ये दाग-दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये लफ्ज़ थे फैज अहमद फैज के जिन्होंने करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह एक आजाद देश का सपना देखा था.
जरा सोचिए कि जिन लोगों ने मिलकर आजादी का सपना देखा था, उनमें से जब कुछ लोगों को बताया गया होगा कि वो जगह जहां वो पैदा हुए अब उनका मुल्क नहीं है, तो उन पर क्या बीती होगी.
उन्हें कैसा लगा होगा, जब उन्हें अपने दोस्त, अपने घर, अपनी जन्म भूमि को त्याग कर आजादी की कीमत चुकानी पड़ी...कितनी दर्दनाक और भयावह होंगी उनकी आजादी की यादें कल्पना करना बहुत मुश्किल है.
शुक्र है कि कोई है, जो उनके इन्हीं अहसासों और हमारी कल्पनाओं के बीच की खाई को भरने का काम कर रही हैं.
नाम है गुनीता सिंह भल्ला.
वर्तमान में गुनीता एक जरिया बन रही हैं. उनकी कोशिश है कि आजादी के बाद अपनी आंखों से बटवारे का दंश झेलने वाले लोगों की कहानी आम लोगों तक पहुंच सके. इसके लिए सरहदों की परवाह किए बगैर गुनीता हर उस व्यक्ति के पास पहुंच रही हैं, जिसके पास बंटवारे का किस्सा है.
ऐसे में गुनीता और उनके इस सफर को नजदीक से जानना दिलचस्प होगा-
बंटवारे की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुई थी गुनीता
गुनीता उस परिवार का हिस्सा हैं, जिसमें कई लोगों ने बंटवारे का दंश झेला था. यही वजह थी कि बचपन से ही वह बंटवारे की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुईं. हर इंसान की जिंदगी में एक समय ऐसा आता है, जब वह अपने आस-पास की चीजों को समझने लगता है. उन मुद्दों की संजीदगी को पहचानता है. गुनीता सिंह भल्ला की जिंदगी में यह वक्त तब आया, जब 19 साल की थीं.
हालांकि, गुनीता बचपन से ही बंटवारे से जुड़ी कहानियां सुनती रहती थीं, लेकिन उनको लेकर वह पहली बार तब गंभीर हुईं, जब उनकी दादी हरभजन कौर ने बंटवारे को लेकर अपना अनुभव उनके साथ सांझा किया.
हजारों लोगों की तरह गुनीता सिंह भल्ला की दादी भी अपनी पारिवारिक संपत्ति छोड़कर लाहौर से पंजाब आने को मजबूर हुई थीं. कोई भी देश हो दंगों या युद्ध का असर महिलाओं और बच्चों पर ही सबसे ज्यादा होता है. बंटवारे के समय भारत सांप्रदायिकता की आग में जल रहा था. औरतों का बलात्कार हो रहा था. बच्चों को बेरहमी से मौत के घाट उतारा जा रहा था.
जाहिर है कि एक औरत के लिए जो अपने तीन बच्चों के साथ ऐसे माहौल में निकल रही थी, उसके लिए उन यादों को भुला देना आसान नहीं. अपनी दादी की कहानी में गुनीता को दूसरे उन लोगों के बारे में सोचने पर मजबूर किया, जो बंटवारे की आग में जिंदा रहे थे. अपने बचपन में वह परिवार के साथ अमेरिका शिफ्ट हो चुकी थीं.
मगर उनके मन में बंटवारे के इतिहास से जुड़े सवाल बार-बार उठाए थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जिन लोगों ने बंटवारे में अपनी जान गवाई उनकी याद में कोई स्थाई संग्रहालय नहीं बनवाया गया.
कठिनाईयों के बावजूद नही छोड़ा हौसले का दामन
मात्र एक कॉलेज छात्रा होने के चलते वह अपने आप को मजबूर सा महसूस कर रही थी. वो समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्या किया जाए, जिससे उन लोगों की कहानियों को कहा जा सके, जिन्होने बंटवारे के दर्द को सहा था.
मगर गुनीता जानती थी कि वो कुछ तो करेंगी. बस उन्हें एक ऐसे पल का इंतजार था, जिससे उन्हें बंटवारे की मार सहने वाले लोगों के लिए कुछ करने का हौसला मिलता. जल्द ही वह पल भी आ गया.
साल था 2008. गुनीता अपनी पीएचडी की पढ़ाई के लिए टोक्यो गई हुई थीं. इसी दौरान एक दिन वह हिरोशीमा मेमोरियल म्यूजियम की यात्रा पर निकलीं. यह संग्रहालय उन लोगों की याद में बनाया गया था, जिन्होंने 1 अगस्त 1945 को हुए परमाणु हमले में अपनी जान गवाई थी. मेमोरियल को देख कर एक बार फिर गुनिता के मने में उथल-पुथल होनी शुरू हुई.
कहते हैं इसी के बाद उन्होंने फैसला किया कि वह बंटवारे का दर्द सहने वाले लोगों की कहानियों को दुनिया तक ले जाएंगीं. इसके लिए वह साल 2008 की सर्दियों में ही भारत आईं. पंजाब के फरीदकोट में एक बुकसैलर के जरिए वो दो लोगों से मिलीं, जो पाकिस्तान के ओकारा में रहते थे.
उन्होंने बंटवारा झेल चुके उन दोनों लोगों को और उनके अलावा अन्य 2 लोगों के अनुभव को अपने कैमरे में कैद किया.
साल भर बाद गुनीता फिर भारत लौटीं. इस बार वो पंजाब के आनंदपुर साहिब में रह रहे अपने चाचा हरवतार सिंह सोढ़ी से मिलीं, जिन्होंने भारत के बंटवारे को झेला था. 90 की उम्र को पार कर चुके अपने चाचा की बंटवारे की कहानी को रिकॉर्ड करने के लिए गुनीता बड़ी उत्साहित थीं, लेकिन कैमरा न होने के चलते वो ऐसा नहीं कर पाई.
वहीं गुनीता से मिलने के छह महीने बाद ही हरवतार सिंह सोढ़ी गुजर गए. एक अखबार से बातचीत के दौरान गुनीता न कहा कि उनकी कहानी न रिकॉर्ड कर पाने पर उन्हें बहुत दुख हुआ, लेकिन उन्होंने आगे बढ़ना बंद नहीं किया.
संभाले रखा बंटवारे की कहानियां कहने का जिम्मा
उन्होंने दृढ़ इच्छा शक्ति के चलते बंटवारे की कहानियों को इकट्टठा करना जारी रखा. बंटवारे के गवाह रहे लोगों को ढूंढ़ने के लिए गुनीता ने मंदिरों, गुरूद्वारों और मस्जिदों का सहारा लिया. कैलिफोर्निया के ही एक गुरूद्वारे में गुनीता को दर्जनों ऐसे लोग मिले, जिन्होंने बंटवारे की घटना को अपने आंखों से देखा था.
गुनीता जोकि पेशे से एक फिजिसिस्ट थीं. उन्होंने शुरुआत में अपने उधार लिए हुए एक कैमरे के जरिए उन लोगों की कहानियों को रिकॉर्ड किया. आगे इस काम में गुनीता की मदद उनके जान-पहचान वाले कुछ छात्रों ने की. धीरे-धीरे उनके वोलेंटियर्स का सर्कल बढ़ता गया. चंदे की मदद से प्रोजेक्ट से जुड़ी उनकी आर्थिक जरूरतों को भी बल मिला.
2011 में गुनीता कैलिफोर्निया में बंटवारे से जुड़े इतिहास को संजाने के लिए एक एनजीओ को पंजीकृत कराने में सफल रहीं. यह 1947 पार्टिशन आर्काइव के नाम से जाना गया. 2013 तक गुनीता ने अपने सपने और काम को एक साथ संभाला.
मगर दोनों का एक साथ संभव नहीं थे, इसलिए आगे वह पूरी तरह अपने एनजीओ के प्रति समर्पित हो गईं. फिलहाल गुनीता 1947 पार्टिशन आर्काइव की सीईओ हैं. गुनीता की टीम से न सिर्फ भारत, बल्कि कई देशों से लोग जुड़े हुए हैं.
इनमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और कैलिफोर्निया भी शामिल है!
ये गुनीता सिंह भल्ला और उनके साथ काम करने वाले लोगों की मेहनत का ही नतीजा है कि वो बंटवारे से जुड़ी 2,500 कहानियों को रिकॉर्ड कर पाए. इन कहानियों को उनके एनजीओ के फेसबुक पेज पर जाकर पढ़ा जा सकता है.
ये कहानियां न सिर्फ उन लोगों को समर्पित हैं, जिन्होने भारत के बंटवारे को झेला था, बल्कि ये आने वाली पीढ़ीयों के लिए एक सीख है कि हिंसा के घाव सालों गुजरने के बाद भी नही भरते हैं.
क्यों सही कहा न?
Web Title: Story of Guneeta Singh Bhalla, Hindi Article
Feature Image Credit: Becca/LinkedIn