चीन के चोंगचिंग प्रांत में 53 साल की हू सिंगलियान अपने अन्य साथियों के साथ तैयार हो रही हैं. इनके साथ तैयार हो रहा है इनका ऑर्केस्ट्रा बैंड स्टार एंड रिवर.
साउंड सिस्टम और कई तरह की लाइटों से सजे इस 6 सदस्यों वाले बैंड को एक शोक समारोह में जाना है.
चीन के कुछ इलाकों में स्थानीय निवासी के मरने पर पैसों के बदले रोने और उनका शोक मनाने वाले लोगों को बुलाया जाता है. ऐसे लोगों को चीन में कुसांग्रेन कहा जाता है.
चीन के अलावा पड़ोसी देश ताइवान में भी कुछ इसी तरह की परंपरा है.
यहां माना जाता है कि किसी मृत व्यक्ति के लिए मातम का शोर जितना ज्यादा होगा, उतनी ही जल्दी वह दूसरी दुनिया में जाएगा.
हालांकि इन दोनों परंपराओं का भारत से कोई सीधा संबंध नहीं है. फिर भी भारत के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े घरानों में किसी व्यक्ति विशेष के मरने पर काले लिबास पहने ऐसी महिलाओं का जत्था रोने जरूर जाता था, जिन्हें रुदाली कहते हैं.
आखिर कौन होती हैं रुदाली, आइए जानते हैं -
200 साल पुरानी है प्रथा
राजे-रजवाड़ों में किसी मौत पर रोने-बिलखने की प्रथा 200 साल से भी पुरानी मानी जाती है.
हालांकि वर्तमान भारत में राजपरिवार वाला विधान समाप्त कर दिया गया है. अब राजस्थान के ग्रामीण इलाके में ऊंची जातियों में किसी की मौत होने पर इस तरह की रुदाली महिलाओं को बुलाया जाता है.
पराए लोगों की मौत पर क्रंदन कर आंसू बहाने वाली रुदालियों का इतिहास भारत के राजस्थान में देखने को मिलता है. इन रुदालियों के बिलखने रोने की आवाज आज भी राजस्थान के कई इलाकों में आपको सुनने को मिल जाएगी.
माना जाता है कि इनका संबंध राजे रजवाड़ों के यहां रुदन करने से भी रहा है. जब राज परिवारों में किसी शख्स की मौत हो जाती, तो खानदानी बहुओं को रोने से बचाने के लिए ऐसी महिलाओं के समूहों को बुलाया जाता थ्ाा.
रुदालियों में कई परिवारों को ऐसे लोगों की मौत पर मुंडन तक कराना पड़ता था.
कई देशों से जुड़ा है रुदालियों का इतिहास
प्राचीन रोम, ग्रीस, मिस्र, यूरोप, अफ्रीका और एशिया के कई देशों में किसी की मृत्यु हो जाने पर बाहर से मातम मनाने वाली महिलाओं को बुलाने का प्रचलन देखा गया है.
ईसाईयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में रुदालियों का जिक्र किया गया है. इसके अलावा 16वीं शताब्दी के महान अंग्रेजी कवि विलियम शेक्सपीयर ने भी अपने नाटकों और कहानियों में इनकी चर्चा की है.
प्राचीन रोम में तो ये रुदाली महिलाएं मरे हुए आदमी को तब तक नहीं छोड़तीं जब तक कि उसका अंतिम संस्कार नहीं कर दिया जाता.
वहीं, इजराइल में भी रुदाली महिलाएं ही मृत व्यक्ति को अंतिम संस्कार के लिए तैयार करती थीं.
यूरोप के आयरलैंड में तो ऐसी महिलाओं का समूह मृत व्यक्ति को घेरकर ताली बजा-बजाकर दहाड़े मारता था.
वहीं, कई देशों में मकबरों की दीवारों पर ऐसी रोती- बिलखती महिलाओं के चित्र मिलते हैं, जिससे ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौत पर मातम मनाने वाले यहां भी बुलाए जाते थे.
आज भी ईसाईयों में किसी व्यक्ति के मरने पर काले कपड़े पहने, मुंह लटकाए चुपचाप खड़े उदास चेहरे देखे जाते हैं.
माना जाता है कि यूरोप में उन्नीसवीं सदी तक पैसे देकर रोने व मातम मनाने वाले लोगों को बुलाने का प्रचलन था. इसके बाद इन रुदालियों की जगह इन काले कपड़े पहने मौन लोगों ने ले ली.
12 दिनों तक चलता है मातम
बीबीसी की एक खबर के अनुसार, राजस्थान के रेतीले इलाकों में रहने वाले अमीर घरानों में घर के पुरुष सदस्यों की मौत होने पर रोने और मातम मनाने के लिए निचली जाति की महिलाओं को बुलाया जाता है. माना जाता है कि ऐसे घरों में गमी के दौरान घर की महिलाओं का रोना अच्छा नहीं माना जाता.
घर के किसी पुरुष के मौत की संभावना के दौरान ही रुदालियों को बुला लिया जाता है. जैसे ही पुरुष सदस्य की मौत होती है, रुदाली समुदाय काले लिबास में आकर अर्थी के सामने बैठ जाता है और छाती पीटकर, दहाड़ों के साथ रोने लगता है.
ये मातम 12 दिनों तक चलता है. तब तक रुदाली समुदाय का रुदन इसी तरह से जारी रहता है और उनकी आंखों से आंसू बहते रहते हैं.
भारतीय संस्कृति में संवाद और धार्मिक अनुष्ठान के माध्यम से निचली जाति और ऊपरी जाति के बीच अंतर को निर्दिष्ट किया जाता है.
निचली जातियों और वर्गों से आने वाली इन रुदालियों को तब बुलाया जाता है, जब उच्च वर्ग मौत के समय अपने दुःख का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करते.
ऊंची जातियों और अमीर वर्गों में घर के सदस्यों की मौत पर रुदालियों को बुलाया जाना एक स्टेटस सिंबल के तौर पर देखा जाता है.
माना जाता है कि जितनी ज्यादा और तेजी से रुदाली समुदाय मातम मनाता है, इससे परिवार का गौरव बढ़ता है.
रुदाली समुदाय की रुढ़िवादी प्रथाओं को दर्शाती 1993 में आई फिल्म ‘रुदाली’ ने भी ऐसी महिलाओं के जीवन पर प्रकाश डाला है. ये फिल्म सदियों से जारी कुलीन परिवारों की परंपरा को दर्शाती है.
बच्चों को नहीं मिलता बाप का नाम
'रुदाली' ऐसी कुख्यात रुढ़िवादी प्रथाओं में से एक है, जहां शोक या मातम मनाना एक पेशेवर जॉब है.
अमीर घरों में पुरुष सदस्य की मौत के बाद इन्हें पारंपरिक रूप से शोक मनाने और उनके परिवार की महिलाओं के बदले रोने के काम पर रखा जाता है.
इस तरह से इन्हें एक ऐसी मौत के लिए मातम मनाना पड़ता है, जो किसी भी तरह से उनसे जुड़ी हुई नहीं है.
यहां भारती चौधरी की कविता इसका सटीक वर्णन करती है...
रुदाली हैं हम
किसी पर हंसना नहीं जानते
पर अपनी व्यथा छिपाकर
औरों की व्यथा को महसूस कर
अश्रु बहाते हैं!
बावजूद इसके इन्हें ताउम्र ऐसी मौतों पर रोना पड़ता है, आंसू बहाने पड़ते हैं, क्योंकि ये रुदाली समुदाय में पैदा हुई हैं.
रुदाली समाज में हाशिए पर रहने वाला समुदाय है. जिसे एक वेश्या से कमतर नहीं समझा जाता.
वहीं, माना जाता है कि यदि रुदाली महिलाएं किसी बच्चे को जन्म देती हैं, तो उन्हें केवल मां का नाम ही मिलता है. ऐसे बच्चों को अपने बाप से केवल इसलिए वंचित रहना पड़ता है, क्योंकि इनके नाम के साथ रुदाली जुड़ा होता है. साथ ही इन्हें समाज जन्म के साथ ही एक नौकर के तौर पर देखता है, क्योंकि इनका जन्म एक रुदाली मां के पेट से हुआ है.
Web Title: Rudaali: Professional Mourning Community, Hindi Article
Feature Representative Image Credit: QuintHindi