर यहां महिलाओं का जिक्र तक नहीं.
फिर भी पिछले लगभग 1800 सालों से महिलाओं का खतना पूरी दुनिया में बदस्तूर जारी है.
विरोध के साथ खड़ी है पूरी दुनिया
महिला खतना मुस्लिम बहुल देशों की एक दर्दनाक सच्चाई है. यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में हर साल करीब 20 करोड़ बच्चियों या लड़कियों का खतना होता है. इनमें से आधे से ज्यादा सिर्फ तीन देशों मिस्र, इथियोपिया और इंडोनेशिया में होता है. अब सवाल उठता है कि आखिर भारत में इसका विरोध क्यों हो रहा है?
तो आपको बता दें कि भारत के बोहरा मुस्लिम समुदाय (दाऊदी बोहरा और सुलेमानी बोहरा) में महिला खतना की प्रथा प्रचलित है. बोहरा मुस्लिम समुदाय की अधिकांश आबादी देश के गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में है. जनगणना के अनुसार भारत में इनकी आबादी करीब 10 लाख है.
यह मुस्लिमों का सबसे समृद्ध और शिक्षित समुदाय कहलाता है. दिसंबर 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर तय किया कि महिला खतना के बारे में जागरूकता फैलाई जाएगी. इसके लिए यूएन ने साल की 6 फ़रवरी को 'इंटरनेशनल डे ऑफ़ ज़ीरो टॉलरेंस फ़ॉर एफ़जीएम' घोषित किया है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस प्रथा का पुरजोर विरोध होने का नतीजा है कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, बेल्जियम, यूके, अमरीका, स्वीडन, डेनमार्क और स्पेन जैसे कई देश इसे अपराध घोषित कर चुके हैं.
खास बात यह है कि प्रथा का विरोध करने वालों में बोहरा समाज की महिलाएं तो आगे आईं ही हैं और उनका साथ देने के लिए अन्य मुस्लिम समुदाय और गैर मुस्लिम भी सामने आ रहे हैं.
कई देशों में खतना के खिलाफ कानून
भारत में 'सहियो' और 'वी स्पीक आउट' जैसी संस्थाएं महिला खतना का पुरजोर विरोध कर रही हैं. भारत में 2017 में एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दी गई थी, जिसे मंजूर कर लिया गया है और सुनवाई जारी है.
सबसे दुखद पहलू यह है कि भारत में एनसीआआरबी (नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) में एफ़जीएम से सम्बन्धित कोई आधिकारिक आंकड़ा है ही नहीं. यानि दर्द अपराध की किसी श्रेणी में नहीं आता.
संयुक्त राष्ट्र खतने की प्रथा को मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता है. अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया सहित दुनिया के कई देशों में खतना के खिलाफ कानून हैं. अफ्रीकी देश भी इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाने में कामयाब हो रहे हैं.
केन्या ने तो साल 2011 में ही अपने यहां महिलाओं के खतने को अपराध घोषित कर दिया है. अब बारी भारत की है और इस संदर्भ में बोहरा मुस्लिम समेत पूरी देश की नजरें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हुई हैं.
किन्तु, सवाल यह उठता है कि आखिर अपनी ही बच्ची के दर्द को खत्म करने के लिए कोर्ट की सख्ती की जरूरत से ज्यादा क्या सामाजिक चेतना की आवश्यकता नहीं है?
Web Title:Muslim Women Against Circumcision, Hindi Article
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