बेटियों से दुराचार की खबरें अखबार के फ्रंट पेज की सुर्खियां बनते-बनते अब अंदर के किसी कोने के एक कॉलम में सिमटने लगी हैं. इन खबरों पर 50 शब्द भी खर्च करना भारी लगता है. न्याय दिलाने की आवाजे दिन में उठती हैं और शाम को कैंडिल मार्च की रौशनी के साथ खत्म हो जाती है. अगली सुबह नई होती है, नई खबर और पुरानी वारदात पुरानी हो जाती है.
किन्तु, मध्य प्रदेश के कुछ गांव ऐसे हैं, जहां बेटियों के लिए हर सुबह और हर रात एक जैसी है. जहां एक ओर देश का पढ़ा-लिखा वर्ग भी बेटी को गर्भ में ही मारने पर उतारू है. वहीं दूसरी ओर ये गांव मिसाल हैं, क्योंकि यहां बेटी पैदा होने पर जश्न मनाया जाता है. एक बेटी यानी कम से कम दो पुश्तों की आमदनी.
हम बात कर रहे हैं मप्र के मालवा में बसे बेड़िया-बाछड़ा समाज की. वह समाज जो बेटियों की देह पर जिंदा है. देह व्यापार इन परिवारों के लिए बुरा नहीं है. बल्कि वह लघु उद्योग है, जिसे उनके पुरखे करते आए हैं और युवा वर्ग आगे ले जा रहा है!
तो चलिए मिलते हैं उस समाज से जहां बेटियों का देह व्यापार जायज ही नहीं बल्कि परंपरा बन गई है, और जानते हैं उन चुनौतियों को जो इसे खत्म होने नहीं दे रहीं!
नाचते-नाचते देह व्यापार तक पहुंची जिंदगी
बेड़िया-बाछड़ा समुदाय भारतीय व्यवस्था का वह हिस्सा है, जो सबसे निचले दर्जे का नाम जाता है. यह हमेशा बड़े-बड़े लोगों के सानिध्य में फलता-फूलता रहा.
समाज के जानकार बताते हैं कि भारत में अंग्रेजों के शासन से पहले जब मुगल सत्ता का अधिपत्य था, तब से यह समाज मनोरंजन करके पेट पालता रहा है. निचले दर्जे का होने के कारण खेतों में काम करने नहीं मिला, राजपूत-ब्राम्हणों ने घर में घुसने नहीं दिया तो पेट पालने के लिए इन्हें नट-नाटक-नौटंकी शुरू करनी पड़ी.
यह साफ सुधरा तरीका था, जिससे रोजी-रोटी चल रही थी. नौटंकी में पहले पुरूष ही महिला का भेषधर कर खेल-तमाशे दिखाते थे. जब समाज में ही प्रतियोगिता ने जगह ले ली तो कुछ परिवारों ने अपनी बेटियों को इसमें शामिल किया.
मप्र का राई लोकनृत्य इसी समाज की देन माना जाता है. जिसमें ताल देने वाला एक पुरूष होता है और उसके साथ कई नृत्कियां घूंघट ओढ़कर नाचती दिखती हैं. मालवा में यह कला आज भी जीवित है और कलाकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके हैं.
बहरहाल नृत्य करना समाज की महिलाओं का काम बना और इसे देखकर मनोरंजन करना जमींदारों का. मुगल शासन आते तक इस शौक में इजाफा होने लगा. कोई लागत नहीं और केवल मुनाफे ही मुनाफे को देखकर यह काम चलन में आ गया.
नृत्य-संगीत की कला के साधक बने बेड़िया-बाछड़ा समाज में अब तक देह व्यापार की दस्तक नहीं हुई थी पर समाज में उन्हें बहुत अच्छी नजरों से नहीं देखा गया. वे शादी-ब्याह, बच्चे जन्म और शुभ कामों में नाचने का काम करते और पेट पालते रहे.
ताजमहल निर्माण से जुड़ा है देह व्यापार का राज
इनके देह व्यापार में उतरने की कहानी मुगल सम्राट शाहजहां से जुड़ी हुई है. इस कहानी की सत्यता की जांच अब तक नहीं की गई है. फिर भी समुदाय के लोगों का मानना है कि देह व्यापार का काम तभी शुरू हुआ जब आगरा में ताजमहल बनने का ख्याल आया. दरअसल मुमताज महल की मौत के बाद 1632 में ताजमहल का निर्माण शुरू हुआ.
शाहजहां ने इस काम को पूरा करने के लिए दुनिया भर से सबसे अच्छे कारीगरों को जमा किया. मुख्य आर्किटेक्ट उस्ताद अहमद लाहौरी इन मजदूरों को जमा कर लेकर आए थे. शर्त के अनुसान मजदूर कहीं और काम नहीं कर सकते थे. यानि उनका दिन और रात केवल ताजमहल के निर्माण के लिए थी.
ऐसे में मजदूरों का मन लगा रहे इसलिए नाटक-नौटंकी का इंतजाम किया गया. हर रोज नए करतबबाजों को तलाशना मुश्किल था, इसलिए उस्ताद ने मालवा से बेड़िया-बाछड़ा समाज के लोगों को आगरा के आसपास ही बसा लिया.
जहां खेल, तमाशे और संगीत के बीच देह व्यापार की शुरूआत हुई. ताजमहल का निर्माण 21 साल चला, तब तक बेड़िया—बाछड़ा समुदाय की एक पीढ़ी गुजर गई.
ताजमहल का निर्माण पूरा होने के साथ ही समुदाय के कुछ लोग आगरा में ही बस गए और बाकी मालवा लौट आए. जब वे लौटे तो संगीत को पीछे छोड़ आए थे और साथ आ गया था देह व्यापार!
संगीत कार्यक्रम के लिए जहां ग्राहक तलाशना मुश्किल था वहीं देह व्यापार में ग्राहकों का तांता लग गया.
देखते ही देखते समाज के पुरूषों ने वाद्य यंत्रों से किनारा किया और दलाली के काम में उतर गए. आज मलवा के मंदसौर में इस समाज की मुख्य देहमंडी है.
साथ ही कचनारा, रुंडी, परोलिया, सिमलिया, हिंगोरिया, मोया, चिकलाना जैसे करीब 68 गांवों में इस समुदाय की बसाहट है. तलाम, मंदसौर व नीमच जिले में आने वाले इन गांवों की सीमा पर समुदाय के लोगों के लोगों के घर दिखाई देते हैं.
तीनों जिले राजस्थान सीमा के नजदीक है. मंदसौर व नीमच जिला अफीम उत्पादन के लिए दुनियाभर में जाना जाता है. लेकिन समुदाय का फलता-फूलता देह व्यापार इसे बदनाम करने के लिए काफी है.
खुद को बताते हैं सैनिकों का वंशज
समुदाय के लोग देह व्यापार में उतर जाने के पीछे कई कहानियां सुनाते हैं. इसमें से एक कहानी के अनुसार वे खुद को प्रताप सिसौदिया के सैनिकों का वंशज होने का दावा करते हैं.
साथ ही और बताते हैं कि मुगलों के आक्रमण के बाद मेवाड़ की गद्दी छिन गई और राजा अपने सैनिकों के साथ जंगलों के छिपकर मुगलों स लोहा लेते रहे. कुछ सिपाही नरसिंहगढ़ में छिपे और जंगल के रास्ते राजगढ़ जिले के काड़िया पहुंच गए. नतीजतन सेना बिखर गई. जंग में राजा की मौत तो हुई ही साथ ही सिपाहियों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया.
पेट पालने के लिए सैनिकों ने लूटपाट शुरू की और घर की महिलाओं ने वेश्वावत्ति.
बाद में डकैतियां तो बंद हो गईं, लेकिन देह व्यापार परंपरा बन गया. हालांकि, यह कहानी कहने वालों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि मजबूरी में किया गया काम आज परंपरा के नाम पर जिंदा क्यों है?
जिन लोगों ने महू-नीमच राष्ट्रीय राजमार्ग का सफर किया है. वे कभी न कभी समाज की इन महिलाओं से मुखातिब हो चुके हैं. भले ही किसी की गाड़ी न रूकी हो, लेकिन सड़क किनारे खडी 13-14 साल की उन लडकियों को जरूर देखा गया होगा जो होठों पर लिपस्टिक पोते, आंखों में काजल मले, खुले बालों के साथ, कमर मटकाती खुद के बिकने का इंतजार करती हैं.
लड़कों को देना पड़ता है दहेज
पिछली जनगणना में सरकार को मंदसौर से चौंकाने वाले आंकड़े मिलेे थे. इसके अनुसार मदंसौर के 38 गांवों में 1047 बांछड़ा परिवार हैं, जिनकी कुल आबादी 3435 थी.
इनमें 2243 महिलायें और महज 1192 पुरूष थे, यानी पुरूषों के मुकाबले दो गुनी महिलाएं. नीमच जिले में वर्ष 2012 के एक सर्वे में 24 बांछड़ा बहुल गांवों में 1319 बांछड़ा परिवारों में 3595 महिलायें और 2770 पुरूष पाए गए.
समुदाय के लोगों देह व्यापार का पक्ष लेते हुए यहां भी नियमों का हवाला देते हैं. जैसे एक नियम के अनुसार उक्त महिलाओं या बच्चियों के साथ उनकी समाज का कोई भी पुरूष संबंध नहीं बना सकता.
यदि ऐसा होता तो उसे समाज से निष्कासित कर दिया जाता है. यदि वह युवती से शादी करना चाहे तो उसे युवती के पिता को 15 लाख रुपए का दहेज देना अनिवार्य है. यानि उतनी कमाई, जितनी एक लड़की अपने जीवन में पिता को दे सकती है.
नियम के अनुसार शादीशुदा महिलाएं देहव्यापार नहीं करतीं. यानि जब तक शादी हुई है वे सार्वजनिक उपभोग की वस्तु हैं और उसके बाद निजी!
प्रयासों को मुंह चिढ़ाती जिद
मंदसौर और आसपास के जिलों में करीब 200 सालों से भी ज्यादा वक्त का इतिहास लिए देह व्यापार बदस्तूर जारी है. ऐसा नहीं है कि समाज के उन्मूलन के लिए काम नहीं हुए. सरकार ने अपनी ओर से पहला प्रयास निर्मल अभियान के तौर पर 11 अगस्त 1998 में किया गया. लेकिन यह प्रयास इनके काम को बंद करने से ज्यादा सुरक्षित करने के रूप में सामने आया.
हुआ यूं कि कार्यक्रम के तहत सरकार ने यहां एड्स के प्रति जागरूकता लाने का प्रयास किया और समुदाय की महिलाओं की स्वास्थ्य जांच शुरू की, जो नियमित की जाती रही.
वहीं दूसरी ओर उन्हें संबंध बनाने के दौरान कंडोम के इस्तेमाल के फायदे बताए गए. जो उनके दिमाग में भली-भांति बैठ गए. नुक्कड नाटक-विज्ञापन आदि के जरिए एड्स के नुकसान और कंडोम के फायदे बताए गए.
अब हुआ ऐसा कि महिलाओं का देह व्यापार तो जारी रहा, बस एड्स के खतरे से कुछ हद तक निजात मिल गई. 1981 की जनगणना कार्यक्रम के दौरान समाज की कुछ महिलाओं ने अधिकारियेां के सामने पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर की थी.
इनकी इच्छा थी उन्हें सरकारी स्कूलों का साथ मिला और वे कम से कम साक्षर हो गईं. दो-तीन दशक निकलते तक समुदाय के कुछ परिवार खुद को देह व्यापार की दलदल से बाहर ले आए.
किन्तु, ये कुछ इतने कम हैं कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं और जो दलदल में धंसे हैं उनकी संख्या दोगुनी तेजी से बढ़ रही है. चंपा बेन, भंवरी देवी, भूरी बाई ये कुछ ऐसे नाम हैं, जिनसे समाज का अधिकांश तबका खार खाता है.
इन महिलाओं के प्रयासों से नई बच्चियों को देह व्यापार में जाने से रोकने में मदद मिली है.
क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ अपनी रिपोर्ट में सरकार को बता चुके हैं कि जब तक यहां घरेलु उद्योगों की स्थापना नहीं होगी, इन लोगों के पास रोजगार नहीं होगा. वे परंपरा के नाम पर बेटियों को देह व्यापार में झोंकते जाएंगे.
क्षेत्र के हालात कितने बदत्तर हो सकते हैं यह अंदाजा इसी बात से निकल सकता है कि विधायक यशपाल सिंह सिसौदिया ने उक्त मामले को विधानसभा में उठाया था. यह बात और है कि कोई भी प्रयास यहां की तस्वीर नहीं बदल पाए हैं.
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